बंगाल के नतीजों से राहत मिली है पर चिंता भी बढ़ी है – सुरेश खैरनार

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न 1925 का साल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का साल था। लेकिन 96 साल के सफर के बाद घोर सांप्रदायिक आधार पर भारत में संघ आज सबसे बड़ा संगठन है यह बात माननी पड़ेगी।

और सर्वहारा की बात करनेवाले तथा दुनिया के मजदूरो एक हो का नारा बुलंद करनेवाले कम्युनिस्ट कहां हैं? यह सही है कि आजादी के आंदोलन में संघ परिवार एक नीतिगत निर्णय लेकर शामिल नहीं था पर कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों ने आजादी के आंदोलन में समय-समय पर भाग लिया और आंदोलन से भागे भी। सबकुछ रूस के इशारों पर करने के कारण।

मैं बंगाल में 1982 से 1997 तक पंद्रह साल के अपने अनुभव के आधार पर यह विवेचन लिख रहा हूं।

1990 के चुनाव के समय जेपी आंदोलन के मेरे पुराने मित्र जो 1977 के बाद एक्सप्रेस ग्रुप में पत्रकारिता कर रहे थे, मुंबई से बंगाल चुनाव को कवर करने के लिए कलकत्ता गए थे और मेरे साथ ही ठहरे थे। वह रोज अपनी रिपोर्ट मुंबई फैक्स करने के पहले पढ़ने को देते थे। तो मैंने देखा कि वह बीजेपी की हैसियत के बारे में अपनी हर रिपोर्ट में लिख-भेज रहे थे, जबकि उस समय बंगाल में बीजेपी की राजनीतिक हैसियत कुछ भी नहीं थी।

तो मैंने कहा कि आप झूठमूठ क्यों लिख कर भेज रहे हो? अरे भाई, बड़ा बाजार जैसे मिनी राजस्थान कहे जानेवाले इलाके से भी बीजेपी कलकत्ता नगर निगम में प्रवेश नहीं कर पा रही है। और एक-डेढ़ प्रतिशत वोट भी न पानेवाले दल को आप राइजिंग फोर्स क्यों बता रहे हो? तो उन्होंने कहा कि हमारे मालिक रामनाथ गोयनका की दिली ख्वाहिश है कि बंगाल में बीजेपी की राजनीतिक हैसियत बननी चाहिए। मैंने कहा, उनकी लाख इच्छा हो लेकिन बंगाल की जनता की इच्छा फिलहाल बिलकुल नहीं है। और वह लेफ्ट तथा कांग्रेस के अलावा किसी अन्य पार्टी को बिलकुल नहीं चाहती है। 1967 से नक्सली अपनी जान जोखिम में डालकर लगे हुए हैं। लेकिन उनके संतोष राणा एक बार रायगंज से विधानसभा में गए थे, दोबारा नहीं जा सके।

वही हाल शिवदास घोष के दल एसयूसीआई का है। सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर का बोर्ड जरूर है लेकिन उनका भी राजनीतिक दल के रूप में बंगाल में अस्तित्व नहीं के बराबर है। 1990 के चुनाव में बीजेपी को डेढ़ से दो प्रतिशत वोट मिले थे। उसके बाद 1996 के चुनाव में आठ से नौ प्रतिशत वोट मिले थे। तब मैंने लेफ्ट के मित्रों को आगाह किया था कि यह आनेवाले समय में आप लोगों के लिए चेतावनी है। तो उन्होंने कहा, अरे भाई किछु होबे ना, आपनी फालतू चिंता कोरबेन ना! और 2006-7 में नंदीग्राम-सिंगूर के बाद वाम मोर्चे की सरकार की मोहलत आधी यानी ढाई साल बची थी और मैं 6 दिसंबर 2007 के दिन नंदीग्राम में था, वहां एक हफ्ता पहले से घूम रहा था तो तीन पीढ़ियों से सीपीएम के मेरे मित्र ने मौलाली युवा केंद्र, कलकत्ता में एक सभा में मुझे बुलाया जो उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के पंद्रह साल पूरे होने पर आयोजित की थी। और मैं नंदीग्राम की एक हफ्ते की जांच-पड़ताल पूरी करके सीधा मौलाली युवा केंद्र के मंच पर पहुंचा, अलबत्ता कुछ देर से। देखा कि वाम मोर्चा की तत्कालीन सरकार के आधा दर्जन मंत्री मंच पर बैठे हैं।

जब मुझे भाषण के लिए बुलाया गया तो मैंने कहा कि आप यहां बाबरी मस्जिद के विध्वंस की मातमपुर्सी करने बैठे हैं। यह जो मेरे मैले कपड़ों की धूल आप देख रहे हैं यह नंदीग्राम की है जहां साठ फीसदी मुसलमान रहते हैं। वहां का विधायक और लोकसभा सदस्य, दोनों लेफ्ट के ही हैं। और वे वोटर मुसलमान मुझे रो-रोकर बता रहे थे कि ‘आमी तो सीपीएम पार्टीर सपोर्टर किंतु की कोरबो जदि आमादेर जमिन शिल्पयने चोले जाबे तो आमी आमादेर परिवार मारा जाबो!’ (दादा हम सीपीएम के ही समर्थक हैं लेकिन औद्योगिक क्षेत्र के लिए हमारी जमीन जाने के बाद हम और हमारा परिवार मर ही जाएंगे। जमीन किसी प्रोजेक्ट में जाने से मूल मालिक को मुआवजे की रकम मिलेगी, हम तो कहीं के न रहेंगे।)

