
— अरुण कुमार त्रिपाठी —
तुलसी को पढ़ें या न पढ़ें? पढ़ें तो कैसे पढ़ें? तुलसी नफरत फैलाने वाले कवि हैं या समाज को हौसला दिलाने वाले करुणा और प्रेम के कवि हैं? वे लोकमंगलकारी हैं या अमंगलकारी? उनकी कविता में प्रतिबद्धता के साथ उपस्थित वर्णव्यवस्था क्या उनके जीवन व्यापार में भी उसी रूप में है? जातियों के प्रति उनका जो सैद्धांतिक नजरिया है क्या व्यवहार में भी वैसा ही है? क्या उस समय के कट्टर ब्राह्मणवादी लोग उन्हें सिर-माथे पर बिठाए रहते हैं या फिर उन्हें उत्पीड़ित करते हैं? वे स्त्री-विरोधी हैं या स्त्री की पीड़ा को स्वर देने वाले? वे सांप्रदायिकता फैलाने वाले कवि हैं या फिर समाज में शांत और करुण रस का संचार करके उसे समता की ओर ले जाने वाले हैं? सोलहवीं सदी के इस कवि को इक्कीसवीं सदी में कैसे और कहां बिठाया जाए? इन तमाम सवालों से हमारा हिंदी इलाका बेचैन है।
संयोग से तुलसीदास और उनके रामचरितमानस पर विवाद शुरू करने वाले बिहार के मंत्री चंद्रशेखर यादव अपने को डॉ राममनोहर लोहिया का अनुयायी बताते हैं। उसके बाद अगर समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने तुलसी की आलोचना की है तो उनकी पार्टी भी डॉ लोहिया को अपना आदर्श मानती है इसीलिए वह परेशान भी है। संयोग से अर्जक संघ के संस्थापक और तुलसीदास को हिंदू समाज का पथभ्रष्टक बताने वाले रामस्वरूप वर्मा भी समाजवादी और डा लोहिया के सहयोगी थे। ऐसे में यह सवाल अहम हो जाता है कि आखिर डा लोहिया, तुलसीदास के रामचरित मानस और उनकी शूद्र और स्त्री विरोधी चौपाइयों को किस तरह से देखते थे?
डा लोहिया ने रामायण मेला की कल्पना करते हुए 1960 और 1961 में तुलसीदास और उनकी कविताई पर जो टिपप्णियां की थीं वे तुलसी पर उठने वाले विवाद के संदर्भ में प्रासंगिक हैं।
डा लोहिया के रामायण मेला का आयोजन चित्रकूट में होना था। क्योंकि लोहिया मानना था कि रामायण मेला का आयोजन अयोध्या में होता तो अच्छा होता लेकिन अयोध्या सदातीर्थ होने के कारण और चित्रकूट रमणीक होने के कारण आयोजन के लिए चित्रकूट का ही चुना जाना उचित है। उस मेले की अवधारणा विस्तृत थी जिसमें तुलसीकृत रामायण (रामचरितमानस) से लेकर रामकथा के भारतीय और वैश्विक रूपों की चर्चा होनी थी। इससे वे हिंदी भाषा को समृद्ध करना चाहते थे और उसका संपूर्ण भारत और दुनिया के साथ एक सांस्कृतिक रिश्ता भी जोड़ना चाहते थे। लेकिन वह आयोजन उनके जीवन में हो न सका। लगातार टलता रहा और 1967 में उनके निधन तक वह विचार मूर्त रूप नहीं ले सका। पहली बार 1973 में उसका आयोजन उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित कमलापति त्रिपाठी ने किया।
डा लोहिया अक्सर रामचरितमानस को रामायण कहकर ही संबोधित करते हैं क्योंकि अवध क्षेत्र में यही संबोधन प्रचलित है। इसलिए यहां रामायण कहने पर उसे वाल्मीकि कृत आदि ग्रंथ से किसी प्रकार भ्रमित नहीं होना चाहिए। आइए पहले उन बातों पर गौर करते हैं जो डा लोहिया ने तुलसी के रामचरितमानस में शूद्र और अन्य पिछड़ी जातियों समेत स्त्रियों को आहत करने वाली पंक्तियों के बारे में कही हैं। वे कहते हैं :
