— राजकिशोर —
डॉ आंबेडकर की एक विरासत हिन्दू धर्म का परित्याग करने की है। उनका यह वाक्य अकसर उद्धृत किया जाता है कि मैं हिन्दू धर्म में पैदा जरूर हुआ हूँ, पर हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं। इस वाक्य से एक भ्रांति का निराकरण हमेशा के लिए हो जाना चाहिए कि दलित हिन्दू नहीं हैं। आज बहुत-से दलित लेखक यह स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि दलित हिन्दू नहीं हैं। उनका अपना स्वतंत्र धर्म है। इसे दलित विचार की अलगाववादी धारा कहा जा सकता है। डॉ. आंबेडकर में यह अलगाववाद समाज के स्तर पर नहीं, राजनीति के स्तर पर था, इसीलिए वे मुसलमानों की तरह अनुसूचित जातियों के लिए अलग मतदाता मंडल के पक्ष में थे। लेकिन गांधीजी की जिद के कारण उन्हें अपनी यह माँग छोड़ देनी पड़ी, जिसका सुपरिणाम पूना समझौते के रूप में सामने आया।
आज के दलित विचारक पूना समझौते को शक की निगाह से देखते हैं, लेकिन क्या वे इससे इनकार कर सकते हैं कि इस समझौते के कारण ही दलितों को राजनीति में बड़े पैमाने पर प्रवेश मिल पाया? अलगाववाद के कारण जितनी समस्याएँ सुलझतीं, उससे ज्यादा समस्याएँ पैदा हो जातीं। इसलिए डॉ. आंबेडकर का यह निर्णय गलत नहीं था।
और, इस निर्णय का आधार वही था, जिसे मनवाने के लिए गांधीजी ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी। यानी दलित व्यापक हिन्दू समाज का हिस्सा हैं। ऐसा मानने के बाद ही धर्मान्तरण का सवाल उठता है।
तथ्य और आँकड़े गवाह है कि डॉ. आंबेडकर की इस विरासत को दलित समाज ने मोटेतौर पर ठुकरा दिया है। डॉ. आंबेडकर बेशक हिन्दू के रूप में नहीं मरे- उनका देहांत बौद्ध के रूप में हुआ, लेकिन धर्मान्तरण का यह विचार लोकप्रिय नहीं हो सका। निःसंदेह डॉ. आंबेडकर के बाद भी अनेक दलितों ने दूसरे धर्म स्वीकार किये, पर इन्हें छिटपुट घटनाएँ ही कहा जा सकता है। धर्मान्तरण के सवाल पर विचार करते हुए डॉ. आंबेडकर ने सभी धर्मों पर विचार किया था और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि भारत के दलितों के लिए बौद्ध धर्म ही अच्छा है। उनका यह विचार अभी भी प्रासंगिक है, यह इससे सिद्ध हो जाता है कि जहाँ-जहाँ दलितों ने इस्लाम या ईसाइयत को स्वीकार किया, उसके कारण हिन्दू समाज में तनाव बढ़ा। मीनाक्षीपुरम की घटना ने, जहाँ एक पूरे गाँव ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था, हिन्दुत्व की संकीर्ण राजनीति को बढ़ाने में निर्णायक भूमिका निभायी और इससे दलितों का कुछ खास भला भी नहीं हुआ।
