— विमल कुमार —
साहित्य की दुनिया में इन दिनों यह सवाल अक्सर उठ रहा है कि हिंदी के लेखक अपने समय में ‘हस्तक्षेप’ नहीं कर रहे हैं, वे सामाजिक आन्दोलनों में भाग नहीं लेते बल्कि वे अक्सर चुप रहते हैं और अपनी रचना में ‘युग सत्य’ का बयान नहीं कर रहे हैं बल्कि आत्ममुग्धता में डूबे हुए हैं या अपनी रचना में ‘कलाकारी-पच्चीकारी’ में रत हैं, वे अपने समय के क्रूर यथार्थ से बेखबर हैं।
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर यह सवाल बहुत ही तीखे ढंग से उभरा और लेखकों के बीच गर्मागर्म बहस भी हुई और यह बहस अंत में व्यक्तिगत रंजिश तथा आरोप प्रत्यारोप में बदल गयी। यह पहला मौका नहीं है जब इस तरह के सवाल हिंदी की दुनिया में उठे हैं। पहले भी इस तरह के सवाल उठाए जाते रहे हैं और लेखकों पर आरोप लगते रहे हैं कि वे सामाजिक परिवर्तन में, आंदोलन और क्रांति में अपनी हिस्सेदारी नहीं निभाते। शायद इसलिए एक समय अज्ञेय ने संभवत: खीझकर कहा था कि साहित्य से क्रांति नहीं होती क्योंकि उनपर भी लगातार हमले किये गए जबकि ‘दिनमान’ में अज्ञेय ने संघ का विरोध किया था और आपातकाल का समर्थन नहीं किया था। लेकिन आज फिर लोग इस तरह के हमले कर रहे हैं और साहित्य से क्रांति की उम्मीद पाले हुए हैं। इस उम्मीद और अपेक्षा के पीछे शायद उनका यह दृष्टिकोण काम करता रहा हो कि लोकतंत्र के सभी स्तम्भ अब ध्वस्त हो चुके हैं अब उनसे उम्मीद करना बेमानी है, यहां तक कि न्यायपालिका में भी अब लोगों ककी बहुत आस्था नहीं रही। इसलिए भारतीय समाज लेखक और बुद्धिजीवी वर्ग से उम्मीद करता है कि वे इस समाज को बदलने का काम करेंगे पर क्या हिंदी का लेखक इतना सक्षम है कि वह समाज को बदल दे, क्या उसके लिखे का समाज पर इतना असर है या क्या भारतीय जनता आज के हिंदी के लेखकों को जानती-पढ़ती है कि उसके लिखे से प्रेरित होकर वह क्रांति में भाग ले? लेकिन कुछ लोग बार-बार हिंदी के लेखकों पर निशाना साधते हैं, उनपर हमले करते रहते हैं और उन्हें ‘प्रतिगामी’ ‘अवसरवादी’ ‘समझौतापरस्त’ आदि आदि बताते रहते हैं।
प्रश्न यह भी है कि अगर हिंदी का कोई लेखक अपनी रचना में अपने समय की बात कहता है, क्रूर यथार्थ को व्यक्त करता तो उसपर यह भी आरोप लगता है कि उसकी रचना सपाट है उसमें कलात्मकता नहीं है और गुणवत्ता की दृष्टि से कमजोर है, उसमें रचना का सौंदर्य नहीं है।
पिछले दिनों ‘तीसरा सप्तक’ के कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना पर हुई गोष्ठी में इस तरह के सवाल एक बार फिर उभरे और उन्हें ‘कठघरे’ में खड़ा किया गया।

सर्वेश्वर जी ने एक कविता में लिखा था –
“यदि तुम्हारे घर के/ एक कमरे में आग लगी हो/ तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो?/ यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रही हों/ तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?’”
“देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता” शीर्षक कविता में उन्होंने ये पंक्तियां लिखी थीं। यह कविता पिछले दिनों काफी वायरल हुई थी। हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी ने सर्वेश्वर जी की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में इस कविता के वायरल होने का जिक्र किया और सर्वेश्वर जी के “कुआनो नदी” की भूमिका में लिखे गए एक अंश को पढ़कर भी सुनाया –
“मैं यह जानता हूँ कि कविता से समाज नहीं बदला जा सकता। जिससे बदला जा सकता है वह क्षमता मुझमें नहीं है। फिर मैं क्या करूँ? चुप रहूँ? उसे ख़ुश करने का नाटक करूँ, भड़ैती करूँ?… सच तो यह है कि मैं कविता लिखकर केवल अपना होना प्रमाणित करता हूँ। मैं यह मानता हूँ कि हम जिस समाज में हैं, जिस दुनिया में हैं वहाँ हमें अपना होना प्रमाणित करना है।”
अशोक वाजपेयी ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में इन पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उन्हें आज के समय का एक जरूरी और प्रासंगिक कवि बताया लेकिन उनकी कविता के सपाट होने का भी जिक्र किया।
रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित “आज की कविता” कार्यक्रम में सर्वेश्वर जी को उनके निधन के 40 वर्ष बाद याद करने का एक उपक्रम किया गया। लेकिन समारोह में सर्वेश्वर जी के बारे में वक्ताओं के वक्तव्य ने हिंदी की दुनिया में एक सवाल भी खड़ा कर दिया।
आखिर लेखक कब तक चुप रहे? कब तक वह खुशामद करता रहे। कब तक भड़ैती करे?
आज फासीवाद के दौर में हिंदी कवियों के सामने यह सवाल आए दिन उठने लगा है कि हिंदी के अधिकतर कवि आज चुप क्यों हैं? वे अपनी कविता में खुलकर सत्ता का विरोध क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या वरिष्ठ कवि ही नहीं बल्कि युवा कवि भी खामोश बैठे हैं और वे प्रेम मोहब्बत, फूल, पत्ती, आसमान, चिड़िया, चांद, आदि की कविताएँ लिखने में मशगूल हैं?
क्या कवि को अपने समय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए? क्या वह इसलिए चुप रहे कि अगर वह समय को दर्ज करनेवाली कविता लिखता है तो उसकी कविता की कला कमजोर हो जाएगी और वह कला की दृष्टि से उच्च कोटि की कविता नहीं मानी जाएगी? लेकिन सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने इस कला की परवाह न करते हुए सहज और सरल भाषा तथा शैली में कविताएं लिखकर अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप किया था। भले ही आज कोई उन कविताओं की चर्चा नहीं करता लेकिन सर्वेशर जी चुप नहीं रहे। उस जमाने में अपनी बात पुरजोर तरीके से रखी थी और यही कारण है कि आज भी उनकी उपरोक्त कविता वायरल हो रही है। जिस तरह रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ अपने समय में ऐसे ही हस्तक्षेप करती है उसी तरह सर्वेश्वर की उपरोक्त कविता भी अपने समय का आईना पेश करती है। लेकिन यह सच है कि आज सर्वेश्वर की चर्चा नहीं है जबकि रघुवीर सहाय की चर्चा पिछले दो-तीन दशकों से हिंदी की दुनिया में होती रही है।
