— हिम्मत सेठ —
राजस्थान ही नहीं, पूरे भारत में बड़े पैमाने पर कवि और साहित्यकार नन्द चतुर्वेदी एक जाना-माना नाम है। अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में प्रतिनिधित्व कर चुके नन्द चतुर्वेदी की सात-आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 1923 में राजपिपलिया गांव में जनमे स्व. नन्द चतुर्वेदी का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। इस वर्ष में नन्द चतुर्वेदी की कविताओं और लेखों पर खूब चर्चा हो रही है और उनके साहित्यक पक्ष को उकेरा जा रहा है। मैं एक ऐसे नन्द चतुर्वेदी को जानता हूंँ जो कवि व साहित्यकार तो है ही, उसके साथ-साथ समाजकर्मी भी है। समाज और देश की चिंता करने वाला भी है; जिसने ‘बिन्दु’ और ‘जय हिन्द’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया है।
नन्द चतुर्वेदी 1950 में झालावाड़ और कोटा से अपनी शिक्षा पूरी कर उदयपुर के विद्या भवन में नौकरी करने आए, जहां गोविन्द राम सेकसरिया बी.एड. कॉलेज में पढ़ाना प्रारम्भ किया। चार-पॉंच सालों बाद विद्या भवन सोसायटी द्वारा ही संचालित विद्याभवन रूरल इन्स्टीट्यूट में हिन्दी के व्याख्याता बनकर पढ़ाने लगे। नन्द चतुर्वेदी उदयपुर आने के पहले कोटा में अपनी पढ़ाई के दौरान ही समाजवादी चिन्तक डॉ. राममनोहर लोहिया से मिल चुके थे और उस पहली मुलाकात में ही नन्द चतुर्वेदी, लोहिया प्रिय ही नहीं समाजवादी भी हो गये। कोटा में उन दिनों स्वतंत्रता सेनानी व गोवा मुक्ति मोर्चों में अग्रणी रहे समाजवादी हीरालाल जैन समाचार पत्र ‘‘जय हिन्द’’ निकाला करते थे। नन्द चतुर्वेदी ने उसका सम्पादन भी प्रारम्भ किया। उदयपुर में भी उन्होंने समाजवादी नेता शान्ता त्रिवेदी, राजेन्द्र सिंह चौधरी, परसराम त्रिवेदी, भाई भगवान जैसे कई साथियों के साथ समाजवादी विचार फैलाने का काम किया।
मैंने नन्द बाबू को साहित्य और कविता से कम जाना, उनके साथ समय बिताने और उनके व्यवहार से ज्यादा जाना।
नन्द चतुर्वेदी की चर्चा चलते ही जो तस्वीर मन में उभरती है वह यह कि वह बहुत ही विनम्र व खुशमिजाज व्यक्ति थे। उनके बड़े-बड़े राजनेताओं जैसे मोहनलाल सुखाड़िया, निरंजन नाथ आचार्य, भैरोसिंह शेखावत, ललित किशोर चतुर्वेदी, पुरुषोत्तम मंत्री, हीरालाल जैन, प्रो. केदार, माणक चन्द सुराना, पं. रामकिशन जी, सुरेन्द्र मोहन, डॉ. राममनोहर लोहिया ऐसे अनेकों नाम हैं जिनका उल्लेख करना यहाँ मुश्किल है। लेकिन इसके साथ ही गली-मोहल्ले और गांव के कार्यकर्ताओं से भी उनके प्रगाढ़ रिश्ते थे। वे बच्चों-बड़ों सबको अपने विनोदी स्वभाव के चलते दोस्त बना लेते थे।
मैंने नन्द बाबू को बहुत से मोर्चों पर संघर्ष करते देखा है। विद्याभवन रूरल इंस्टीट्यूट में सेवाकाल में वेतन बढ़ाने व अन्य कई मांगों के लिए उनके साथ स्वरूप सिंह दसोन्धी व मकफर लेण्ड के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर संघर्ष करते देखा है। कुछ सभाओं में तो मैं भी राजेन्द्र सिंह चौधरी के साथ उपस्थित हुआ था। मैंने उन्हें सड़कों पर जुलूस प्रदर्शन में भागीदारी करते उन सभाओं को सम्बोधित करते भी देखा है जो कलेक्ट्री के बाहर और कई नुक्कड़, चौराहों पर आयोजित होती थी।
