
— सूर्यनाथ सिंह —
कबीर के दर्शन, उनकी सामाजिक चेतना, फक्कड़ अलमस्ती आदि को लेकर तो खूब लिखा गया है। तमाम भाषाओं में। दुनिया के अनेक देशों में कबीर के अध्येता हैं। कबीर को अपने-अपने ढंग से समझने-व्याख्यायित करने वाले हैं। कबीर की अपनी एक सुपुष्ट धारा है, अपना एक पंथ है। वे सूफियों में भी लोकप्रिय हैं, तो हिंदू और मुसलमानों में भी उनके मुरीद हैं। गुरु ग्रंथ साहिब में तो कबीर हैं ही। हर बोली-बानी के अपने अलहदा कबीर हैं। जितनी गायन शैलियां कबीर के पदों को लेकर उभरीं, उतनी दुनिया में शायद ही किसी कवि को नसीब हुई हों। फिर भी कबीर की नई-नई शाखाएं फूटती नजर आती हैं। उनकी नई-नई व्याख्याएं सामने आती रहती हैं।
कबीर जन्म से ही किंवदंतियों से घिरे रहे, इसलिए उनके जीवन से जुड़े चामत्कारिक प्रसंगों की भी कमी नहीं। दरअसल, कबीर जितने सहज, जितने सरल नजर आते हैं, उतने ही अबूझ होते जाते हैं। कबीर की थाह पाना आसान नहीं। हर किसी के भीतर उसके ढंग से खुलते हैं।

कबीर पर अनेक विधाओं में रचा गया है, फिर भी कबीर का कोई न कोई पक्ष छूट ही जाता है। पूरम-पूर किसी की पकड़ में नहीं आए। प्रताप सोमवंशी ने उन्हें नाटक विधा में उतारने की कोशिश की है। लोई नाटक के जरिए। प्रताप मूलतः कवि हैं, गजलें लिखते हैं। इस विधा में उन्होंने खासी पहचान बनाई है। फिर, नाटक विधा में उतरने की उन्हें क्या सूझी! इसका जवाब हालांकि वे इस किताब की भूमिका में विस्तार से देते हैं, पर जिस कबीर को उन्होंने आत्मसात किया, वह एक कवि का कबीर था। बिल्कुल घरऊ कबीर। वे कबीर को कविता में उतारना चाहते थे, मगर वह विधा उन्हें अपर्याप्त लगी। इस पर अचरज नहीं होना चाहिए कि कबीर खुद कवि के भीतर उतर कर भी कविता में नहीं उतर पाए। कवि को नाटक की अंगुली पकड़नी पड़ी।
दरअसल, प्रताप सोमवंशी को गृहस्थ कबीर ने मोहा। संत, समाज सुधारक, विद्रोही, दार्शनिक कबीर उसकी ओट में कहीं खड़ा नजर आया। घरबारी कबीर ही प्रताप के भीतर उतरा। इसकी वजह भी साफ है। प्रताप ने कबीर से अधिक कबीर को सहजने वाली लोई पर ध्यान केंद्रित किया है। कबीर से अधिक उन्हें लोई के व्यक्तित्व ने प्रभावित किया। लोई यानी कबीर की पत्नी। कमाल, कमाली की मां। यह नाटक इसी अर्थ में दिलचस्प है कि जिस कबीर को पूरी दुनिया सम्मान देती है, जो कबीर बड़े से बड़े ज्ञानी के लिए चुनौती साबित होते हैं, वह कबीर खुद किस तरह लोई की डोर से बंधा है। सीधा, बिल्कुल नरम कबीर। फक्कड़, अलमस्त, विद्रोही, पाखंडियों को निडर खरी-खरी सुनाने वाला कबीर कैसे लोई के साथ जैसे मोम बना रहता है। हालांकि लोई का मिजाज गरम है, मगर कबीर की नरमी की वजह उसका भय नहीं, बल्कि अगाध स्नेह है।
नाटक में कबीर के साथ लोई के संबंधों को लेकर प्रचलित मिथकों को भी रचनात्मक आयाम देते हुए सोमवंशी ने लोई और कबीर के यथार्थ जीवन को रूपायित किया है। यह शायद पहली बार है, जब कबीर के निहायत निजी जीवन को, उनके दांपत्य प्रेम को इस तरह व्यापक रूप में पेश करने का प्रयास हुआ है। कबीर जैसा व्यक्तित्व एक रूमानी प्रेमी भी हो सकता है, यह लोई के प्रसंग में, प्रताप के नाटक में ही देखा जा सकता है। इससे कबीर का एक नया आयाम खुलता है। उनका दांपत्य प्रेम भी आध्यात्मिक प्रेम है। शरीर बीच में जरूर है, पर सांसारिक दायित्वों की पूर्ति भर के लिए। वहां प्रेम तो दरअसल दो आत्माओं का है। इसीलिए लोई कबीर और कबीर लोई के रूप में परिणत हो जाते हैं।
