यह सामाजिक पश्चाताप का समय है

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पेंटिंग- रामप्रवेश पॉल
पेंटिंग- रामप्रवेश पॉल

— ध्रुव शुक्ल —

गर हम देख पा रहे हैं तो हमारे जीवन की प्रत्येक गतिविधि में राजनीति का हस्तक्षेप इतना बढ़ गया है कि हर सामाजिक प्रश्न राजनीतिक बना दिया जाता है। आजकल की दलीय राजनीति अपने-अपने वोट बैंक की चिन्ता में डूबकर इतनी संकुचित हो गयी है कि वह विभिन्न समाजों में घटने वाली हर घटना को चुनाव में अपनी जीत और हार से जोड़कर देखने लगी है। राजनीति की दिलचस्पी सामाजिक न्याय में नहीं बल्कि बेबस लोगों को उनके हाल पर छोड़कर केवल वोट बटोर लेने में है। वह उन्हें दरिद्रनारायण कहकर उनके पांव पखारकर सिर्फ़ अपने पक्ष में फुसलाती है।

अभी जो राजनीतिक रूप से हट्टे-कट्टे आदमी के द्वारा एक बेबस आदमी पर मूतने का दृश्य देखा गया है। वह सबसे पहले एक सामाजिक प्रश्न है। यह अमानवीय कर्म करने वाला आदमी जिस समाज में पला-बढ़ा है, यह घटना देखकर उस समाज को अपनी चिन्ता करना चाहिए। उसे सोचना चाहिए कि अगर अपनी शालीनता, मानवीयता और उदारता के मूल्य को खोने वाले लोग उस समाज में बढ़ते चले गये तो उसे एक पतनशील और असभ्य समाज होने का कलंक लग सकता है।

अत: इस घटना पर सबसे पहले निन्दा प्रस्ताव तो समाज की तरफ़ से आना चाहिए। जिस बेबस आदमी पर खुलेआम मूता गया है उससे समाज को माफ़ी मांगना चाहिए और अपने लोगों के सुधार की दिशा में तुरंत सक्रिय हो जाना चाहिए। बहुरंगी जागरूक समाज ही मिलकर राष्ट्र को संभालते हैं और लोकतंत्र में राजनीति को रानी नहीं, नौकरानी बनाकर रखते हैं।

पेंटिंग- प्रशांत सुकलेन
पेंटिंग- प्रशांत सुकलेन

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जो आज के नहीं, वो कैसे बनेंगे कल के
(बचपन में प्रसिद्ध हुए गीत की याद में)

केवल चुनाव लड़ना बस और कुछ न करना
वोटों की भेंट लेकर उनको तो दल बदलना
हम लोग थक गये हैं मतदान खूब कर के….
हर रोज़ दल बदल के, नेता दिखायें चल के
जो आज के नहीं, वो कैसे बनेंगे कल के

इंसानियत के सर पे नफ़रत का ताज़ मढ़ना
फिर दल बदल-बदल कर मनमाना राज गढ़ना
क्या मिला है हमको, इनको बदल-बदल के….
हर रोज़ दल बदल के, नेता दिखायें चल के
जो आज के नहीं, वो कैसे बनेंगे कल के

अपने हैं जो सदियों से, नेता कहें – पराये
कब प्यार मिट सका है, कैसे कोई मिटाये
हम कर चुके नज़ारा, हर आंख में वो झलके….
हर रोज़ दल बदल के, नेता दिखायें चल के
जो आज के नहीं, वो कैसे बनेंगे कल के।

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