उदयपुर में बोहरा यूथ का अपने धर्मगुरु सैयदाना सा. के जुल्मों के विरुद्ध आयोजित आन्दोलन में भी भाग लेते देखा। बोहरा यूथ के इस आन्दोलन में तो वे प्रारम्भ से अन्त तक जुड़े रहे। भूख हड़ताल और कलक्टर कार्यालय का बोहरा महिलाओं द्वारा घेराव के वे प्रत्यक्ष साक्षी बने। उन्होंने अपने सम्बोधन से न केवल उत्साह भरा बल्कि अन्त तक संघर्ष करने के जज्बे को भी पैदा किया। इतना ही नहीं, नन्द बाबू उनके साथ उनकी मांग को लेकर जयपुर गये प्रतिनिधिमण्डल के भी एक सदस्य थे। उदयपुर में होने वाले बोहरा यूथ के कार्यक्रमों में वे उत्साह से भाग लेते थे।
उदयपुर में होने वाले साम्प्रदायिकता विरोधी और कौमी एकता के हर आयोजन में नन्द बाबू की उपस्थिति अनिवार्य रूप से होती थी। वे मजदूरों, किसानों और गांव के आदिवासियों की आयोजित सभाओं में भी उपस्थित होते थे। उदयपुर में देवास योजना जो उदयपुर के लिए पेयजल आपूर्ति की ही एक योजना थी लेकिन वह उदयपुर के लिए जीवन रेखा भी थी, उसके आन्दोलन में भी बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे। उदयपुर शहर के नागरिकों को भ्रमित करने के लिए देवास योजना के स्थान पर एक मान्सी वाकल नाम की दूसरी योजना सरकार द्वारा प्रस्तुत की गयी तो उसका शहर के नागरिकों ने विरोध किया। उस विरोध में नन्द बाबू की अहम भूमिका थी। मान्सीवाकल योजना में जो सबसे ज्यादा विरोध का कारण बना था वह था बांध की परिधि में आने वाले गांव और बड़ी मात्रा में विस्थापन। गांव के लोगों के इस विस्थापन के विरोध में नन्द बाबू शामिल थे। यही नहीं, उन्होंने उदयपुर के पास स्थित झाड़ोल और चन्दवास गांवों में जाकर भी इन गांववालों के विरोध प्रदर्शन में भागीदारी की और संघर्ष को कायम रखा। गांव में जाते और वहां आदिवासियों की दुर्दशा देखते तब उनका मन बहुत भावुक हो जाता था। विशेष रूप से आदिवासी कमजोर महिलाओं को देखकर कहते, क्या हालत है इनकी, खून तो इनके शरीर में है ही नहीं। भोजन भी मिलता है या नहीं!
नन्द चतुर्वेदी की वाणी, शब्दों का चयन, धारा प्रवाह बोलना और विनोदी शैली विशेष महत्व रखते हैं। इससे सुनने वाले प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते थे। इन्हीं गुणों के चलते सभी सभा सम्मेलनों, साहित्यक आयोजनों में नन्द चतुर्वेदी अपना रंग जमा देते थे। मुझे याद है कि पूर्व मुख्यमंत्री स्व. मोहनलाल सुखाड़िया के अन्तिम संस्कार के लिए निकली शवयात्रा में आंखों देखा हाल सुनाने के लिए स्व. प्रकाश आतुर व नन्द चतुर्वेदी का चयन किया गया था। जो पूरे रास्ते लोगों को जानकारी देते रहे।
उदयपुर में जब भी चुनाव होते, चाहे वह पार्षद के हों या विधानसभा और लोकसभा के, और उसमें कोई भी समाजवादी विचारधारा का व्यक्ति चुनाव में उम्मीदवार है तो नन्द बाबू उसका प्रचार अवश्य करते। उनके लिए प्रजा समाजवादी पार्टी या संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी या बाद में जनता पार्टी, लोकदल या जनता दल में कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनका मानना था कि इसी बहाने समाजवादी विचार को लोगों तक पहुंचाना है। वे यह बखूबी जानते थे कि हमारा उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा पाएगा लेकिन वे उसको जिताने के लिए पूरे प्रयास करते। सभाओं को सम्बोधित करते, घर-घर प्रचार करते, पैम्फलेट बाॅंटते, पोस्टर चिपकाने वाले युवाओं के साथ खड़े रहते। यहाँ तक कि दरियाँ बिछाते। कभी कभी तो दिन भर तांगे में बैठकर शाम की सभा का प्रचार करते और सभा को सम्बोधित भी करते।
