— राममनोहर लोहिया —
अब हम विकास के उन नियमों पर विचार करेंगे जो स्वतः चालित नहीं हैं। भारत के तुलनात्मक आँकड़ों के अध्ययन से हमने देखा है कि मार्क्सवादी पद्धति से विकास होने पर हमें क्या हासिल होगा, हमने इसे बेतुका कहा। अब सवाल उठता है, फिर हम क्या करें? यह कैसे किया जा सकता है? क्या हमें अपने मन को समझाकर बैठ जाना चाहिए कि कुछ नहीं हो सकता? कई प्रकार की समस्याएँ उठती हैं और मार्क्सवादी विचारधारा में मुझे इनके जवाब नहीं मिलते हैं। दो-तिहाई दुनिया के जीवन-स्तर को एक सम्मानजनक स्तर तक कैसे लाया जा सकता है।
इस चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले मैं यह बताना चाहता हूँ कि सख्ती के तरीकों से भी 70 या 80 सालों में एशिया में यह स्थिति नहीं लायी जा सकती। यह गणितीय आकलन मात्र था क्योंकि इन 70 या 80 सालों में जब आततायी तरीकों से आबादी के कुछ तबकों को खत्म किया जाएगा, एक क्षेत्र का युक्तिकरण किया जाएगा, दूसरे को वैसे ही पिछड़ी हालत में छोड़ दिया जाएगा, ऐसे तनाव पैदा होंगे कि व्यवस्था लोगों में नया उत्साह पैदा करने में अक्षम होगी। यह स्थिति पूँजीवाद में भी होगी और कांग्रेस पार्टी की सत्ता में भी जो उसकी अभिव्यक्ति है। अतः जब मैं 80 साल की बात करता हूँ तो किसी को यह नहीं मान लेना चाहिए कि साम्यवाद, पूँजीवाद या समाजवाद 80 साल के बाद भी भारत में यह चमत्कार कर सकेगा। युक्तिकृत और अयुक्तिकृत क्षेत्रों के बीच इतना तनाव और द्वंद्व चलेगा कि हत्याएँ आदि भी होंगी और हो सकता है कि इससे राज्य का पूर्ण विनाश ही हो जाए।
मैं नहीं मानता कि एशिया, अफ्रीका और शेष दो-तिहाई विश्व के देश पश्चिमी यूरोप की तर्ज पर नयी सभ्यता का निर्माण कर सकते हैं। यह मानते हुए कि यह विकास असंभव है, सीमित है और विपत्तिजनक भी है, हमें यह भी मानकर चलना चाहिए कि उत्तरी अमरीका और यूरोप में भी यह सभ्यता क्षय और विलोप की ओर जाएगी। सारी स्थितियों को दुहराना पड़ेगा। ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं से मानव-जाति को कोई लाभ नहीं होगा। वर्चस्व की पींग में अश्वेत लड़का ऊपर हो जाएगा और श्वेत नीचे आएगा। पूँजीवाद पिछले 300-400 सालों में ऐतिहासिक परिघटना था। अब इसका क्षय हो रहा है। इसने अपना काम कर दिया। इसका काम बहुत गंदा था पर चतुरतापूर्ण था। यूरोपीय भाग के लिए यह राहत लाया और इसके साथ मार्क्सवाद की एक और कमी जुड़ी। मार्क्सवादी कहते हैं कि पूँजीवाद ने मानव-जाति को एक समय में प्रगति दी लेकिन अब उसकी वह भूमिका नहीं रही। यह एक समय प्रगतिशील था किंतु अब प्रतिक्रियावादी हो गया है। इस प्रकार की प्रस्थापना पूँजीवादी विकास के मार्क्सवादी विश्लेषण का अनिवार्य परिणाम है।
पूँजीवादी विकास के सही विश्लेषण से यह प्रस्थापना इस प्रकार होगी। पूँजीवाद ने विगत वर्षों में मानव-जाति के एक हिस्से यूरोप में बहुत प्रगति लायी लेकिन आज वह ऐसा करने में असमर्थ है। शेष विश्व के लिए उसने कभी प्रगति नहीं लायी। विश्व की अर्थव्यवस्था को एक ही इकाई मानने और इसके बाहरी और भीतरी दो वृत्तों को न मानने की प्रारंभिक गलती के कारण इस प्रकार की नितांत भ्रामक बातें की जाती रही हैं। इसके अलावा मैं इस बात पर भी बहुत चकित हूँ कि उपनिवेश या एशिया का आदमी भी इस बेहूदा सिद्धांत को बघारता रहता है कि साम्राज्यवाद पूँजीवाद की अंतिम अवस्था है जबकि हम जानते हैं कि ये दोनों जुड़वाँ संतानें हैं और एकसाथ बड़ी हुई हैं।
अब क्या हो? उद्योग या कृषि में प्रयुक्त विज्ञान का स्वरूप, जरूरी नहीं वही हो, जो आज है। पूँजीकरण का स्तर अमरीका और रूस की बराबरी तक उठना चाहिए और उसमें निरंतर वृद्धि होनी चाहिए। नए औजारों का आविष्कार करना पड़ेगा और उनका निर्माण करना पड़ेगा। मैं ऐसी अर्थव्यवस्था की कल्पना करता हूँ जिसमें प्रतिव्यक्ति पूँजीकरण अमरीका और रूस जितना न हो और न ही वह भारत के निम्न स्तर जितना बल्कि वह इतना हो कि युक्तिकरण और अयुक्तिकरण के विशिष्ट तनावों के बगैर रहन-सहन का एक सम्मानजनक स्तर प्राप्त हो। इस प्रकार का पूँजीकरण, मोटे-मोटे आकलनों के आधार पर 1,000 रुपए प्रति श्रमिक होगा।