“शूद्र और अन्य पिछड़ी जातियों के बारे में रामायण में काफी अविवेक है। इस संबंध में एक बात ध्यान रहे तो बड़ा अच्छा है। शूद्र को हीन बताने की जितनी चौपाइयां हैं उनमें से अधिकतर कुपात्रों ने कही हैं, अथवा कुअवसर पर। इतना जरूर सही है कि द्विज और विप्र को हर अवसर पर इतना ऊंचा चढ़ाया गया है कि शूद्र और वनवासी बहुत नीचे गिर जाते हैं। इसे भी समय का दोष और कवि को समय का शिकार मानकर रामायण के रस का पान करना चाहिए। मैं उन लोगों में नहीं जो चौपाइयों के अर्थ की खींचतान करते हैं अथवा सौ चौपाइयों के मुकाबले में केवल विपरीत चौपाई का उदाहरण देकर अपनी गलत बात को मनवाना चाहते हैं।’’
जाति तोड़ने या जाति के समूल नाश का संकल्प रखने वाले अन्य लोग निषाद के प्रसंग को अलग अलग तरीके से प्रस्तुत करते हैं लेकिन डा लोहिया उसे जाति-प्रथा के बीहड़ और सड़े गले जंगल में एक चमकती हुई पगडंडी मानते थे।
डा लोहिया ने तुलसी की एक और बारीक आलोचना की है जिस पर गौर करने लायक है। वे कहते हैं, “तुलसी रामायण की धार्मिक कविता ऐसी है जैसी शायद दुनिया भर में कोई कवित्वमय नहीं है। लेकिन बिना किसी संदेह के यह कहा जा सकता है कि वह विवेक को दबा देने की ओर प्रवृत्त करती है। जहां धर्मनिरपेक्ष कवि शेक्सपीयर और गेटे या कालिदास जैसे भी पाठक में उसकी समीक्षा बुद्धि को अवरुद्ध किए बिना कविता का विस्तीर्ण वातावरण निर्मित करते हैं, वहीं रामायण किसी भी विषय पर जो कुछ कहती है उसे पवित्र बना देती है।…..इसी क्रम में औरतों या पिछड़े वर्गों या जातियों के खतरनाक स्वरूप संबंधी विचार प्रतिष्ठित किए गए हैं।’’
लेकिन फिर लोहिया उनके साहित्य की उन पंक्तियों को याद करने लगते हैं जो समष्टिगत हैं और लोकमंगलकारी हैं। वे पंक्तियां हैं –
सीय राममय सब जगजानी
करहुं प्रणाम जोरि जुगपानी
या
कत विधि सृजी नारि जग माहीं।
पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।।
फिर वे कहते हैं, “और नारी को कलंकित करने वाली पंक्तियों को हंसकर टाल देना चाहिए क्योंकि वे पंक्तियां किसी शोकसंतप्त या नीच पात्र के मुंह में हैं। या ऐसे कवि की हैं जो अपरिवर्तनशील युग में था।‘’
यहां एक बात और ध्यान देने लायक है कि जिन रामस्वरूप वर्मा ने तुलसी के मानस और उनकी कविताओं को स्त्री और शूद्र विरोधी बताकर उनका कड़ा विरोध किया था उन्हीं ने डा लोहिया को याद दिलाया था कि पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं का संबंध नारी से है। `जब पार्वती का विवाह हो गया तब उनकी मां मैना विदाई के मौके पर दुखी होकर और समझाने बुझाने पर संताप की वह बेजोड़ बात कहती हैं जो सारे संसार की नारी हृदय की चीख है। `कत विधि सृजी नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं। हिंदू नर इतना नीच हो गया है कि पहले तो उसने इस चौपाई के पूर्वार्ध को भुला देने की कोशिश की, फिर कहीं कहीं उसने इसका नया पूर्वार्ध ही गढ़ डाला—कर विचार देखहुं जग मांही।’