डॉ. आंबेडकर मानते थे कि धर्मांतरण का कारण न्याय, आध्यात्मिक दिशा और नैतिक संहिता दे सके। यह हिन्दू धर्म से पलायन भौतिक लाभ की इच्छा नहीं, बल्कि एक ऐसे धर्म की खोज होना चाहिए, जो हमें सामाजिक नहीं, बल्कि एक बेहतर धर्म का स्वीकार है। लेकिन बाद के धर्मान्तरण के प्रयासों में यह चेतना कम दिखाई देती है। इससे भी ज्यादा प्रकट सत्य यह है कि धर्मान्तरण का रास्ता व्यापक रूप से स्वीकार्य नहीं हो पाया है। इसीलिए इसके अनुकूल परिणाम भी नहीं निकले हैं। यदि भारत के सभी दलित किसी एक दिन कोई धर्म स्वीकार कर लें, तो यह एक क्रांतिकारी घटना हो सकती है। लेकिन फिलहाल तो यह अ-संभावना ही लगती है। आज के ज्यादातर दलित अपने मौजूदा समाज में ही अपनी मुक्ति का रास्ता खोजना चाहते हैं।
डॉ. आंबेडकर की दूसरी विरासत दलितों के लिए उनका यह अमिट संदेश है कि शिक्षित और संगठित बनो। डॉ. आंबेडकर ने अपने जीवन में जो कुछ भी हासिल किया था, उसका एक बड़ा कारण उच्च शिक्षा थी और उनका विस्तृत अध्यवसाय था। वे जानते थे कि शिक्षित होकर ही दलित सवर्ण हिन्दू समाज से टक्कर ले सकते हैं। दलितों का संघर्ष सिर्फ सामाजिक या राजनीतिक संघर्ष नहीं है। यह वैचारिक संघर्ष भी है। अन्याय सबसे पहले एक विचार के रूप में पैदा होता है और अन्यायपूर्ण जाति प्रथा एक विचार के रूप में ही हिन्दू समाज में जड़ जमाये हुए है।
लेकिन डॉ. आंबेडकर के बाद के दलित नेतृत्व में शिक्षा और ज्ञान की साधना के प्रति रुझान कम दिखाई देता है। उनमें आक्रोश बढ़ा है, अपने अधिकारों की चेतना तीव्र हुई है, लेकिन विचार के स्तर पर ज्यादातर पिष्टपेषण ही नजर आता है। इस हद तक दलित संघर्ष थमा हुआ नजर आता है। डॉ. आंबेडकर की बातों को याद रखना उचित है, उन्हें दुहराना भी आवश्यक है, लेकिन उनकी विरासत को आगे ले जाना भी वांछित है। यह काम काफी हद तक उपेक्षित है और कुछ हुआ भी है, तो उसे साधारण जनता तक ले जाने की बेचैनी नहीं दिखाई देती।
दूसरी ओर, शिक्षा के प्रसार में दलित नेतृत्व की रुचि बहुत ही कम या नहीं के बराबर है। यह सच है कि एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के सभी वर्गों के बीच शिक्षा का प्रसार करना सरकार का ही काम है। लेकिन हमारी शिक्षा नीति में दलितों के विरुद्ध पूर्वाग्रह बिल्कुल स्पष्ट हैं। उनके बीच शिक्षा का प्रसार करने के लिए विशेष अभियान चलाये जाने चाहिए थे, लेकिन यह जान-बूझ कर नहीं हुआ। आज भी दलित का बेटा स्कूल जाता है, तो उसे सवर्ण समाज से ताने सुनने पड़ते हैं। इस स्थिति को दूर करने में दलित नेतृत्व निर्णायक भूमिका निभा सकता था। वह दलितों में शिक्षा पाने की भूख पैदा कर सकता था। उनके लिए स्कूल खुलवा सकता था और जहाँ यह सुविधा है, दलितों को प्रेरित कर सकता था कि वे अपने बच्चों को स्कूल जरूर भेजें। लेकिन ऐसा लगता है कि दलित नेतृत्व शिक्षित दलितों से डरता है, क्योंकि इनमें कुछ स्वाभिमान आ जाता है और ये प्रश्न कर सकते हैं, जबकि अनपढ़ दलित भेड़ की तरह उनके पीछे चल सकता है। विडंबना यह है कि वह दलित नेतृत्व स्वयं भी पढ़ने-लिखने से दूर ही रहता है, जिसके कारण उसका अपना विकास भी नहीं हो पाता। क्या डॉ. आंबेडकर की विरासत यही है?