अब मान लो हमारे पास 10 अरब रुपए की पूँजी वार्षिक निवेश के लिए उपलब्ध है। रूस और अमरीका के युक्तिकरण के मानदंड़ों के अनुसार हम इस पूँजी से 10 लाख लोगों को युक्तिसंगत रोजगार दे सकते हैं जबकि यदि हम ऐसी प्रौद्योगिकी के आधार पर काम करें जिसमें इतनी भारी पूँजी की आवश्यकता न हो और यह प्रतिव्यक्ति 1,000 रुपए के औजारों पर आधारित हो तो हम इसी पूँजी से एक करोड़ लोगों को युक्तिसंगत रोजगार दे सकते हैं। कम पूँजी निवेश से, ऐसे औजारों से, जो वर्तमान औजार से उन्नत हों किंतु सामान्य अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ न डालें जिससे अव्यवस्था पैदा हो जाए, जिससे युक्तिकरण का लाभ छोटे से क्षेत्र को मिले और शेष क्षेत्र वंचित रह जाएं, हम दो-तिहाई दुनिया की अर्थव्यवस्था को जिसे पूँजीवाद ने अपने इतिहास के दौरान बर्बाद किया है, पुनः साधन-संपन्न बना सकते हैं।
यह औजार कुछ हद तक उपलब्ध है। कम से कम उसके कुछ रूप यहाँ हैं। यह बड़ी मात्रा में उपलब्ध नहीं है। ऐसे बहुत से औजारों का आविष्कार करना पड़ेगा और फिर उनका निर्माण करना पड़ेगा। इस अवस्था में कुछ लोग कह सकते हैं : इस राजनेता को देखो जो आविष्कर्ताओं, वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और तकनीकविदों से कह रहा है कि उन्हें क्या करना चाहिए। मैं मानता हूँ कि किसी राजनेता को किसी मूल वैज्ञानिक से यह कहने का हक नहीं होना चाहिए कि उसे किस चीज में शोध करना चाहिए। मैं कभी किसी सैद्धांतिक भौतिकशास्त्री से नहीं कहूँगा कि उसे परमाणु संबंधी शोध या अंतरिक्ष के गणितीय आकलन कैसे करने चाहिए। यह न केवल अहंकार होगा बल्कि अत्यंत मूर्खतापूर्ण भी होगा। लेकिन अर्थशास्त्र या राजनीति के छात्र को खासकर देश के भाग्य को नियंत्रित करने वाले प्रशासक को इंजीनियरों तथा तकनीकविदों से यह कहने का पूरा अधिकार होना चाहिए कि वे किस तरह की मशीनें और औजार बनाएँ।
आखिर, आविष्कार, वैज्ञानिकों और तकनीकविदों की इच्छा से नहीं होते हैं। वे किसी के आदेश पर होते हैं। विनिर्माताओं की प्रयोगशालाओं में लगातार परिष्कार होता रहता है। मैं नहीं समझता कि वैज्ञानिक प्रबंध ब्यूरो को, जो बेकार के अनुसंधानों पर भारी रकम खर्च करता है, क्यों यह काम नहीं सौंपा जा सकता कि वह छोटी इकाई की मशीनों के आविष्कार करे।
कृषि और उद्योगों में विज्ञान के सतत प्रयोग ने श्वेत देशों में, (जिन पर पिछले चार सौ सालों में उपनिवेशों की तरह किसी और का कब्जा नहीं हुआ और जिनकी आबादी उत्पादन-साधनों के विस्तार के साथ-साथ बढ़ी) समृद्धि और शक्ति लायी। अमरीका में लंबे समय से और रूस में अब, विस्तारशील उत्पादन के वस्तुगत यथार्थ और सतत बढ़ते जीवन-स्तर के वैयक्तिक प्रलोभन के कारण ऐसा आदमी बना जो मुख्य रूप से एकसमान है। इस आर्थिक कवायद ने मेरे इस सिद्धांत का अंतिम सबूत पेश कर दिया कि फोर्ड और स्टालिन में तथा पूँजीवाद और साम्यवाद में कोई फर्क नहीं है। जहाँ तक इस धरती पर आदमी के वर्तमान संक्षिप्त प्रवास का संबंध है दोनों एक ही सभ्यता की ग्रंथि के शिकार हैं भले ही वे इस समय विनाशक युद्ध में प्रवेश कर चुके हैं।
रूस ने कम से कम आंशिक रूप से अच्छी सफलता प्राप्त की है। वह इस समय दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी शक्ति है। ऐसा नहीं कि वह पहले इस स्थिति में नहीं था। इतिहास के विद्यार्थी इस बात को भूल जाते हैं कि एलेक्जेंडर नाम के रूसी जार (बादशाह) का यूरोप में दबदबा था। रूस अतीत में भी इतना कमजोर नहीं रहा। लेकिन यह मान भी लें कि साम्यवाद या मार्क्स की विचारधारा ने वहाँ चमत्कार कर दिखाया, इसका आदमी के मन पर जबरदस्त प्रभाव रहा, खासकर अविकसित क्षेत्रों में आदमी के मन पर क्योंकि यह मन सोचता है कि अगर रूस में मार्क्सवाद सफल हो सकता है तो हमारे यहाँ क्यों नहीं। यदि रूस कृषि तथा उद्योगों में अमरीका की बराबरी कर सकता है तो हम भारत या चीन में क्यों नहीं कर सकते हैं?