क्या सर्वेश्वर की चर्चा इसलिए नहीं हुई कि रघुवीर सहाय की तरह उनके शिष्य नहीं हैं या फिर रघुवीर सहाय की कविता सर्वेश्वर से अधिक भारी पड़ती है? लेकिन क्या किसी कवि का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि उसका कोई समकालीन कवि उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है या भारी है? अगर रचना का यह मानदंड अपनाया जाए तो हर एक कवि की पिटाई दूसरे के सामने की जा सकती है। अगर ऐसा किए जाने की पद्धति अपनाई जाती है तो कल कोई रघुवीर सहाय की भी पिटाई मुक्तिबोध के सामने या निराला के सामने कर सकता है और यह सिद्ध कर सकता कि रघुवीर सहाय, निराला से छोटे कवि हैं। हिंदी आलोचना की दुनिया में एक को छोटा बनाने और दूसरे को बड़ा बनाने की परम्परा चलती आई है। लेकिन यहां दो कवियों के तुलनात्मक अध्ययन के अवसर की जरूरत नहीं है।
15 सितंबर 1927 को उत्तरप्रदेश के बस्ती में जन्मे सर्वेश्वर जी का 1983 में निधन हो गया। 4 साल बाद उनकी जन्मशती शुरू होगी।

श्री वाजपेयी ने कहा कि “आज की कविता” कार्यक्रम के तहत अब तक 25 आयोजन हो चुके हैं जिनमें 98 कवियों का पाठ हुआ है लेकिन अब इस कार्यक्रम के तहत उन कवियों पर चर्चा हो रही है जिनके बारे में आज कम बात होती है। इस कड़ी में सबसे पहले विजयदेव नारायण साही की कविता पर बातचीत हुई थी और अब सर्वेश्वर जी पर बातचीत हो रही है।
इस बातचीत में ‘दिनमान’ में सर्वेश्वर जी के सहयोगी रहे कवि विनोद भारद्वाज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर व आलोचक अपूर्वानंद तथा युवा आलोचक आशीष मिश्र ने भाग लिया।
श्री वाजपेयी ने सर्वेश्वर जी को “कस्बाई भावप्रवणता” का कवि बताते हुए कहा कि उनकी कविताएं बाद में सपाटबयानी का शिकार हो गयी थीं और वे कुछ तुक भी मिलाने लगे थे लेकिन उन्होंने अपने समय में चुप रहना उचित नहीं समझा था। पिछले दिनों उनकी कविता “देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता” काफी वायरल हुई थी।दरअसल वे खुशामद और भंड़ैती के खिलाफ थे। उन्होंने “भेड़िया गुर्राता है” और ‘बाघ’ आदि जैसी कविताएं लिखीं। आज के माहौल को देखते हुए उनकी कविताएं प्रासंगिक और अर्थवान हैं।
श्री वाजपेयी ने सर्वेश्वर जी के साथ अपने तनावपूर्ण संबंधों का जिक्र करते हुए बताया कि “सर्वेश्वर जी ने मेरे बारे में एक तल्ख टिप्पणी की थी पर नामवर सिंह को अचूक अवसरवादी बताया था और नामवर जी के बारे में उनकी इस राय से मैं सहमत था।”
उन्होंने सर्वेश्वर जी के ‘दिनमान’ में स्तम्भ ‘चर्चे और चरखे’ तथा उनके नाटक ‘बकरी’ और ‘लड़ाई’ का विशेष जिक्र किया तथा बताया कि सर्वेश्वर जी ने गंगू बाई हंगल और कुमार गन्धर्व पर भी कविताएं लिखी थीं।
प्रसिद्ध कला समीक्षक विनोद भारद्वाज ने ‘दिनमान’ में सर्वेश्वर जी के साथ अपने संबंधों का जिक्र करते हुए उन्हें रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा की तुलना में कमजोर कवि बताया। उन्होंने कहा कि इन तीनों कवियों में भयानक ईर्ष्या थी और आपस में नहीं बनती थी तथा बातचीत भी नहीं होती थी।
श्री भारद्वाज ने बताया कि सर्वेश्वर जी मधुमेह और उच्च रक्तचाप के मरीज थे और उनका 56 वर्ष की आयु में ही निधन हो गया। मैंने करीब 10 वर्ष तक उनके साथ काम किया और उनके निधन के बाद उन पर मैंने एक कविता भी लिखी थी लेकिन मेरे प्रिय कवि रघुवीर सहाय थे क्योंकि उनकी कविता में सर्वेश्वर जी की तुलना में अधिक गहराई थी।