इसीलिए डा लोहिया हिंदू पुरुषों की प्रवृत्ति पर तंज करते हुए कहते हैं कि उसे नारी हीनता वाली कविता याद रहती है लेकिन नारी सम्मान वाली कविता को वह भुलाए रहता है।
वास्तव में डा लोहिया ने रामायण मेला की जो परिकल्पना की थी उसमें आनंद, दृष्टि, रससंचार और हिंदुस्तान को बढ़ावा देने का उद्देश्य था। इसी के साथ जुड़ा था अंग्रेजी हटाओ का पूरा विवेचन। वे चाहते थे कि हिंदी का दूसरी भारतीय भाषाओं से गाढ़ा संबंध स्थापित हो जाए। उन्हें हिंदी के प्रसार के लिए तुलसी की कविता बहुत मददगार लगती थी।
वे तुलसी के महत्त्व को स्वीकार करते हुए उनसे आगे जाने और अन्य कविताओं में आनंद लेने की बात भी करते हैं। वास्तव में डा लोहिया नास्तिक थे। तर्कशील थे लेकिन वे भावजगत को त्याज्य नहीं मानते थे। उनका मानना था कि वह मानव और समाज की आवश्यकता है। इसी क्रम में वे धर्म को भी एकदम त्याज्य नहीं मानते। पर वे राजनीति और धर्म के विवेकपूर्ण रिश्ते की बात करते हैं। इसीलिए वे कहते हैं, “तुलसी की महिमा सीधे न बखानी जाए। तुलसी महान हैं यह कहना अनावश्यक है। जरूरत है बताने की उन चीजों की जिनमें उनकी महत्ता फूटती है। तुलसी एक रक्षक कवि थे। जब चारों ओर से अझेल हमले हो रहे हों, तो बचाना, थामना, टेका देना शायद तुलसी से बढ़कर कोई नहीं कर सकता है। जब साधारण शक्ति आ चुकी हो, फैलाव, खोज, प्रयोग, नूतनता अथवा महाआनंद के लिए दूसरी या पूरक कविता ढूंढ़नी होगी।‘’
जिन पंक्तियों से तुलसी की महत्ता फूटती है वे पंक्तियां निषादराज को भरत और लक्ष्मण के सदृश मानने की और भरत के गुणों का बखान करने की हैं। लोहिया यह सवाल उठाते हैं कि जिस निषाद को छुआ नहीं जा सकता वह अचानक राम का छोटा भाई कैसे बन जाता है। यह इसलिए है कि तुलसी की निगाह में प्रेम के आगे सब कुछ ढह जाता है। एक प्रसंग में भरत और राम का वर्णन है। उसमें कहा गया है कि –
“भरत अवधि सनेह ममता की, जदपि राम सीम समता की।”
यानी राम समता की सीमा हैं। जबकि भरत प्रेम और सनेह की। समता का अर्थ है ठंड और गरम, हर्ष और विषाद और जय व पराजय की स्थिति में मन की समान भावना। “मन की भावना अगर सच है तो वह बाहरी जगत के प्राणियों के लिए भी छलकेगी। जिस तरह राम की समता छलकती है उसी तरह भरत का स्नेह भी छलकता है। दोनों निषाद को गले लगाते हैं। यह सही है कि पालागी और गल मिलौवल को साथ साथ चलाना प्रवंचना होगी। पालागी खत्म हो और गलमिलौवल रहे।”
यहां लोहिया राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में राम के चारों भाइयों और निषादराज के मिलन का बहुत बारीक और सुंदर विश्लेषण करते हैं। वे लिखते हैं, “निषाद लक्ष्मण की तरह दीखता है। यह कौतुकमय प्रसंग है। लक्ष्मण गोरे हैं। निषाद को भी इसलिए गोरा बनाया गया है। राम लक्ष्मण की सांवरी-गोरी जोड़ी का भ्रम एक भरत-शत्रुघ्न की सांवरी-गोरी जोड़ी में हो जाता है। सिर्फ वस्त्र और सीता के न रहने से पता चलता है कि कौन कौन है। इस गोरे सांवले के मामले में थोड़ी और जानकारी बढ़नी चाहिए। राम और भरत दोनों सांवले हैं। इन महान तथ्यों के सामने कैसे कहा जाए कि रामायण आर्यों का ग्रंथ है अथवा उत्तर वालों का।”