रूस के आँकड़े उसकी आबादी का निम्न घनत्व अर्थात् एक वर्ग मील में 20 व्यक्ति, और यह तथ्य कि जार के समय भी उसका इस्पात उत्पादन हमारे वर्तमान उत्पादन से बहुत अधिक था और यूरोप-अमरीका की तुलना में भी बहुत कम नहीं था, ये सब तथ्य बताते हैं कि रूस यूरोपीय सभ्यता का एक गरीब संबंधी रहा होगा लेकिन था तो वह इस सभ्यता का सदस्य। वह ऐसा कर पाया। लेकिन भारत में आबादी का घनत्व एक वर्ग मील में 300 व्यक्ति हैं और चीन का घनत्व यद्यपि भारत के आधे से कम है, अत्यधिक कठोरता के बावजूद क्या वहाँ ऐसा करना संभव हुआ? किंतु आदमी का दिमाग कमजोर है। वह बिंबों में सोचता है। वह रूस का बिंब देखता है और यदि वह पाता है कि पूँजीवाद एशिया की आर्थिक समस्याओं को हल नहीं कर सकता तो रूस की प्रणाली को अपना लेता है और सोचता है कि भारत या चीन भी वह कर सकता है जो रूस ने किया।
बड़े पैमाने पर क्रूरता बरतने और आदमी के मन को अत्यधिक खुरदरा बनाने के बावजूद ये तथ्य साफ बताते हैं कि यह प्रणाली अनिवार्यतः विफल होगी। भारत या चीन में, मार्क्सवादी सिद्धांत के इस व्यवस्थित प्रयोग से, जिसमें पूँजीवाद के उत्पादन-संबंधों को तो खत्म किया गया लेकिन उसके उत्पादन-साधनों का इस्तेमाल किया गया, निश्चित रूप से विनाश होगा। रूस ने पाप का रास्ता पकड़ा और उसे सफलता मिली। सफलता पाने में एक सद्गुण है क्योंकि लोग रास्ते में हुई सारी गलतियों को भूल जाते हैं। अगर भारत ने इस पाप के रास्ते को चुना तो इसका अंत क्रूरता ही नहीं, विफलता भी होगा। भारत ने पिछले तीन सौ सालों से विश्व में छायी वर्तमान सभ्यता को प्राप्त करने की कोशिश, पूँजीवाद, साम्यवाद या समाजवाद किसी के भी अंतर्गत की तो उसका परिणाम बाँझ निर्दयता में होगा अर्थात् ऐसी निर्दयता जिसमें सफलता भी नहीं होगी।
इस विश्लेषण की पृष्ठभूमि में अगर कोई मार्क्सवाद और समाजवाद में भेद करना चाहेगा तो उसे यह मानना पड़ेगा कि मार्क्सवाद और साम्यवाद अपने काम के आधे भाग को ही स्वीकार करता है। वह केवल पूँजीवादी उत्पादन-संबंधों को खत्म करता है जबकि सच्चे समाजवाद को पूँजीवादी उत्पादन-संबंधों तथा पूंजीवादी उत्पादन-शक्तियों दोनों को खत्म करने या कम से कम उन्हें व्यापक रूप में बदलने का प्रयास करना चाहिए। उसे ऐसे समाज और ऐसी सभ्यता के बारे में सोचना होगा जिसमें श्रमिकों, किसानों तथा दूसरे काम-धंधे वालों के पास ऐसे नए औजार हों जिनसे वे अधिक धन का उत्पादन कर सकें और फिर भी न तो व्यक्तिगत प्रलोभन में फँसें और न जीवन-स्तर की सतह वृद्धि के वस्तुगत यथार्थ के मोह में पड़ें। इसलिए समाजवादी को एकसाथ दो काम करने होंगे। साम्यवादी सिर्फ एक काम करता है, वह पूँजीपति वर्ग को खत्म करता है और यहाँ उसका काम खत्म हो जाता है। समाजवादी को पूँजीपति वर्ग को भी खत्म करना पड़ेगा और पूँजीवाद की उत्पादन विधियों को भी खत्म करना पड़ेगा। यह दोहरा काम है।
(जारी)