सुधा ‘सुगंधा’ की छह कविताएँ

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पेंटिंग - डॉ.विजय सिंह
पेंटिंग - डॉ.विजय सिंह

1. सफ़र में शहर

किसी अनजाने शहर से
गुजर रही रेल पुचकारती चलती है
स्ट्रीट लाइटों के आगोश में बल खाती सड़क को

वातानुकूलन के शीशे
किसी साज़िश से लगते हैं।

अनगिन रोशनियों, दबाव
और छोटे-छोटे संवेदों से
अपने वज़ूद को बाखबर रखने की
कवायद के बीच
उस शहर को महसूस करना
कतई मुश्किल है।

उम्र भर की थकान और
नाउम्मीदी से ज़ार बाशिंदों को
थपकियाँ देता वह
काँपता था हजारों सिसकियों में

मुझे घर पे सोया
अपना बच्चा याद आता है।

कहीं बिखरती चाँदनी
कहीं टिमटिमाते दीये
कहीं पीली मनहूस लाइटों में
घने गाँछों तले पसरा शहर
जाति, रंग और कुल के खोल से
निकल आया है निर्वस्त्र
अबाध आसमान तले
अपने पैरहन को सुखाता हुआ
रेल की चुँधियाती रोशनी में
झींगुरों से पैबंद सिल रहा है।

कल की शाम बहुत
तंग गुजरी है गोया।
अनमना चाँद टॅंगा था
उस मैली नदी के तीर पर
लोहे की रेल चुपचाप खड़ी रही
उसकी पीठ पर लदा दुख
सरक आया है रेत पर
जिसे भींच लिया नदी ने
और स्थिर हो रही अपने चिर संताप में
रेल चल देती है चुपचाप
उस अनजान नदी के अनजान किनारे से
दूर ॲंधेरे में सीटी बजाते हुए।

2. स्त्रियॉं

मेरा बचपन
आबाद था एक सुघड़ स्त्री के
आंचल में
मेरा सोना जागना खेलना इतराना
सब उसके चितवन के
इशारे पे रखे थे

छोटी नानी के घर
गिर जाती थीं मेरी चीज़ें
बार बार बेसबब
उनके आंगन में खुलती
छत पे टंगी रहती थी
मेरी जान
एक प्यारी सी दीदी
इठलाती होती थी
उस आंगन में
उसके काजल की धार
चौराहे की बत्तियां थीं।

जमीन से हजारों फीट की ऊंचाई पे
मेरे सामने मुस्कुराती खड़ी है एक स्त्री
नपे तुले कपड़ों में
देती है प्यार से गरम चाय की प्याली
एक सफेदपोश स्त्री
लिये जा रही है मुझे उड़ाते हुए
जमीन के स्वर्ग की तरफ़
मेरा ये जीवन किस क़दर घिरा हुआ है स्त्रियों से
इस ऊंचाई पे जीवन
कितना क्षुद्र लगता है और कितना
पुरसुकून वह प्यार
जो पाया मैंने
जिंदगी के छोटे छोटे प्यालों में।

3. नौकरी और स्त्री

उबर मोटो से उतरती हुई
वह स्त्री
जिसके कंधे पर धरा है
सहकर्मियों की फब्तियों
से भरा थुलथुल बैग

उसकी खाल से चिपकी है
निगाहों की एक्सरे

जाने क्यों
फूलता जा रहा है
उसका पेट
फैलती जा रही है
गोरी कमर
दिन ब दिन गोल होती जाती है।

अपने अवसाद को
ढंकती है वह
हरे, नीले, पीले
नेलपोलिशों में
गोरी उंगलियों पे
खिलते हैं
अलहदा रंग
कुछ देर को
स्याही मल आती है
उन चेहरों पे
उसकी अम्लान हँसी

पुरुष के लिए नौकरी
एक उपलब्धि है
उसके लिए ताना
को तब्दील होता है
आंखों के नीचे धारियों में!

पेंटिंग -बिजेन्द्र
पेंटिंग -बिजेन्द्र

4. वह और मैं

आहिस्ते बोलो, मीठे हॅंसो
चलो पर चलती हुई
दिखो मत
बोलो पर कहो मत

प्यार प्यार में ही
गिनी गईं खाई हुई रोटियां
पहनी हुई चूड़ियां
रखा गया हिसाब
हर गिरती सांस का।
अपनी बेटियों को
बेटे सा प्यार देते हैं हम
कहते हुए गिन ली गई
देह की हर उगी हुई पसली।
कितने लंबे पैर हैं
सिलवानी पड़ेंगी जूतियां
शायद मेरे तलुवे भूल गए थे
कि सभ्यता ने मुकर्रर कर दी है
हर चीज़ की एक मुफीद नाप!