1977 में मावली विधानसभा से स्व. नरेन्द्र पाल सिंह जी विधानसभा के चुनाव में जनता पार्टी के उम्मीदवार थे। तब नन्द बाबू ने बहुत दिनों तक मावली गांव में ही कैम्प किया था। साथी अर्जुन देथा बताते हैं कि नन्द बाबू की यह एक विशेषता थी कि वे हर परिस्थिति में अपने आपको समायोजित कर लेते थे। उनके लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं करनी पड़ती थी। साधारण कार्यकर्ताओं के बीच में सो जाते और भोजन भी उन सबके साथ ही करते।
1980 के विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी से राजेन्द्र सिंह चौधरी को कपासन विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया था। उस चुनाव में तो मैं स्वयं भी नन्द चतुर्वेदी के साथ कपासन में दो-तीन दिन रहा और यह सब विशेषता देखी। सवेरे आठ बजे के करीब गांवों में जाते, पर्चे बांटते, वहीं कहीं चाय पी लेते और दोपहर तक कपासन आकर भोजन करते। दोपहर चार-पाॅंच बजे फिर से गाॅंवों में जाते, लोगों से बात करते, चुनाव में राजेन्द्र सिंह को वोट देने की अपील करते, सभा को सम्बोधित करते और रात्रि में हम सब एक कमरे में सो जाते। यह नन्द बाबू का बड़प्पन ही था कि इतना बड़ा व्यक्तित्व होने के बाद भी साधारण कार्यकर्ता की तरह ही व्यवहार करते। एडवोकेट फतह सिंह मेहता तो उदयपुर से विधानसभा और लोकसभा का चुनाव भी लड़े। वे बताते हैं कि नन्द चतुर्वेदी जैसे उच्च विचारों वाले व्यक्ति के साथ रहने से हमें हमारे चुनाव में ही नहीं व्यावहारिक जीवन में भी बहुत लाभ मिला। वे बताते हैं कि नन्द चतुर्वेदी विचारों से ही समाजवादी नहीं थे बल्कि अपने कर्म और व्यवहार से भी समाजवादी थे। उन्होंने समाजवाद को अपने जीवन में उतारा और जीया। वे कहते हैं कि समाजवाद क्या है यह किसी को समझना हो तो नन्द बाबू के जीवन कर्म, व्यवहार और सादगी को देखना चाहिए। राजस्थान साहित्य अकादमी की स्थापना तथा उसका विधान बनाने में पं. जनार्दन राय नागर की भूमिका तो जगजाहिर है लेकिन उसमें नन्द चतुर्वेदी की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
अंत में कुछ बात महावीर समता संदेश और नन्द बाबू के रिश्तों की भी कर लेते हैं।
बात बहुत पुरानी है 1992 में जब मुझे आर.एन.आई. से ‘महावीर समता सन्देश’ अखबार का टायटल मिल गया और अखबार निकालने की सोची तब मैं नन्द बाबू से मिला और उन्हें बताया कि मैं अखबार निकालने जा रहा हूंँ और यह टायटल मिल गया है। नन्द बाबू ने मुझे मना कर दिया। उन्हीं दिनों उदयपुर से दो साप्ताहिक अखबार ‘सुलगते प्रश्न’ और ‘अरावली ओबजर्वर’ नाम से प्रकाशित होना प्रारम्भ हुए थे। उनका उदाहरण देकर मुझे लगभग 30 मिनट तक यह समझाते रहे कि अखबार निकालना तुम्हारे बूते के बाहर है। लेकिन मैंने इस बात को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और परिणाम सबके सामने है। नन्द बाबू किसी पर भी अपना विश्वास यूँ ही नहीं करते थे। पहले उसकी क्षमताओं को अपने अंदाज से तोलते और फिर उस पर विश्वास करते। मुझे भी नन्द बाबू का विश्वास प्राप्त करने में बहुत समय लगा।
