— नारायण देसाई —
दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के अधिकारों के संघर्ष में सफलता हासिल करने के बाद गांधी जब स्थायी रूप से भारत लौटे, तो गोखले ने उन्हें एक साल तक पूरे देश में घूमने और सार्वजनिक तौर पर बोलने से परहेज करने की सलाह दी। गोखले एक लिबरल नेता थे तथा अपनी निश्छलता, बौद्धिकता व दृढ़ चरित्र के लिए जाने जाते थे और उन्हें गांधी गर्व से अपना राजनीतिक गुरु कहते थे। गोखले ने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के नेतृत्व में चले आंदोलन पर बारीकी से निगाह रखी थी और गांधी के कुछ गुणों को किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में वे ज्यादा समझते और सराहते थे। गांधी ने न सिर्फ उनकी सलाह निष्ठापूर्वक स्वीकार की, बल्कि इसे ‘भारत की आत्मा’ को जानने-समझने के अवसर में बदल दिया। उन्होंने रेल के तीसरे दर्जे में सफर किया, बहुत सारी जगहों पर वे गए, उन्होंने तीर्थस्थानों और उन मेलों को देखा जहां लोग लाखों की संख्या में आते थे, विभिन्न राजनीतिक धाराओं के बहुत सारे नेताओं से बातचीत की और सार्वजनिक रूप से खामोश रहने के उन दिनों में भारत में अपना आश्रम जीवन शुरू किया।
बहुत-से राजनीतिक नेता, खासकर समाजवादी, भारत की जनता की नब्ज पहचनाने की गांधी की क्षमता का लोहा मानते थे। स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए गांधी के सुझाए हर कार्यक्रम से वे सहमत नहीं हो पाते थे। पर जब तीखी असहमति रहती थी, तब भी वे यह तो मानते थे कि गांधी जन-भावना को किसी से भी बेहतर समझते हैं।
मैं समझता हूं कि उनकी इस खूबी के पीछे तीन खास बातें थीं। एक कारण यह था कि वर्ष 1916 का उपयोग उन्होंने लोगों के बीच घूमते-फिरते हुए और उनके साथ घुल-मिलकर भारत के दिल को टटोलने में किया था। दूसरा कारण यह है कि 1916 तक गांधी ने भारत में प्रचलित प्रमुख धर्मों के धर्मग्रंथों का अध्ययन करके भारतीय संस्कृति को अच्छी तरह समझ लिया था और उसे अपने भीतर जज्ब भी कर लिया था। तीसरा कारण दबे-कुचले लोगों के साथ उनकी सहानुभूति थी जिससे वे जनसाधारण के साथ जुड़ गए।
गांधी समझते थे कि ब्रिटिश हुकूमत के तहत भारत के एक राजनीतिक इकाई बनने से पहले देश में एक होने की जो भावना थी वह हमारी सांस्कृतिक विरासत की देन थी। गांधी की शख्सियत जल्दी ही भारत की सांस्कृतिक विरासत का एक प्रतीक बन गई। गांधी का राष्ट्रवाद भारत की सांस्कृतिक विरासत पर आधारित था।
एक संस्कृति जिसने अपने सात लाख गांवों के स्वालंबन को महत्त्व दिया था, जिसकी गहरी जड़ें भारत के मानव संसाधन और इसकी ऊर्जा में थीं। एक विरासत जो कई हजार साल से, अविछिन्न और अनवरत बनी रही, जो शरीर के शृंगार के बजाय आत्मा के अमरत्व पर भरोसा करती रही। गांधी अकसर नेताओं से अंगरेजी में बात करते थे और जनसाधारण से हिंदुस्तानी में। कांग्रेस नेतृत्व ने जब असहयोग के कार्यक्रम का उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, और जिसे कांग्रेस के अधिकतर लोगों ने भी मान लिया था, तब उन्होंने बिना देरी किए कांग्रेस के संविधान में कुछ फेरबदल सुझाए। और इन सुझावों को अपना लेने के बाद कांग्रेस व्यापक जनसंगठन में बदल गई।
अपनी जरूरत या सुविधा के लिए प्रेसीडेंसी की ब्रिटिश परंपरा को जारी रखने के बजाय गांधी का सुझाव था कि कांग्रेस जनता की भाषागत जरूरतों के मुताबिक अपने को पुनर्गठित करे, इससे देश के साधारण व्यक्ति तक पहुंचना आसान हो जाएगा। गांधी ने भारत में अपने नेतृत्व के शुरुआती दौर में जिस तिहरे कार्यक्रम का प्रचार किया था उससे भी भारतीय राष्ट्रवाद की जमीन तैयार होने में मदद मिली। वह कार्यक्रम था, काफी संख्या में लोगों से छोटे-छोटे चंदे लेकर एक करोड़ रु. इकट्ठा करना, कांग्रेस के लाखों सदस्य बनाना और सूत कताई के लिए बीस लाख चरखे शुरू करना। इस कार्यक्रम का आखिरी पहलू कांग्रेसजनों को हजारों गांवों में ले गया और इसने उन्हें देश के सबसे गरीब लोगों के करीब कर दिया। इस कार्यक्रम ने कांग्रेस को एक जन संगठन में बदल दिया और भारत के जनसाधारण को आजादी के लक्ष्य से जोड़ दिया।