विनोद भारद्वाज ने कहा कि सर्वेश्वर जी के मन में साहित्य अकादेमी पुरस्कार को लेकर एक ‘ओबसेशन’ था और जब विष्णु खरे ने धूमिल को यह पुरस्कार मिलने की मुझे सूचना दी और मैंने सर्वेश्वर जी को बताया तो उन्होंने रघुवीर सहाय के कमरे से बाहर निकलते हुए कहा था- “अब मुझे जीते जी यह पुरस्कार नहीं मिलेगा।” लेकिन इसे संयोग कहा जाए कि उन्हें उनके निधन के बाद “खूंटियों पर टॅंगे लोग” संग्रह के लिए उन्हें अकादेमी पुरस्कार मिला।
युवा आलोचक आशीष मिश्र ने बातचीत प्रारंभ करते हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को “संवाद धर्मी” कवि बताते हुए कहा कि वह नागार्जुन और भवानी प्रसाद मिश्र की परंपरा के कवि थे जो जनता से संवाद करना चाहते थे।
उन्होंने कहा कि सर्वेश्वर ‘तीसरा सप्तक’ के कवि थे और उनकी पहली किताब 1959 में आई थी। 1983 में उनका निधन हो गया था। इस तरह वे करीब तीन दशक साहित्य में सक्रिय रहे। वे तीसरा सप्तक के कवि जरूर थे लेकिन बाद में उन्होंने नई कविता की भावभूमि को अपनी कविता में तोड़ा था तथा “कुआनो नदी” के बाद उनकी कविता बदल गयी थी। लेकिन उनके शिल्प और शैली में परिवर्तन आया और वे अंतर्वस्तु पर अधिक जोर देने लगे। वे गैरकांग्रेसवाद के कवि थे पर उनकी राजनीतिक समझ बहुत गहरी नहीं थी और अपने समय के अंतर्विरोध को नहीं समझ पा रहे थे।
समारोह के अंत में प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कहा कि हमें कवि का मूल्यांकन उसकी श्रेष्ठ कविता के आधार पर करना चाहिए न कि उसकी कमजोर कविताओं के आधार पर।उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य की दुनिया में कहां किसी कवि की अक्सर चर्चा होती है, इसलिए यह कहना उचित नहीं है सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की चर्चा आज नहीं की जाती है। उन्होंने सर्वेश्वर जी की कविताओं को कमजोर बताया लेकिन यह भी कहा कि सर्वेश्वर जी ने कविता की दुनिया में सच कहने की हिमाकत की थी। उन्होंने कहा कि जब पटना में इप्टा ने सर्वेश्वर जी का ‘बकरी’ नाटक किया तो वे निराश हुए थे और मैंने उनकी राजनीतिक दृष्टि पर एक तल्ख टिप्पणी भी लिखी थी और उसे कमजोर नाटक बताया था जिसे लेकर इप्टा के भीतर विवाद भी हुआ था क्योंकि मैं इप्टा से जुड़ा था और इप्टा से जुड़ा हुआ व्यक्ति कैसे अपने कार्यक्रम की इस तरह तीखी आलोचना कर सकता है।
उन्होंने बताया कि सर्वेश्वर जी ने युद्ध के खिलाफ अनेक कविताएं लिखी थीं और इतनी युद्ध विरोधी कविताएं किसी ने नहीं लिखीं। अंत में उन्होंने सर्वेश्वर जी की कुछ कविताओं का पाठ कर उनकी अच्छी कविताओं के अर्थ खोले और सम्यक विश्लेषण किया।
लेकिन अब हिंदी की दुनिया में सर्वेश्वर जी के बहाने इस पर बात होनी चाहिए कि कवियों को चुप रहकर साहित्य सृजन करते रहना चाहिए या मुखर ढंग से बोलना चाहिए।
कविता में कला की अधिक रक्षा करने के प्रयास में हम अक्सर साहित्य में अंतर्वस्तु को नजरअंदाज कर देते हैं।
आज सर्वेश्वर जी की चर्चा भले कम हो या नहीं हो पर एक ऐसे कवि की जरूरत है जो यह कह सके “देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं है।”
लेखक को साहित्य के सौंदर्यशास्त्र की परवाह किये बिना अपने समय का सच बोलना चाहिए। लेकिन साहित्य में प्रतिरोध को भी “दाल में तैरते घी” की तरह नहीं देखना चाहिए और प्रतिरोध का ‘आत्म प्रदर्शन’ दिन रात नहीं करना चाहिए।
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