- (डॉ लोहिया का यह लेख 1966 का है। कुछ महीने पहले सेतु प्रकाशन से अरविन्द मोहन के संपादन में लोहिया के चिंतन का एक चयन प्रकाशित हुआ है। लोहिया का यह लेख वहीं से लिया गया है जिसे हम तीन किस्तों में प्रकाशित करेंगे। ऐसे वक्त जब भारत में गैरबराबरी बहुत तेजी से बढ़ रही है, लोहिया-विचार के इस अंश का स्मरण और पुनर्पाठ बहुत मौजूँ जान पड़ता है।)
समाजवाद की दो शब्दों में परिभाषा देनी हो तो वे हैं : समता और सम्पन्नता। मुझे नहीं मालूम कि यह परिभाषा पहले कभी दी गयी है कि नहीं। अगर दी गयी है तो मैं इसे अब तक की सर्वश्रेष्ठ परिभाषा कहूँगा। इन दो शब्दों में समाजवाद का पूरा मतलब निहित है; देशकाल के अनुसार सम्भव मतलब और आदर्श के अनुसार सम्पूर्ण मतलब।
पूरी समता एक सपना है। जो सपना बिल्कुल नहीं देखते वह अवसरवादी हैं। जो सपना ही सपना देखते हैं, वे यथार्थ से हटे प्रभावहीन सनकी बन जाते हैं। सम्पूर्ण समता का सपना लिये हुए यथार्थी और आदर्शवान दिमाग की कोशिश रहेगी कि देशकाल को जाँचते हुए अधिकाधिक समता को हासिल किया जाए।
लोगों की संपन्नता हर आदमी चाहेगा। कुछ विशिष्ट प्रकार के आध्यात्मिक लोग जरूर हैं कि जो संपन्नता को अपने आचार और व्यवहार दोनों से अच्छा नहीं मानते। उनका विचार है कि मनुष्य को अपनी जरूरतें घटाते रहना चाहिए। कुछ ऐसे हैं जो वाणी से इस सत्य का उपदेश करते हैं किंतु अपनी खुद की आवश्यकताओं को बढ़ाने में नहीं हिचकते। ऐसे लोग छली हैं और उनकी बात करना बेकार है। ऐसे लोग जो अपनी आवश्यकताओं को घटाने अथवा न बढ़ाने की कोशिश करते हैं, चाहे उनके साधन बढ़ सकते हों, आमतौर से साधारण जनता की आवश्यकताओं को घटाने की बात नहीं करते। साधारण जनता का जीवन स्तर इतना नीचा है, विशेषकर हिन्दुस्तान जैसे देश में, कि कोई जड़ ही इसको और नीचा करने की बात कहेगा। फिर भी, निजी आवश्यकताओं को न बढ़ाने की इच्छा पूर्ण अथवा सुखी जीवन का अंग है। शक्तिशाली लोगों के दिमाग में इसकी कम या ज्यादा जगह हर हाल में होनी चाहिए।
समता और संपन्नता जुड़वाँ हैं। यह सत्य आजकल अपने देश में बड़ा धूमिल किया जा रहा है। मुक्त व्यापार के समर्थक आर्थिक सुधार के लिए निजी लाभ को बहुत महत्त्व देते हैं। जहाँ निजी लाभ है, ऐसे लोगों का कहना है, वहाँ असमता होगी ही। यह हुआ इस प्रश्न को व्यक्ति के भावनात्मक पहलू से देखने का नतीजा, किन्तु यदि इसी प्रश्न को इतिहास और सम्पूर्ण समाज की दृष्टि से देखा जाए तो दूसरा नतीजा निकलता है। असंपन्न खेतिहर समाज में ज्यादा गैरबराबरी है। उद्योगी और पूँजीवादी समाज में उसकी अपेक्षा ज्यादा समता है। मालूम होता है कि संपूर्ण समाज को संपन्न बनाने के लिए उसके विभिन्न अंगों यानी व्यक्तियों में दम आना जरूरी होता है। दमवाले व्यक्तियों में आपस में अंतर होते हुए भी उतनी असमता की गुंजाइश नहीं है जितनी बेदम समाज में होती है।
