— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
लगभग 65 साल पहले दिल्ली के सोशलिस्टों की संगत में दो नाम महात्मा गांधी और डॉक्टर राममनोहर लोहिया मेरी जबान रट चुकी थी। ‘महात्मा गांधी अमर रहे’, ‘डॉक्टर लोहिया जिंदाबाद’, के नारे लगाने के साथ साथ इनकी विचारधारा, त्याग, संघर्ष से उसका असर मुझ पर बढ़ता ही गया। वह जादू आज तक मुझ पर कायम है।
यूं तो अपने इन आदर्श पुरुषों की शान पर किसी प्रकार की तोहमत बर्दाश्त नहीं। पर आज एक पुरानी याद ताजा हो गयी। सन 71 में मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास का छात्र था। एमए फाइनल में एक ऑप्शनल पेपर होता था कि छात्र पॉलिटिकल थिंकर में से एक ऑप्शन को चुन सकते हैं। गांधियन थॉट्स एक ऑप्शन था मैंने उसको चुना। परंतु 2 या 3 दिन के बाद डिपार्टमेंट के नोटिस बोर्ड पर सूचना मिली कि गांधी ऑप्शन पेपर नहीं रहेगा, एक नए ऑप्शन माओ त्से तुंग को शामिल कर लिया गया। इसको पढ़कर मुझमें आश्चर्य तथा गहरा रोष उत्पन्न हुआ। मैं तत्काल हेड ऑफ डिपार्टमेंट प्रोफेसर तपन रे चौधरी के पास गया और उनसे इस संबंध में अपनी बात कही। वह कुछ दिन पहले ही दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बनकर आए थे, इससे पूर्व वे इंग्लैंड में प्रोफेसर थे तथा मार्क्सिस्ट विचारधारा के थे। उन्होंने कहा यह पॉसिबल नहीं है। ना तो गांधी पर सोर्स मेटेरियल उपलब्ध है, और ना ही कोई पढ़ाने वाला योग्य अध्यापक है। इसके बाद मैं जेएनयू में गांधीवादी साहित्य के प्रसिद्ध प्रोफेसर विमला प्रसाद जी से मिला। उन्होंने मुझे पुस्तकों की लंबी सूची दी उसको लेकर मैं फिर अपने हेड ऑफ डिपार्टमेंट से मिला उन्होंने कहा पढ़ाएंगे कौन? डिपार्टमेंट में कोई टीचर उपलब्ध नहीं है। इस संदर्भ में मैंने बीआर नंदा तथा प्रोफेसर विमला प्रसाद से बात की। प्रोफेसर विमला प्रसाद ने कहा कि अगर यूनिवर्सिटी टैक्सी का किराया भुगतान करें तो मैं पढ़ा दूंगा। मैं फिर अपने हेड ऑफ डिपार्टमेंट से मिला, इस बार उन्होंने मुझे साफ शब्दों में कह दिया कि तुम इस संबंध में बात करने के लिए मेरे पास मत आना।
मैंने अपने समाजवादी साथियों से बात की तथा योजना के मुताबिक हेड ऑफ डिपार्टमेंट के कमरे में जब वे वहाँ बैठे थे हम लोगों ने वहाँ जाकर कमरे की चटखनी लगाकर ‘महात्मा गांधी अमर रहे’, के बीच पहले से लाये गये पुराने मोटे पैन में भरी स्याही उनके मुख पर छिड़कने लगे। हंगामा मच गया आर्ट फैकल्टी में; उनके कमरे के बाहर छात्रों, कर्मचारियों, अध्यापकों की भीड़ जुड़ गई। अंदर जोरदार नारेबाजी हो रही थी, बाहर से लगातार किवाड़ खटखटाने की आवाज आ रही थी। थोड़ी देर बाद ही दिल्ली यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर डॉ स्वरूप सिंह दलबल सहित वहाँ पहुॅंच गए। उन्होंने किवाड़ को थपथपाते हुए कहा किवाड़ खोलो, मैं वाइस चांसलर स्वरूप सिंह बोल रहा हूं। इतना सुनने पर हमने कमरे की चटखनी खोल दी, पर नारेबाजी जारी रखी। डॉ स्वरूप सिंह मुझे पहले से ही अच्छी तरह से जानते थे। उन्होंने जैसे ही हेड ऑफ डिपार्टमेंट के चेहरे और मुझे देखा, गुस्से में भरकर उन्होंने कहा “तुम्हें अभी दिल्ली यूनिवर्सिटी से निकालने का नोटिस जारी करता हूं।” मैंने कहा डॉ साहब, आप मुझे बेशक यूनिवर्सिटी से निकाल दो, परंतु हम किसी भी कीमत पर महात्मा गांधी का अपमान सहन नहीं करेंगे। आप यहाँ से मुझे निकाल सकते हो, राजघाट, संसद भवन पर अनशन करूंगा कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के हेड ऑफ डिपार्टमेंट का कहना है कि गांधी एक राजनीतिक चिंतक ही नहीं है। उस पर कोई शैक्षणिक साहित्य उपलब्ध ही नहीं है। उसके बाद डॉ स्वरूप सिंह ने बराबर के कमरे में हेड का मुंह धुलवाया और पूछा माजरा क्या है? जैसे ही हेड ने गांधी के पेपर की बात कही, डॉ स्वरूप सिंह ने उनसे कहा “भले आदमी तुम खुद तो फंसोगो ही, मुझे भी झंझट में डालोगे।” डॉ स्वरूप सिंह ने वस्तुस्थिति को एकदम समझकर तुरंत नोटिस बोर्ड पर गांधियन थॉट के ऑप्शन का नोटिस लगवा दिया।
हालांकि गांधी के दर्शन पर पेपर तो शुरू हो गया परंतु व्यक्तिगत रूप से मुझे इसकी कीमत चुकानी पड़ी। उस वक्त दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास के 16 पेपर होते थे मेरे सबसे कम नंबर केवल इसी एक पेपर में मिले। हो सकता है कि मैं परीक्षा में स्तरीय उत्तर ना लिख पाया होऊं परंतु दूसरी वजह भी हो सकती है। गांधी के पेपर के लिए मेरे मन में इतनी चाहत थी कि मैंने दूसरे पेपर में हिस्ट्री ऑफ चाइना की परीक्षा दी थी, माओ त्से तुंग पेपर आसान होता। उस समय दिल्ली यूनिवर्सिटी के हेड ऑफ डिपार्टमेंट के पास सर्वाधिकार होते थे। विश्वविद्यालय में कौन नौकरी पाएगा या नहीं यह उनकी इच्छा पर निर्भर होता था। कई बार वहाँ के हेड ऑफ डिपार्टमेंट खुले तौर पर नापसंद मेधावी छात्र को भी यह कह देते थे कि यूनिवर्सिटी के चक्कर मत काटो, तुम्हें नौकरी नहीं मिलने वाली।