लोई ठेठ भारतीय पत्नी है, उसे घर और बच्चों की चिंता सताती है। सास की सेवा करती है। घर सॅंभालती है। करघा चला कर जीवन की भौतिक जरूरतें पूरी करती है। मगर वह कबीर के रंग में ही रॅंगी है। भौतिक जरूरतें उसे विचलित नहीं करतीं। भौतिक संसार उसे बांध नहीं पाता। वह भी कबीर के चेले-चेलियों में से एक हो गई है। यही वजह है कि कबीर की मां नीमा को तो सदा कबीर की चिंता रहती है, मगर लोई लगभग निश्चिंत है। वह आम पत्नी की तरह रौब नहीं जमाती, अपने पति को घर की जिम्मेदारियों से बांध कर रखना नहीं चाहती। उसने कबीर को मुक्त रखा है, इसलिए कि वह खुद मुक्त है। मुक्त व्यक्ति कभी किसी के लिए बंधन नहीं बनता। लोई एक मुक्त व्यक्तित्व है। उसे भरोसा है कि कबीर को, उसके पति को कुछ नहीं होगा। देशाटन करके एक न एक दिन घर लौट ही आएंगे। उसका भरोसा बार-बार सही ठहरता है।
दरअसल, कबीर की सांसारिक जिम्मेदारियां लोई ने उठा रखी हैं। इस अर्थ में वह बिल्कुल आधुनिक ठहरती है कि वह घरेलू मामलों में कबीर पर निर्भर नहीं। मगर ऐसा नहीं कि कबीर को अपनी गृहस्थी, अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों का बिलकुल बोध नहीं। वे तो गृहस्थी के भीतर ही, परिवार के बीच ही, पत्नी और बच्चों के कुनबे में ही अपने साईं की उपस्थिति महसूस करते हैं।
लोई दरअसल, कबीर ही है। कबीर का सांसारिक पक्ष। जहां जरूरत पड़ती है, वह न केवल सिद्धांतों, दार्शनिक तर्कों से, बल्कि जुबानी जंग लड़ कर भी पाखंडियों, घमंडियों को परास्त कर देती है। चाहे वह जोगियों से कबीर की रक्षा का प्रसंग हो, जब जोगी उन पर हमला करने आते हैं या फिर आखिरी प्रसंग सिकंदर लोदी का। कबीर अपने कबित्त, अपने पदों में चाहे जितने अक्खड़ हों, पर प्रायः पाखंडियों, अहंकारियों के हिंसक हमले चुपचाप सहन कर जाते हैं। लोई ऐसा कतई सहन नहीं कर पाती। खड़ी हो जाती है तन कर। वह जूझ पड़ती है। तीखे प्रतिवाद करती है। आखिर में अहंकारी सिकंदर लोदी के अन्यायपूर्ण फैसले का शिकार होती और अपने प्राण गॅंवा देती है।
नाटक की सफलता इस बात से आंकी जाती है कि वह मंच पर कितना माफिक बैठता है। मंच बड़ी चुनौती होता है। उस पर केवल कथा नहीं उतरती। दृश्य, ध्वनियां, प्रकाश,
वातावरण और आंगिक चेष्टाएं भी उतरती हैं। बहुत कुछ मिल कर नाटक को प्रभावी आयाम देते हैं। ‘लोई’ नाटक इन कसौटियों पर खरा उतरता जान पड़ता है। अपने संवादों और दृश्य संयोजनों के माध्यम से इसकी सफलता असंदिग्ध है।
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किताब : लोई- चलै कबीरा साथ (नाटक)
लेखक : प्रताप सोमवंशी
वाणी प्रकाशन, 4695, 21 ए, दरियागंज, नई दिल्ली; 299 रुपए।
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