नन्द बाबू ‘महावीर समता सन्देश’ पाक्षिक को अपना ही अखबार मानते थे। वेे इसके सलाहकार मण्डल में भी थे। उनके बड़े पुत्र प्रो. अरुण चतुर्वेदी बताते हैं कि ‘महावीर समता सन्देश’ के विरुद्ध कोई भी बात सुनकर उन्हें अच्छा नहीं लगता था। वे उसका प्रतिकार करते। वे ‘समता सन्देश’ के पक्ष में भिड़ जाते। यह मैंने भी कई बार पाया कि बहुत विकट परिस्थितियों में भी वे हमारा उत्साह बढ़ाते। महावीर समता सन्देश उनका मनभावन अखबार था। महावीर समता सन्देश के लिए वे लेख लिखकर मुझे फोन करते। समता सन्देश में प्रकाशित होने पर लोगों को समता सन्देश पढ़ने को कहते।
महावीर समता सन्देश के माध्यम से हम लोग लेखक सम्मेलन करते। उन सम्मेलनों में तो वे भागीदारी करते ही थे, साथ ही उनके आयोजन में भी पूरा सहयोग करते। आयोजन के लिए कुछ विशिष्ट लोगों को आर्थिक मदद करने को भी कहते। आयोजन में मुख्य अतिथि कौन हो, कौन अतिथि हो यह तय करने में भी सहयोग करते। हमने जब राष्ट्रीय समता सम्मान देने का निश्चय किया तो पहला सम्मान स्वीकार कर नन्द बाबू ने हमारा सम्मान बढ़ाया। उनको सम्मानित करने के लिए मंच पर देश के जाने-माने पत्रकार व जनसत्ता दैनिक दिल्ली के मुख्य सलाहकार व पूर्व प्रधान सम्पादक प्रभाष जोशी के साथ गांधीवादी एवं वरिष्ठ लेखक प्रो. नन्दकिशोर आचार्य व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के पूर्व कुलपति प्रो. मोहम्मद सफी अगवानी के साथ मैं और डॉ. हेमेन्द्र चण्डालिया भी उपस्थित थे। इतना ही नहीं, कृषि विश्वविद्यालय के ऑडीटोरियम में 250 लोग इस गौरवशाली लम्हे के गवाह थे। जिनमें बहुत बड़ी-बड़ी हस्तियां उपस्थित थीं।
हमने डॉ. राममनोहर लोहिया के जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर शतायु लोहिया पुस्तक के प्रकाशन का निर्णय लिया तब नन्द बाबू ने स्वयं उस पुस्तक को सम्पादित करने का जिम्मा लिया। इतना ही नहीं, महावीर समता संदेश के प्रकाशन के 20 वर्ष पूरे होने पर समारोह करने का निश्चय किया तो उसमें भी नन्द बाबू का बड़ा योगदान था। उसी अवसर पर नन्द बाबू ने एक लेख लिखा, शीर्षक था- एक छोटे पाक्षिक का बड़ा संकल्प। मैं तो उस लेख को पढ़कर धन्य हो गया। नन्द बाबू सदैव अपने मिलने वालों के साथ वार्तालाप में सहज ही महावीर समता सन्देश की चर्चा किया करते थे। नन्द बाबू अपना जन्मदिन अपने परिवार और मित्रों के साथ मनाया करते थे। मैं सदैव इस दिन आमंत्रित रहता था। इस लेख का अन्त मैं उनके समता संदेश के लिए लिखे लेख की कुछ पंक्तियों से करना चाहूंगा। वे लिखते हैं : ‘‘समता सन्देश के सम्पादक को यह भ्रम नहीं है कि उनका यह पाक्षिक कोई क्रान्ति या बदलाव या भूकंप लाने वाला है। बाजार की विनाशकारी और सत्ता तन्त्र की असीम लालची पूंजीवादी शक्तियों के विरुद्ध जो साहसिक कदम उठा रहे हैं उन्हें निरन्तर एक मंच देने का काम ही समता सन्देश के प्रकाशन की भूमिका है।’’