— राजकिशोर —
वैलेंटाइन डे को भारत में प्रेम दिवस कहा जाए तो कैसा रहे? संत वैलेंटाइन यूरोप के थे। यूरोपीय इतिहास के एक विशेष समय में उन्होंने स्त्री-पुरुष प्रेम की महत्ता और इससे भी ज्यादा उसकी अनिवार्यता को पुनःप्रतिष्ठित करने का महान काम किया था। संत स्वयं ब्रह्मचारी रहे होंगे। लेकिन उनके इस चिर-स्मरणीय कार्य से यह बात फिर-फिर खयाल में आती है कि संत वही होता है जो जरूरत पड़ने पर समाज की आवश्यकताओं को अपने धार्मिक या अन्य विश्वासों से ऊपर मानने का साहस दिखा सके। खासतौर से तब, जब सत्ता समाज पर सवारी गाँठने का अहंकार दिखा रही हो।
भारत में ऐसी परिस्थिति कभी पैदा नहीं हुई है। लेकिन प्रेम का उत्सव मनाना एक सार्वत्रिक जरूरत और विशेषता है। जहाँ भी स्त्री-पुरुष हैं, वहीं प्रेम है और प्रेम है तो जीवन के अन्य पहलुओं की तरह उसका भी उत्सव होगा ही। अन्य समाजों की तरह भारत भी जब मानसिक रूप से स्वस्थ देश था, तब यहाँ प्रेम का उत्सव मनाया जाता था, जिसे वसंतोत्सव कहा जाता है। वसंत में जैसे प्रकृति अँगड़ाई लेकर नया जीवन धारण करती है, वैसे ही प्रेम भी सभ्यता के सभी आवरणों को चीर कर अपने को अभिव्यक्त करता है, अतः यह अस्वाभाविक नहीं है कि स्वतंत्र भारत अपनी पुरानी विरासत की बहुत-सी अच्छी चीजों का पुनराविष्कार कर रहा है। अफसोस की बात यह है कि पुनराविष्कार का माध्यम पश्चिमी सभ्यता बन रही है।
क्या यह हमारी नई गुलामी है? जब भारत भौतिक रूप से गुलाम था, वह अपनी संस्कृति से इस तरह चिपका हुआ था जैसे खतरे को सूँघकर बच्चा माँ से और दृढ़ता से चिपट जाता है। शासकों की संस्कृति उसे साँप के मनमोहक केंचुल की तरह लगती थी। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो यही संस्कृति उसे लुभाने लगी। तो क्या हमारी यह स्वतंत्रता सिर्फ गुलाम होने की स्वतंत्रता है? जो गुलामी खुद आगे बढ़कर अपना ली जाए, वह स्वतंत्रता की ही तरह आकर्षक लगती है। लेकिन यह मामला इतना सीधा और आसान नहीं है कि किसी दो टूक जवाब से निपटा दिया जाए। यह उम्मीद करने की कोई वजह नहीं है कि हमारे गौतम बुद्ध और गांधी की उपासना तो सारी दुनिया करे और हम दूसरे देशों में पैदा होने वाले संतों को साधु के वेश में शैतान मानते रहें?
अगर विश्व मानवता नाम की कोई चीज होती है, अगर संस्कृति में कोई ऐसा तत्त्व होता है जिसकी बदौलत वह सभी की थाती हो जाती है, तो कोई कारण नहीं है कि संत वैलेंटाइन भी हमारे संत न हो जाएँ। फिर भी, अगर वैलेंटाइन डे को प्रेम दिवस या प्रेमी दिवस कहने का आग्रह है, तो इसका उद्देश्य इस बात पर जोर देना है कि हमारी अपनी भाषा में व्यक्त होकर ही यह प्रतीक हमारी सामाजिकता को ज्यादा व्यापक रूप से प्रभावित कर सकता है- उसका अंतरंग तत्त्व हो सकता है, उसका अपना हो सकता है। वैलेंटाइन और व्यापक भारतीय समाज के बीच एक अंतराल-सा बना रहता है। इस अंतराल को भारतीय शब्दावली से ही पाटा जा सकता है। अभिव्यक्ति तो अपनी भाषा में ही सरल, सहज और स्वाभाविक होती है।
वैलेंटाइन डे, दरअसल, प्रेम का मामला उतना नहीं है जितना प्रेम की अभिव्यक्ति का है। वैलेंटाइन के समय में, जब राजा ने विवाहों पर रोक लगा दी थी ताकि युद्ध की आग में झोंकने के लिए उसे अपेक्षित संख्या में सैनिक मिल सकें, क्या प्रेम की भावना का उठान रुक गया होगा? क्या युवतियों को देखकर युवकों में और युवकों को देखकर युवतियों में संवेदना पैदा होना बंद हो गई होगी? कोई राजा क्या, महाराजा क्या, दुनिया के सभी राजा-महाराजा भी मिलकर ऐसा नहीं कर सकते। बगीचे में कितने ही कुल्हाड़ी-धारी घूम रहे हों, पेड़ों में नए पत्ते और पौधों में नए फूल उगते ही रहते हैं। राजा के आतंक से इतना ही हुआ होगा कि प्रेम अपने को उचित तरीके से व्यक्त नहीं कर पाता होगा।
दमन का शिकार होने पर न केवल भावनाएँ स्वयं विकृत होती हैं, बल्कि उनकी अभिव्यक्ति भी विकृत हो जाती है।
वैलेंटाइन के समय में विवाह करने पर रोक लगा दी गई थी। विवाह भी प्रेम की एक अभिव्यक्ति है। वैलेंटाइन सच्चे संत रहे होंगे। सच्चा आदमी भीतर और बाहर की एकाग्रता में यकीन करता है। हृदय में प्रेम है तो उसे प्रकट होना चाहिए। नहीं तो वह हृदय को छलनी कर देगा। रुग्ण कर डालेगा। रुके हुए जल-प्रवाह की तरह अवरुद्ध भावनाएँ भी बहुत खतरनाक हो जाती हैं। हम सभी को संत का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने प्रेमियों में यह साहस भरा कि वे अपने प्रेम का इजहार कर सकें, जिससे प्रेम करते हैं, उसका हाथ पकड़कर, उसके गले में माला डालकर कह सकें कि चलो, आज से हम साथ-साथ जिंदगी बिताएँ!