जहाँ तक दलित एकता का सवाल है, इस मामले में डॉ. आंबेडकर की विरासत की सबसे ज्यादा उपेक्षा हुई है। वैसे तो स्वयं डॉ. आंबेडकर के जमाने में ही दलित नेतृत्व की कई धाराएँ थीं और जितने दलित डॉ. आंबेडकर के पीछे थे, उससे कहीं ज्यादा दलित गांधीजी के साथ थे। यही कारण है कि विधायिका में दलितों के लिए आरक्षण का सबसे ज्यादा लाभ कांग्रेस को ही मिला। अब यह भाजपा को मिल रहा है। इसके दो कारण हैं। एक, दलित राजनीति का अभाव। दो, दलितों में इस बोध का अभाव कि उनकी अपनी राजनीति ही सही मायने में उनका प्रतिनिधित्व कर सकती है।
चतुर सवर्ण नेतृत्व हर स्तर पर दलितों को कमजोर और विभाजित करने में सफल रहा है। लेकिन इससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि दलित संगठनों में एकता का घोर अभाव है। न केवल दलित राजनीति बँटी हुई है, बल्कि दलित संगठनों में आपसी भाईचारे तक की कमी है। यही कारण है कि कोई दलित एजेंडा उभर कर नहीं आ पा रहा है। जहाँ तक दूसरे दलितों के साथ रिश्तों का सवाल है, दलित राजनीति ने अचूक अवसरवाद का परिचय दिया है, जिससे उसकी शक्ति सामयिक तौर पर भले ही बढ़ी हो, पर उसकी साख को धक्का लगा है।
डॉ. आंबेडकर दलितों के लिए कुछ भी कर सकते थे, लेकिन उन्होंने अवसरवाद का परिचय कभी नहीं दिया। उनका दलित एजेंडा बिल्कुल साफ था और उसकी कीमत पर उन्हें कुछ भी मंजूर नहीं था।
इसके विपरीत आज के दलित नेतृत्व में दलित एजेंडा के प्रति लगाव कम और सत्ता के प्रति लगाव ज्यादा नजर आता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने समय में डॉ. आंबेडकर का महत्त्व कितना ज्यादा था : गांधी और नेहरू तक उनकी उपेक्षा नहीं कर पाये। लेकिन आज के दलित नेतृत्व की बौद्धिक और सामाजिक हैसियत क्या है? अपने अंतिम दिनों में डॉ. आंबेडकर जिस बात से सबसे अधिक आहत थे, वह थी शिक्षित दलितों की अशिक्षित दलितों से बड़ी हुई दूरी। बताया जाता है कि इसकी चर्चा करते हुए एक जनसभा में उनकी आँखों से आँसू तक निकल आए थे। क्या उनके जाने के बाद यह दूरी और बढ़ी नहीं है?
शिक्षित और मध्यवर्गीय हो जाने के बाद आज का दलित तरह-तरह से अपने आप को मध्यवर्गीय समाज में खपाने की कोशिश करता है और अपने गरीब तथा निरक्षर भाई-बहनों से दूर होता जाता है। यदि दलित समाज का किसी एक घटना से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, तो यही है। जाति के साथ-साथ वर्ग भी दलित समाज को डस रहा है। इसके कारण दलित समाज में किसी प्रकार का सामाजिक सुधार आंदोलन पैदा नहीं हो पाया है। शिक्षित दलित यदि अपने समुदाय से आंगिक रूप से जुड़ा रहता, तो वह उसकी उन्नति के लिए अनेक प्रकार के उपाय कर सकता था। इस मामले में महाराष्ट्र में शायद सबसे बेहतर काम हुआ है। लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में भयावह सूखा है, जिसके परिणामस्वरूप दलित समाज की बेहतरी का काम किसी अभियान के रूप में आगे नहीं बढ़ पा रहा है। इस विडंबना पर रामधारी सिंह दिवाकर ने ‘आग-पानी आकाश’शीर्षक से एक सुंदर उपन्यास लिखा है।