गांधी उन नेताओं में थे जिन्होंने सबसे पहले यह पहचाना और इस पर जोर दिया कि भारत अपने गांवों में रहता है। ऐसा करके उन्होंने मुट्ठी-भर शिक्षित लोगों और करोड़ों अशिक्षितों के बीच की विभाजक रेखा मिटा दी। इसने देश को संपूर्ण एकत्व का बोध दिया, जो कि स्वस्थ राष्ट्रवाद का आधार था। हालांकि गांधी ने जिन कार्यक्रमों के जरिए देश का नेतृत्व किया वे सार्वभौमिक थे, पर उनकी व्यवहार-भूमि भारत था। इसने उनके आंदोलन को व्यावहारिक आधार दिया, पर उसकी दृष्टि इससे परे भी जाती थी, दूर क्षितिज तक।*l
गांधी ने भारत में जब अपना पहला आश्रम अहमदाबाद के कोचरब में स्थापित किया, तो अधिकतर साथी उऩके गृहराज्य गुजरात से थे, लेकिन आश्रम की आचार संहिता से संबंधित परिपत्र देश-भर में बहुत-से लोगों को भेजा गया था। जो गतिविधि उन्होंने शुरू की थी वह भले तब स्थानीय रही हो, पर पूरा देश कभी भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं रहा। यहां यह उल्लेखनीय है कि अहमदाबाद के निकट स्थित सत्याग्रह आश्रम जल्दी ही गांधीवादी गतिविधियों का केंद्र बन गया, जहां देश के कोने-कोने से कार्यकर्ता खिंचे आते थे। देश से बाहर के उत्सुक लोग भी अकसर आते रहते थे।
अपना लगभग सारा समय देश की सेवा में लगाते हुए भी गांधी बाकी दुनिया से, वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक, दोनों तरह के संपर्क बनाए रखते थे, पत्रों के जरिए भी और अपनी पत्रिकाओं में लेखों तथा टिप्पणियों के जरिए भी। भारत में नेता के रूप में मान्य होने से पहले गांधी इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका में रह चुके थे और तीनों महाद्वीपों में मित्रता के जो संबंध बने थे उन्हें विच्छिन्न नहीं होने दिया। प्रसिद्धि बढ़ने के साथ-साथ अमेरिका में भी उनके मित्रों और प्रशंसकों की संख्या बढ़ती गई।
लेकिन विदेश के दौरे करने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी। वे कभी निरुद्देश्य यात्रा नहीं करते थे और इस बात को लेकर सजग थे कि अगर कभी देश से बाहर जाना हुआ तो शेष विश्व को जो एकमात्र सौगात वे दे सकते हैं वह अहिंसक आंदोलन का उनका अनुभव ही होगा। लेकिन उसके लिए भी वे विदेश की यात्रा करना जरूरी नहीं समझते थे। भारत अहिंसक कार्रवाई की उनकी महान प्रयोगशाला था और वे आश्वस्त थे कि अहिंसा के साथ उन्हें जो सफलता स्वदेश में मिलेगी, वह बाकी दुनिया के लिए भी उनके संदेश का काम करेगी। दो या तीन बार उन्होंने यूरोप जाने को सोचा। पर उसके पीछे मुख्य रूप से कुछ बहुत आदरणीय व्यक्तियों का मित्रतापूर्ण और आग्रहपूर्ण निमंत्रण स्वीकार करना था। लेकिन बहुत बार ऐसे न्योतों को उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया था। केवल तभी जब उन्हें राजनीतिक कार्य से इंग्लैंड जाना पड़ा, तो उन्होंने रोमा रोलां जैसे मित्रों से मिलने के खयाल से यूरोप में कुछ सप्ताह और रुकने का सुझाव मान लिया था।
सत्य और अहिंसा उनके मिशन के मूल में थे। और यही उनके राष्ट्रवाद के आधार भी थे। भारत उनकी व्यवहार-भूमि था, पर वे जानते थे कि ये सार्वभौमिक मूल्य हैं और मुतमइन थे कि अगर इंसानियत को बने रहना है और सौहार्द के साथ जीना है तो राष्ट्रवाद की जिस परिकल्पना में वे पले-बढ़े उसे अनवरत विस्तृत होते जाना है और अंततः विश्व-बंधुत्व में परिणत हो जाना है।
अपने को सबसे अलग और सबसे ऊपर मानने वाला राष्ट्रवाद का आयाम, जो कि दूसरे देशों और नस्लों के प्रति अवमानना व घृणा पर आधार रखता है, ऐसी चीज था जिसे गांधी सख्त नापसंद करते थे। हालांकि उन्होंने राष्ट्रध्वज जैसे प्रतीकों को स्वीकार किया था और खादी के लिए जवाहरलाल नेहरू की दी हुई ‘आजादी की वर्दी’ की उपमा को सराहा था, उनके दिल में किसी ऐसी चीज के लिए जगह नहीं थी जो समूची मानवता से छोटी या संकीर्ण हो। निस्संदेह उन्होंने अपना सफर निकटतम पड़ोसी की सेवा के साथ वैश्विक मानवता के लक्ष्य की तरफ शुरू किया था, पर यह वहीं खत्म नहीं हो गया। यह मार्ग आगे और प्रशस्त होता रहा, आरोहण भी चलता रहा, उनकी अंतिम सांस तक।
अनुवाद : राजेन्द्र राजन