बहुत-से लेखकों, विचारकों और उपदेशकों ने प्रेम की महिमा का बखान करते हुए कहा है कि सच्चा प्रेम मौन में व्यक्त होता है, कि वह एक अनवरत प्रार्थना है, कि चरम आत्मोत्सर्ग ही उसकी पहचान है आदि-इत्यादि। यह सब सच है। लेकिन कोई इसका अर्थ यह निकालता है कि प्रेम हृदय में रखी हुई ऐसी मणि है जो बाहर आते ही धूमिल हो जाती है, उसपर मिट्टी की परत चढ़ जाती है, तो वह प्रेमीजनों के साथ अन्याय करता है।
परतंत्रता आदमी को संकुचित करती है, स्वतंत्रता उसका विस्तार। खिलने की प्रक्रिया में फूल बड़ा होता जाता है। इसलिए प्रेमी से यह कहना कि वह अपने प्रेम को हृदय में दबाकर रखे, उसे प्रकट न होने दे, उसके साथ अन्याय करना है। सच तो यह है कि प्रकट होकर ही प्रेम अपने को चरितार्थ करता है। कहा यह भी जा सकता है कि तभी उसका चरित्र भी स्पष्ट होता है। अनभिव्यक्त प्रेम देवता की तरह लग सकता है। अभिव्यक्ति का दोष नहीं है कि उसने प्रेम को विकृत कर दिया। यह अभिव्यक्ति की विशेषता है, बल्कि उसका प्रकार्य है- कि वह प्रेम को उसके पूरेपन में प्रकट करे।
प्रेमचंद के ‘गोदान’ में प्रो. मेहता वैसे तो डॉ. मालती पर जान छिड़कता रहता है, प्रतिपल उसके लिए आह भरता रहता है, लेकिन जब उसे अपने इस प्रेम को प्रकट करने का मौका दिया जाता है तब उसके मुँह से हम क्या सुनते हैं? मेहता पहले तो एक पहेली गढ़ता है : ‘…मैं आज तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊँगा, जो शायद अभी तक तुमने नहीं देखा और जिसे मैंने भी छिपाया है। अच्छा, मान लो, मैं तुमसे विवाह करके कल तुमसे बेवफाई करूँ तो तुम मुझे क्या सजा दोगी?’ मालती के लिए यह स्थिति अकल्पनीय है इसलिए उसके पास इसका कोई रेडीमेड समाधान नहीं है। पर मेहता पूरा घाघ है। वह सब कुछ जाने और सोचे बैठा है। वह बताता है कि तुम अगर कल मुझसे बेवफाई करो, तो ‘मैं पहले तुम्हारा प्राणांत कर दूँगा, फिर अपना।’ मालती पहले ठठाकर हँसने लगती है, फिर सिर से पांव तक सिहर उठती है।
मेहता विस्तार से प्रेम के अपने दर्शन पर प्रकाश डालता है- ‘नहीं मालती, इस विषय़ में मैं पूरा पशु हूँ और उसपर लज्जित होने का कोई कारण नहीं देखता। आध्यात्मिक प्रेम और त्यागमय प्रेम और निःस्वार्थ प्रेम, जिसमें आदमी अपने को मिटाकर, केवल प्रेमिका के लिए जीता है, उसके आनंद से आनंदित होता है और उसके चरणों पर अपनी आत्मा समर्पण कर देता है, मेरे लिए निरर्थक शब्द हैं। मैंने पुस्तकों में ऐसी प्रेम-कथाएँ पढ़ी हैं, जहाँ प्रेमी ने प्रेमिका के नए प्रेमियों के लिए अपनी जान दे दी है; मगर उस भावना को मैं श्रद्धा कह सकता हूँ, सेवा कह सकता हूँ, प्रेम कभी नहीं। प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूँखार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता।’ क्या दुनिया के ज्यादातर प्रेमी ऐसा ही नहीं सोचते। या ऐसा ही नहीं करते? अन्यथा दो प्रेमियों के बीच इतनी हिंसा क्यों होती, इसी से, ऐसा लगता है कि जरूरी नहीं कि संत वैलेंटाइन ने जिन प्रेमी-युगलों का विवाह कराया होगा, उनका वैवाहिक जीवन सुखी ही होगा। हो सकता है, उनमें से कई अक्सर यह अफसोस करते होंगे कि यह विवाह नहीं होता, तो, शायद, बेहतर था।