डॉ. आंबेडकर की एक और विरासत है, जिसका कोई नामलेवा तक नहीं दिखाई पड़ता। डॉ. आंबेडकर सिर्फ दलित समस्याओं पर नहीं सोचते थे। उन्होंने भारत की लगभग हर समस्या पर अपने विचार प्रकट किये हैं।
भारत विभाजन पर जितनी गहराई से उन्होंने सोचा, उतना किसी और ने नहीं। भारतीय रुपये की समस्या पर उन्होंने लंबा प्रबंध लिखा है। समाजवाद से वे लगातार रचनात्मक मुठभेड़ करते रहे। विश्व समस्याओं पर उनकी पैनी नजर बराबर बनी रही। यही कारण है जब भारत के लिए संविधान बनाने का समय आया, तो ड्राफ्टिंग समिति से अध्यक्ष के रूप में उनसे बेहतर कोई नाम संविधान सभा के सामने नहीं था।
लेकिन आज के दलित नेतृत्व की स्थिति क्या है? उसकी नजर दलित मामलों से आगे जाती ही नहीं। वह देश और दुनिया की मौजूदा समस्याओं के बारे में सोचना ही नहीं चाहता। आखिर देश का नागरिक होने के कारण दलित की एक व्यापक भूमिका भी तो है। जब तक उसके सरोकार व्यापक नहीं होंगे, वह न तो अपने को मुक्त कर सकता है और न ही देश की मुक्ति में सहायक हो सकता है। दलितों को यह समझना होगा कि वे अपने व्यक्तित्व का विस्तार करके ही भारतीय समाज में ज्यादा स्वीकार्य हो सकते हैं तथा अपनी बेहतरी का संघर्ष भी कारगर ढंग से चला सकते हैं। डॉ. आंबेडकर यदि सिर्फ दलित मामलों के विशेषज्ञ होते तो स्वतंत्र भारत में उन्हें कानून मंत्री का दर्जा कौन देता?
स्पष्टतः डॉ. आंबेडकर की यह विरासत है, जिसका संबंध पूरे देश से है। डॉ. आंबेडकर सिर्फ दलित नेता नहीं थे। वे एक राष्ट्रीय नेता भी थे। वे ऐसे भारत के बारे में सोचते थे, जिसमें सभी को न्याय मिलेगा और विषमता कम से कम होगी। संविधान सभा में उनका यह भाषण बहुत प्रसिद्ध है कि हमने कानून के द्वारा राजनीतिक समानता की नींव रख दी है, पर यह समानता तभी पूरी तरह चरितार्थ होगी जब आर्थिक समानता भी देश में स्थापित होगी। यह चुनौती न केवल बनी हुई है बल्कि और तीव्र हो रही है।
जात-पाँत तोड़क मंडल का उनका अध्यक्षीय भाषण आज भी हम सबकी प्रेरणा का स्रोत बन सकता है। सामाजिक न्याय के नाम पर जिस तरह जाति की राजनीति हो रही है, उसकी सही काट जाति विनाश की राजनीति ही है, जिसके अनेक सार्थक सूत्र डॉ. आंबेडकर के लेखन में मिलते हैं। डॉ. आंबेडकर ने अपनी पार्टी का नाम रिपब्लिकन पार्टी रखा था, उनका यह गणतंत्रवाद हमारी राजनीति का एक केंद्रीय सूत्र बन सकता है। डॉ. आंबेडकर की इस विरासत के प्रति क्या दलित क्या सवर्ण, दोनों उदासीन हैं।
इधर सवर्ण राजनीति में आंबेडकर का सम्मान करने की भावना बढ़ी है, लेकिन इसके पीछे शुद्ध अवसरवाद है। यह खेद और चिंता की बात है कि सवर्ण राजनीति आज डॉ. आंबेडकर का जितना सम्मान कर रही है, उनके आदर्शों के प्रति उतनी ही उदासीन है। अतः आंबेडकर के साथ बेवफाई करने वालों की कोई सूची बनाई जाय, तो वह सवर्ण राजनेताओं के नामोल्लेख के बिना पूरी नहीं हो सकती।