मैंने कहा कि पंद्रह साल बाद भी बाबरी मस्जिद विध्वंस की मातमपुर्सी करने बैठे हो और अपने राज्य के मुसलमानों के जीने के संसाधनों को छीनकर आप क्या मैसेज देना चाहते हो? अब बाबरी मस्जिद विध्वंस के पंद्रह साल पूरे होने पर एक सभा की खानापूरी करने की बजाय आप मुसलमानों के जीवनयापन की समस्याओं पर गौर करें, जिनकी तादाद पश्चिम बंगाल में 26 फीसद है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी नौकरी में मुसलमान 2 फीसद भी नहीं हैं। तो उनकी जीवनयापन की समस्याओं पर गौर करें। अभी भी आपके पास अगले चुनाव से पहले आधा यानी ढाई साल का समय है। आप जोर-जबर्दस्ती से औद्योगिक विकास मत करो। (यही बात पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने भी तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को कही थी!)

लेकिन मैं नंदीग्राम से इस सभा के लिए निकल रहा था तो एक जगह भुइयां नाम के सीपीएम के किसान नेता ‘शिल्पयने तो होते ही होबे’ की बात जोर-शोर से कर रहे थे। और मौलाली युवा केंद्र के मेरे भाषण पर आधा दर्जन मंत्री मंच पर बैठे हुए अनदेखी करते हुए निकल गए। बंगाल चुनाव के मतों का प्रतिशत देखने के बाद यह लेख लिखने की प्रेरणा मुझे हुई। जब मैं 1997 में बंगाल छोड़ रहा था तब बीजेपी को साढ़े आठ से नौ प्रतिशत वोट मिले थे। 2 मई को आए नतीजों में लेफ्ट को उतने ही प्रतिशत वोट मिले हैं। और एक भी प्रतिनिधित्व नहीं, न लेफ्ट का न एक सौ छत्तीस साल की कांग्रेस का।

पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी के तीन विधायक थे। आज 77 हैं। और इनके ज्यादातर विधायक कांग्रेस तथा सीपीएम छोड़कर आए हैं। यानी लेफ्ट से सेंटर की तरफ शिफ्ट होने की बात भविष्य के लिए बहुत खतरनाक होगी।

वैसे भी नंदीग्राम की लड़ाई के बाद ममता बनर्जी ने सत्ता सँभाली तो लेफ्ट के ज्यादातर लोगों ने बीजेपी का दामन थाम लिया था। और कुछ मौकापरस्त, ममता बनर्जी की पार्टी के साथ हो लिये थे। लेकिन लेफ्ट के नेताओं की आंखें नहीं खुलीं। और बिहार चुनाव के बाद, इस चुनाव से पहले, दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा था कि लेफ्ट और कांग्रेस से मेरा नम्र निवेदन है कि बीजेपी के खिलाफ जानेवाले वोटों का बँटवारा करने की गलती मत कीजिएगा, ममता बनर्जी के साथ गठबंधन कीजिए। और मैंने तुरंत दीपांकर भट्टाचार्य के बयान का समर्थन किया था।

आज क्या नतीजा निकला? अब पश्चिम बंगाल विधानसभा में लेफ्ट और कांग्रेस का सिरे से नदारद होना तथा सिर्फ ममता और बीजेपी की मौजूदगी भविष्य के एक खतरनाक संकेत है। 3 से 77 तक प्रगति करनेवाली बीजेपी के लिए अब राह में लेफ्ट और कांग्रेस का रोड़ा नहीं है, ममता बनर्जी के विरुद्ध सीधी लड़ाई लड़ना बीजेपी के लिए ज्यादा आसान है। और वैसे भी पंजाब के बाद बंगाल के बँटवारे के जख्म हरे करने का काम संघ सौ साल से कर रहा है

लोग क्षेत्रीय दलों की वकालत करते थक नहीं रहे हैं। पर सारे क्षेत्रीय दलों में एक भी नहीं है जिसके पास कैडर हों। लगभग सभी क्षेत्रीय दल ‘वन मैन’ ‘वन वुमन’ वाले दल हैं। और  जनतंत्र के लिए यह स्वस्थ लक्षण नहीं है।

बीजेपी एकमात्र कैडर-बेस पार्टी है। कम्युनिस्ट अब केरल तक सीमित होकर रह गए। बंगाल में पैंतीस साल तक राज करनेवाली पार्टी का वहां की नई विधानसभा में एक भी सदस्य न होना, बहुत ही चिंताजनक है। इसलिए लेफ्ट के लोगों से मेरी विनम्र प्रार्थना है कि इसपर मंथन करें।

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