इसलिए दैनिक पत्रों में, एफएम रेडियो पर प्रेम की जो मधुर और मार्मिक अभिव्यक्तियाँ दिखाई देती हैं, उनके चक्कर में नहीं आना चाहिए। अव्वल तो प्रेम की इन अभिव्यक्तियों पर पूँजीवाद की छाया है, जो विज्ञापन के बल पर चलता है। पूँजीवादी प्रेस ने प्रेम की अभिव्यक्तियों को विज्ञापन की शक्ल दे दी है। प्रेम अपने को बहुत सकुचाते हुए व्यक्त करता है। उसकी वाणी में थरथराहट होती है। वह नहीं जानता कि जो वह घोषणा कर रहा है, वह अपने को उसके अनुरूप साबित कर भी पाएगा या नहीं।
यही कारण है कि बहुत-सा प्रेम, बिना अभिव्यक्त हुए ही, भीतर ही भीतर घुटता रह जाता है और आदमी यानी पुरुष या स्त्री के व्यक्तित्व को लहू-लुहान कर देता है। इस प्रकार से पता नहीं कितनी शांत मौतें होती रहती हैं। लेकिन यह प्रेम का परंपरागत या क्लासिकल पक्ष है। आज का समय चीखने का है, जोर से बोलकर अपने को इजहार करना है, प्रेम को झंडे की तरह फहराते हुए प्रयाणगीत गाने का है। कहना मुश्किल है कि इस विज्ञापनी सभ्यता ने हमें ऐसा बना दिया है कि हमारे ऐसा होने में सिर्फ तकनीकी मदद की है।
लेकिन बहुत-से मामलों में यह सिर्फ कहावत भर नहीं है कि जो होता है, अच्छा ही होता है। अगर हम अपने प्रेम को जोर-जोर से, तरह-तरह से अभिव्यक्त और प्रकट करना सीख रहे हैं, उसकी घोषणा किए बिना हमें करार नहीं आता, हम उसे छिपाना नहीं, छपवाना चाहते हैं, तो इसी अनुपात में हमारी जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। हम यह सीखते हुए चलते हैं कि प्रेम का अर्थ एकाधिकार नहीं है, यह एक लोकतांत्रिक कार्य-व्यापार है।
दो प्रेमियों के बीच आज जितना विस्तृत ‘स्पेस’ होता है, उतना पहले कभी नहीं था। आज प्रेम करना प्रेमियों का एकमात्र काम या धंधा नहीं है। दोनों का अपना-अपना जीवन है, अपनी-अपनी जीविका है, अपने-अपने शौक हैं, अपनी-अपनी व्यस्तताएँ हैं और प्रेम की अपनी जगह इन सबके बीच ही है- इनसे अलग नहीं। यह प्रेम का नया जनतंत्र है, जो जीवन को अपनी ऊर्जा से वेगवान बनाता है, अपनी मोहक उपस्थिति से उसे ठप नहीं कर देता।
पहले प्रेम का पात्र बनने के बाद स्त्री अपने शेष जीवन को विसर्जित कर देती थी या उसे इसके लिए बाध्य कर दिया जाता था। इस तरह प्रेम पहले उसके जीवन में वसंत की तरह खिलता था, फिर उसपर पहाड़ की तरह गिरता था और उसे उपमानव बनाकर छोड़ता था। आज प्रेम उसके व्यक्तित्व को भी खिलने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए आज का वैवाहिक जीवन एक भिन्न प्रकार का जीवन है। यह वह रथ नहीं है, जिसे दो घोड़े मिलकर एक ही दिशा में खींचते हैं। यह वह उद्यान है, जिसमें हर फूल अपनी रंगतों के साथ खिलता है।
यह प्रेम की एक नई अभिव्यक्ति है, जिसे आधुनिक समय ने संभव किया है। यह जनतांत्रिक अभिव्यक्ति जीवन के अन्य सभी पहलुओं को भी जनतांत्रिक बनाए, कामकाज को, व्यवस्था को, प्रशासन को, धर्म, शिक्षा, कला, साहित्य, सभी की जनतांत्रिकता में विस्तार करे, तभी स्वयं भी टिक सकेगी। नहीं तो चार दिनों की चाँदनी बनकर रह जाएगी। घर में एक संस्कृति और बाहर दूसरी संस्कृति- यह अंतर्विरोध बहुत समय तक नहीं टिक सकता। जो घर में है, वह बाहर भी नहीं हुआ, तो जो बाहर है, वह घर को भी बरबाद कर देगा।