चंपा लिमये : अद्भुत समर्पित जीवन

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चंपा लिमये (18 दिसंबर 1928 - 10 नवंबर 2003)

— मस्तराम कपूर —

देश के नए-पुराने समाजवादी जिनकी संख्या अब थोड़ी रह गई है, उन्हें प्रखर समाजवादी नेता और चिंतक मधु लिमये की पत्नी के रूप में ही जानते हैं लेकिन वे अत्यंत संवेदनशील लेखिका के रूप में मराठी में तो सर्वविदित ही थीं। हिंदी में भी उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं और उनका भारत सरकार की ओर से 1995 में अहिंदीभाषी हिंदी लेखक के रूप में सम्मान भी हुआ था। मराठी, हिंदी और अंग्रेजी, तीन भाषाओं में निष्णात चंपा जी का मुख्य कार्यक्षेत्र अध्यापन और लेखन ही था। परिस्थितियों ने उन्हें राजनीति की आँधियों के बीच बार-बार ला खड़ा किया। एक प्रतिबद्ध लेखक के नाते उन्होंने राजनीति की चुनौतियों से बचने की कोशिश नहीं की। यदि कोई लेखक अपने शब्दों, विचारों और विश्वासों के लिए कर्मक्षेत्र में उतरने से कतराता है तो उसके लेखन की सार्थकता भी संदिग्ध हो जाती है। चंपाजी ने राजनीति में सीधे भाग भले ही नहीं लिया किंतु उनकी बहुत सी-शक्ति पति की राजनैतिक व्यस्तताओं में सहभागी होने में लगी। जब मधु लिमये गोवा मुक्ति आंदोलन में शामिल होने के लिए गए तो चंपा जी की गोद में एक साल का अनिरुध्द था। मधुजी को उस आंदोलन में बारह साल के कठोर कारावास की सजा हुई थी और उन्हें भीषण यातनाओं से गुजरना पड़ा। एक बार तो अखबारों में मधु जी की मृत्यु का भी समाचार छप गया। किंतु चंपाजी ने अपना धैर्य नहीं खोया। बच्चे की देखभाल और परिवार की सँभाल के दायित्व उन्होंने अविचलित रहकर निभाए।

बाद में मधुजी को अनेक बार जेल जाना पड़ा। आपातकाल के दिनों में 19 महींने मधुजी विभिन्न जेलों में रहे और चंपाजी को उनसे मिलने के लिए बहुत भटकना पड़ा। बिहार में लोकसभा चुनाव के समय उन्हें मधुजी की राजनैतिक सभाओं को भी संबोधित करना पड़ा। इस प्रकार ऱाजनीति उनका दूसरा कार्यक्षेत्र बना, हालांकि उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा, वे समाजवादी आंदोलन में नारी–शक्ति की प्रतीक बन गईं। प्रमिला दंडवते और मृणाल गोरे के साथ-साथ चंपा लिमये का नाम प्रखर समाजवादी महिलाओं के रूप में लोगों की जुबान पर चढ़ गया, महाराष्ट्र में ही नहीं, जिसकी वे देन थीं, सारे भारत में। समाजवादी आंदोलन को इन तीन जुझारन महिलाओं का बहुत योगदान रहा।

18 दिसंबर, 1928 को अमलनेर (महाराष्ट्र) में चंपाजी जन्म हुआ था। मधु लिमये के साथ उनका परिचय राजनीति की बौद्धिक कक्षाओं में हुआ जहां मधुजी भाषण देने आते थे। परिचय के प्रेम-संबंध में और फिर वैवाहिक संबंध बदलने की कहानी कवित्वपूर्ण रही होगी हालांकि मधुजी के संबंध में जो अनेक संस्मरण लिखे हैं उनमें इसकी मनोहारी झलक मिलती है।