लोहिया को तुलसी के रामायण में मौजूद शांत और करुण रस के आधिक्य से बहुत परेशानी है। विद्रोह और रचना के विचारक लोहिया को इस शांत रस में समाज के डूब जाने का डर लगता है। वे तो रामायण के माध्यम से अपने समाज में समता-सम्पन्नता और प्रेम की दृष्टि उत्पन्न करना चाहते हैं और उसे जगाना चाहते हैं। उन्हें इस बात से भी आपत्ति है कि तुलसी के यहां सारी बड़ी घटनाएं सौम्यता के साथ घटित हो रही हैं। बुराई भी सौम्य है, अत्याचारी का कत्ल भी सौम्य है, प्रेम भी सौम्य है। एक जगह वे विभीषण के इस कथन पर कि उनकी स्थिति ‘जिम दशनन मंह जीभ विचारी’ वाली है, कहते हैं कि गजब है, इस राक्षस राज जैसा मत स्वातंत्र्य तो अभी तक किसी जनतंत्र में हुआ ही नहीं।
लोहिया को तुलसी के रामायण में संयोग-श्रृंगार की कमी खलती है। उन्हें सिर्फ एक जगह वह दिखाई पड़ता है जहां राम चित्रकूट की फटिकशिला पर बैठे हैं और अपने हाथों से चुने हुए फूलों से सीता के लिए हार बनाते हैं।–’एक बार चुनि कुसुम सुहाए, निज कर भूषन राम बनाए।’ उसके बाद वे तुलसी की शर्म हया से परेशान हैं। दरअसल तुलसी अपने माता पिता सदृश राम और सीता के लिए इससे ज्यादा कुछ लिख नहीं सकते थे। लेकिन लोहिया को शायद वह प्रसंग किसी ने याद नहीं दिलाया जब राम जनकपुर की वाटिका में सीता को देखकर मोहित हो जाते हैं और फिर तुलसी लिखते हैं –
कंकन किंकनि नूपुर धुनि सुनि,
कहत लखन सन राम हृदय गुनि
मानहुं मदन दुंदुभी दीन्हीं
मनसा विश्व विजय करि लीन्हीं
अंत में डा लोहिया के उन सुझावों का उल्लेख जरूरी है जो वे रामायण मेला के बहाने देते हैं और मोती कूड़ा विवेक जैसा चर्चित मुहावरा प्रयोग करते हैं जिसका उपयोग ज्ञान के हर क्षेत्र में किया जा सकता है।
वे कहते हैं, “तुलसी के रामायण में आनंद के साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है। धर्म शाश्वत मानी में और वक्ती भी। तुलसी की कविता से निकली हैं अनगिनत रोज की उक्तियां और कहावतें, जो आदमी को टिकाती हैं और सीधे रखती हैं। साथ ही ऐसी भी कविता है जो एक बहुत ही क्रूर और क्षणभंगुर धर्म के साथ जुड़ी हुई है। जैसे शूद्र और नारी की निंदा और गऊ, विप्र की पूजा। मोती को चुनने के लिए कूड़ा निगलना जरूरी नहीं है। न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती को फेंकना।
रामायण मेले का धर्म-संबंधी तात्पर्य मोती कूड़ा विवेक भी होना चाहिए।’’
इसी टिप्पणी के एक हिस्से में वे कहते हैं कि धर्म को दीर्घकालिक राजनीति और राजनीति को अल्पकालिक धर्म माना जाना चाहिए। फिर सुझाव देते हैं कि दोनों के जटिल रिश्ते को कैसे अलग अलग रखते हुए एकदम से तोड़ा न जाए।
विडंबना यह है कि आज के गांधीवादी न तो गांधी की इस बात को समझ पाते हैं कि गोरक्षा करते हुए कैसे अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करना जरूरी नहीं और न ही लोहिया के शिष्य समझ पाते हैं कि तुलसी की रचनाओं से कूड़ा फेंकते हुए उसके मोती को कैसे चुना जाए।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
