बचपने की गुजरती दहलीज पर
रक्खे हर क़दम को
तौला गया नजरों से
कितनी उखड़ी सी चलती है सांस
नाप लिया गया तेज़ी से
जैसे मापा जाता है भूकंप
सीस्मोग्राफ से!

इन पैनी नज़रों से
दूर होने की हर मुमकिन कोशिश करते हुए
सिकुड़ती गई मैं
घुटती गई जुबान
दबती गई आवाज़!
होती गई गायब पोशीदा
मैं!

पर झूमते सावन
और लहराती बहार को
कोई बांध पाया है भला!
पोशीदा होने की हर कोशिश
उघाड़ती गई मुझे आसमान सी!

5. नोहकलिकाई

खासी पहाड़ियों के
हरे भरे विस्तार से रिसता
हरे पानियों का एक संसार है

सख़्त चट्टानों के सीने पर
रेंगता घने गुल्मों में टहलता
कल कल फुहारें बिखेरता
और किसी कलपती मां
की हृदय वेदना के साथ
छलांग लगा देने वाला
एक प्यासा पथिक

कहते हैं यह लिकाई की
लूटी हुई ममता की पुकार है
एक स्त्री जो मां थी
एक स्त्री जिसने अपनी ही
जन्मी बेटी को उदरस्थ कर लिया
जो छली गई एक सत्तावान पुरुष से
एक स्वत्वाधिकारी सजातीय से
एक अधूरे प्रेम का अभिशाप लिये
कूद पड़ी वो सबसे बड़ी ऊंचाई से
और तुम झरते रहे उसके आंचल में बंधे
अजस्र वेदना की टीस-से!

6. जाता हुआ साल

बंद दरवाजे के पीछे से चुपके से
जा रहा है ये साल हिलाते हुए हाथ
इसका नाम बंदी क्यों न रखा जाए
दुकान बंद, बाजार बंद, बंद कार्यालय
म्युनिसिपल का दफ्तर बंद, अख़बार बंद
स्कूल बंद, कालेज बंद और बंद है
तेरा मेरा मिलना भी।

इस बंदी की जकड़न से निकलने के लिए
घूम आए लोग होकर अस्पताल
डॉक्टरों को देखा हमने बंद लिफाफे में
बेबस आंखें जिनकी झिलमिलाती थीं चश्मों के पार
अस्पताल के बिस्तर थे कम रोग के फैलाव से
सड़कों पर गाड़ियों से अधिक थे एम्बुलेंस
नदियों में पानी से अधिक लाशें
दिलों में हिम्मत से ज्यादा थी दहशतें।

भीषण गर्मी और शहर को बहा ले जाते सावन
के बीच जमे रहे कुछ बूढ़े पांव
दिल्ली की सरहदों पर
हिंदू जागरण के दौर में जो गाते थे
परहित धर्म के गीत
भोले थे, बिल्कुल उस लाठी वाले बूढ़े की तरह
और जिद्दी भी जिनकी सांसें उखड़ी नहीं
पूस की सर्द रातों में
पर रबड़ की टायरों पर चलती एक गाड़ी ने
कुचल दिया उनकी जिजीविषा को
सभ्य समाज में जिद
और भोलेपन के लिए कोई जगह नहीं।

जा रहा है ये साल हिलाते हुए हाथ
गाते हैं बच्चे राष्ट्र का गान
तनी हुई मुट्ठियों में चलते हैं दाहिने-बाएं
फटे हुए गालों में अंतड़ियों की आग छुपाए
सड़कों, पटरियों पर चलते रहे लोग
सुदूर मंजिलों की तरफ
अपने कंधों पर लादे हुए अपनी लाश
शायद जानते रहे हों कि चलना फ़ैशन में
है आजकल।

जा रहा है ये साल हिलाते हुए हाथ
और मैं पलट कर देखती रही
मास्क में बंधे चेहरों को
रेत सी फिसलती जिंदगी को
कागज़ में बदलते संविधान को
और बंदी में तब्दील होते इस साल को
जा रहा है ये साल हिलाते हुए हाथ।

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