पति की संगिनी के नाते राजनैतिक जीवन की गहमागहमी में उलझे रहने के बावजूद चंपा जी का लेखन-कार्य अविराम चलता रहा। नेशनल कॉलेज बांद्रा (मुम्बई) में संस्कृत प्राध्यापक के पद पर फिर मराठी विभागाध्यक्ष के पद पर काम करते हुए उन्हें पर्याप्त समय लिखने के लिए नहीं मिलता था। तथापि मराठी तथा हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में वे राजनैतिक और साहित्यिक लेखन करती रहीं। अध्यापन कार्य से सेवानिवृत्त होने के बाद उनकी लेखनी तेजी से चलने लगी। जब तक वह कॉलेज में थीं, गृहस्थी दो जगह बँटी थी। मधुजी अधिकतर दिल्ली में रहते थे। मुंबई की आबोहवा में उनकी अस्थमा की तकलीफ बढ़ जाती थी। सेवानिवृत्त होने बाद जब चंपाजी दिल्ली आ गईं तो उन्हें लिखने के लिए अधिक समय मिलने लगा। उनकी मराठी में चार पुस्तकें छपीं। ‘वेधक व्यक्ति वेधक प्रसंग’ उनके व्यक्ति-चित्रों का संग्रह है। ‘अबला होई प्रबला’ में ओजस्वी नारिय़ों के जीवन प्रसंग हैं। ‘स्मृति सुगंध’ उनके द्वारा लिखित संस्मरणों का संग्रह है और ‘भावनेचापूल’ भावना प्रधान कहानियों का संग्रह है। इनमें दो पुस्तकों के अनुवाद हिंदी में ‘स्मृति सौरभ’ और ‘नारी तेज और तपस्या’ शीर्षक से छपे। ‘नारी तेज और तपस्या’ का ही अंग्रेजी अनुवाद ‘वीमेन, पॉवर एण्ड प्रोग्रेस’ शीर्षक से छपा। स्मृति सुगंध का हिंदी अनुवाद प्रकाशनाधीन है। दो और पुस्तकें, व्यक्ति रेखाओं का संकलन हिंदी में, और ‘ओखेलेक्षण’ मराठी में भी प्रकाशनाधीन हैं।

मधुजी के निधन के बाद चंपाजी को उनके अधूरे कामों को पूरा करने की जैसे धुन सवार हो गई। उनका अधिकांश समय मेज पर झुक कर लिखने में ही बीतने लगा। लाइनवाले कागज की जिल्द बँधी छोटे आकार की कापियों या रजिस्टरनुमा बड़ी कापियों पर वे स्याही वाले पीकर पेन से बहुत छोटे अक्षरों में लिखती थीं। मधुजी की आत्मकथा को मराठी में प्रकाशित कराने के बाद वे उसका हिंदी अनुवाद छपवाने के लिए बहुत उत्सुक थीं। सुलमा कोरे द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद के संपादन का काम उन्होंने मुझे सौपा। यह हिंदी अनुवाद दिल्ली की प्रसिध्द प्रकाशन संस्था भारतीय प्रकाशन संस्थान से छपा तो चंपाजी मधुजी की तीन अन्य पुस्तकों के अनुवाद में जुट गईं। स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था फिर भी दस-बारह घंटे दिन में लिखती रहीं। अनुवाद को ठीक-ठाक करने और उसे छपवाने की जिम्मेवारी भी मुझे दी गई। इस प्रकार आत्मकथा के अलावा मधुजी की तीन पुस्तकें तैयार हुईं जिनका अनुवाद चंपाजी ने स्वयं किया। इनमें से ‘न्यायालय में मधु लिमये’ (मूल लेखक : डा.थ.दि.फुडके), और ‘श्री मधु लिमये’ समाजवादी साहित्य संस्थान से छपीं और मधुजी के अपने संस्मरणों का संग्रह ‘सौहार्द’ शीर्षक से, मेधाबुक्स, दिल्ली से छपा। ‘सौहार्द’ और ‘श्री मधु लिमये’ पुस्तकों का लोकार्पण-समारोह मधुजी की पुण्यतिथि 8 जनवरी, को तय किया गया था। लेकिन चंपाजी उससे पहले ही 10 नवंबर, 2003 को चल बसीं।

अपनी बीमारी (कैंसर) का पता चलने के बाद भी उनकी लेखनी अविराम चलती रही। कीमियोथेरेपी के दौरान उनकी जीवन-शक्ति जितनी तेजी से क्षीण होती जा रही थी उतनी ही तेजी से उनकी लेखनी चलती रही। कभी-कभी मुझे उनपर गुस्सा भी आता था किन्तु कहने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। पति के अधूरे सपनों को साकार करने की धुन में वे जैसे मृत्यु का भी उपहास कर रही थीं। मुझे यह सत्यवान और सावित्री की कथा का आधुनिक रूपांतरण लगा। पति के प्रति समर्पित भावना की ऐसी मिसाल शायद ही कोई दूसरी देखने को मिले।

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