बेदम असंपन्न गैरबराबर और जातिग्रस्त हिन्दुस्तान में साम्यवाद भी असंपन्नता और असमता का कारण बन गया है। चाहे शासन करनेवाले काँग्रेसियों ने, चाहे शासन का विरोध करनेवाले, चाहे दोनों ने मिलाकर के, भारत के मार्क्सवाद को बाँझ बना दिया है। मार्क्सवाद के दो अंग रहे हैं; एक आधुनिक अथवा उद्योगीकरण यानी कुल मिलाकर संपन्नता, और दूसरे, निजी संपत्ति में घटोत्तरी और वैयक्तिक आमदनी और खर्चों में गैरबराबरी का खात्मा या कम से कम ह्रास। भारत के मार्क्सवाद ने चाहा कि पहले को दूसरे के बिना अपनाया जाए और इसीलिए वह कुण्ठित हो गया। यह सब इसलिए सहज हो गया क्योंकि इस देश का समाज जातिग्रस्त समाज है और साम्यवादी नेता अधिकतर ऊँची जातियों के जनमे हैं।
प्रसंगवश एक बात का यहाँ मैं उल्लेख कर देना चाहता हूँ। यूँ सारे संसार में अनोखे और विदेशी के प्रति कुछ उत्सुकता और कुछ प्यार है, यदि उस अनोखे और विदेशी से टकराव न हो तो। भारत में यह प्यार इतना अमर्यादित और भोंडा हो गया है कि बड़े लोग अपने देशवासियों के जितना निकट हैं उससे ज्यादा अपने को परदेसियों के निकट समझते हैं। सदियों से यहाँ के ऊँचे वर्ग जैसे रहे हैं वैसे अधम और नीच संसार में और कोई नहीं। ऐसी नीचता का सबसे बड़ा लक्षण यह है कि ऊँचे वर्ग का रहन-सहन, रीति-रिवाज, बोल-चाल, उठना-बैठना, कपड़ा-लत्ता, पोथी-पुस्तक और अंततोगत्वा मन किसी न किसी देश पर आधारित रहता है। जहाँ कम गरीब अथवा भिखमंगे होते हैं वहाँ बाँट-चाँट के भोग की तबीयत सहज है। जहाँ इनकी तादाद बढ़ जाती है वहाँ अभिजात अथवा अमीर लोग अपनी अलग दुनिया बसाते हैं। ज्यादा संपर्क होने पर इनका जीवन बहुत दुखी और असह्य हो जाए। इसलिए भारत के ऊँचे वर्ग और साधारण जनता के बीच जो लौह आवरण है उसके जैसा अलगाव संसार में और कोई नहीं। इसीलिए यह वर्ग संसार में सभी ऊँचे वर्गों में सबसे कम श्री और शक्ति संपन्न है। मामला कुछ ऐसा फँस गया है कि यह श्री और शक्ति विहीन ऊँचा वर्ग अपनी पुरानी आदतों को चलाये अथवा देश को सम्पन्न बनाये।
चारों तरफ दुनिया संपन्न हो रही है। सदियों की गरीबी और कूड़ा भारत में इकट्ठा हो गया है। इस देश को संपन्न बनाने का अब केवल एक ही रास्ता रह गया है और वह है समता का रास्ता। न सिर्फ समता और संपन्नता जुड़वाँ हैं बल्कि समता साधन है और संपन्नता साध्य। कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि अगर कोई पूँजीवादी हो लेकिन सोचें तो उसके सामने भी कोई और रास्ता नहीं। पूँजी के बिना उद्योगीकरण अथवा आधुनिकीकरण संभव नहीं, चाहे समाज का अर्थ पूँजीवादी हो अथवा समाजवादी। भारत जैसे भिखमंगे रोगी और झूठे देश में पूँजी निर्माण का रास्ता खाली समता हो सकता है। पूँजीवाद अपने स्वधर्म का यहाँ पालन नहीं कर सकता। पूँजीवाद पूँजी नहीं इकट्ठी कर सकता। समता से ही सम्पन्नता हो सकती है।
(जारी)