वन संरक्षण कानून में बदलाव के खिलाफ देशभर में क्यों हो रहे हैं प्रदर्शन?

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19 जुलाई। वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023 में ऐसा क्या है जो उसके खिलाफ लोगों के मन में आक्रोश है और देश भर में उसके विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। यह विधेयक 20 जुलाई 2023 से शुरू होने वाले संसद के मानसून सत्र में पेश किया जा सकता है। इसका मकसद वन संरक्षण अधिनियम 1980 में बदलाव करना है। हालांकि इस विवादित बिल को रिव्यू के लिए संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया है, समिति को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी है।

देश भर में लोगों के साथ वन संरक्षण, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण पर कार्य करने वाले विभिन्न संगठनों ने पिछले कुछ दिनों में दिल्ली और 16 राज्यों में इस बिल के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन किए हैं। इसके खिलाफ उन्होंने #SaveIndianForests और #ScrapForestConservationAmendmentBill2023 के साथ एक ऑनलाइन अभियान भी शुरू किया है।

इसके खिलाफ नेताओं के साथ-साथ संसद सदस्यों को संबोधित करते हुए एक ईमेल अभियान की भी शुरुआत की गई है। लोगों की मांग है कि वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023 के इस मौजूदा स्वरूप को रद्द कर दिया जाना चाहिए। आइए समझते हैं कि इस विधेयक को लेकर लोगों के मन में इतना आक्रोश क्यों है और उनके चिंतित होने की क्या वजह है।

लैट इंडिया ब्रीथ प्लेटफॉर्म के सह-निर्माता यश मारवाह का कहना है कि “अगर यह वन संरक्षण अधिनियम संशोधन विधेयक पारित हो जाता है तो उन लाखों भारतीयों के भविष्य का क्या होगा, जो पहले ही देश में जलवायु परिवर्तन और उससे होने वाली आपदाओं से जूझ रहे हैं।”

उन्हें डर है कि यदि यह नया संशोधन विधेयक पारित हो जाता है तो अरावली के एक बड़ा हिस्से के साथ तराई और मध्य भारत में बाघ के आवास क्षेत्र, पश्चिमी और पूर्वी घाट, उत्तर-पूर्व के जैव विविधता हॉटस्पॉट और तटों पर मौजूद कई मैंग्रोव क्षेत्रों को अब ‘जंगल’ नहीं माना जाएगा।

ऐसे में आशंका यह भी है कि इन्हें बेचा जा सकता है या फिर भूमि उपयोग में बदलाव करके इनके दोहन और विनाश का रास्ता साफ किया जा सकता है और यह सब बिना किसी नियामक निरीक्षण के हो सकता है।

क्या इस संशोधन से खुल जाएगा वनों के विनाश का रास्ता

वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) 1980 का उद्देश्य वनों को संरक्षित करना है। ऐसे में इस मूल अधिनियम में यदि कोई भी संशोधन किया जाता है तो उसका उद्देश्य इस अधिनियम को मजबूत करना होना चाहिए।

लेकिन पर्यावरणविदों का कहना है कि प्रस्तावित संशोधन इस मूल अधिनियम के विपरीत है, जो वनों की सुरक्षा के लिए राज्य के संवैधानिक आदर्शों (अनुच्छेद 48ए), अनुच्छेद 51ए (जी) की अनदेखी करता है, जो कहते हैं कि राज्य पर्यावरण की रक्षा और उनमें सुधार के साथ-साथ देश में वन और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए प्रयास करेगा।

साथ ही यह संशोधन, सार्वजनिक भागीदारी और न्याय तक पहुंच को भी बाधित करती है, जो कि रियो घोषणा 1992 के आवश्यक घटक भी हैं और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए लोगों को दिए मौलिक अधिकार हैं।

उनके मुताबिक हमारे जंगलों को जैव विविधता को बनाए रखने, उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली पारिस्थितिक सेवाओं, कार्बन और प्रदूषण सिंक, वन्यजीव कॉरिडोर और जल पुनर्भरण क्षेत्रों के रूप में बचाए रखना महत्वपूर्ण है।

इस बारे में अरावली बचाओ नागरिक आंदोलन की संस्थापक सदस्य और ट्रस्टी नीलम अहलूवालिया का कहना है कि “यह अनुमान है कि भारत में करीब 39,063 हेक्टेयर वन क्षेत्र, पवित्र उपवनों के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें स्थानीय समुदायों द्वारा वनों के रूप में संरक्षित और प्रबंधित किया जाता है, भले ही वे वर्तमान में वनों के रूप में अधिसूचित नहीं हैं। यह एफसीए संशोधन विधेयक 690 किलोमीटर लंबी अरावली श्रृंखला सहित पूरे भारत में ऐसी भूमि को नष्ट कर देगा।“

“इसके अलावा, हरियाणा में अरावली की 50,000 एकड़ जमीन भी खतरे में है क्योंकि इन जंगलों को अभी तक ‘वन’ के रूप में अधिसूचित नहीं किया गया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार हरियाणा सरकार को गोदावर्मन (1996) के फैसले के अनुसार जंगलों की पहचान करने का निर्देश दिया है, लेकिन सरकार इस कार्य को पूरा करने में विफल रही है।“

गौरतलब है कि मूल रूप से अधिसूचित वनों से जुड़े टी.एन. गोदावर्मन थिरुमलपाद मामले (1996) में, अन्य बातों के अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में वनों की सुरक्षा का दायरा उन जंगलों के लिए भी बढ़ा दिया था जिन्हें आधिकारिक तौर पर वन के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया था।

“साफ हवा, जल सुरक्षा और मरुस्थलीकरण को रोकने के साथ ही अवैध खनन और अतिक्रमण से अरावली के होते विनाश के विरोध में लोग दिल्ली के अरावली जंगलों, हरियाणा के गुरुग्राम, दक्षिणी राजस्थान में पाली के जवाई क्षेत्र में एकत्र हुए थे। साथ ही जयपुर में वर्तमान में चल रहे ‘जन हक आंदोलन’ स्थल से भी इसका विरोध किया है।“

पश्चिमी घाट के संरक्षण के लिए काम कर रहे संयुक्त संरक्षण आंदोलन के प्रबंध ट्रस्टी जोसेफ हूवर का कहना है कि “पश्चिमी घाट दुनिया के आठ जैव विविधता हॉटस्पॉटों में से एक है। जिन्हें पनबिजली और खनन परियोजनाओं के लिए बर्बाद किया जा रहा है।”

उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि “यदि वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023 पारित हो जाता है, तो पश्चिमी घाट में नौ लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैले जंगल नष्ट हो सकते हैं। इतना ही नहीं खनन, उद्योग, मनोरंजन और पर्यावरण-पर्यटन केंद्र पश्चिमी घाट में विनाशकारी बदलाव कर सकते हैं।”

इसी के मद्देनजर बेंगलुरु में नागरिकों द्वारा किए शांतिपूर्ण प्रदर्शन के बाद, संयुक्त संरक्षण आंदोलन के सहयोग से जनसंग्राम परिषद ने 17 जुलाई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित कर यह घोषणा की है कि इस पारिस्थितिक रूप से विनाशकारी विधेयक को पारित न करने, और इसके लिए सरकार को स्पष्ट संदेश देने के लिए कर्नाटक के सभी जिलों में विरोध प्रदर्शन आयोजित किए जाएंगे।”

सेव मोल्लेम टीम के पारिस्थितिकी विज्ञानी और पर्यावरण कार्यकर्ता फराई दीवान पटेल ने कहा कि “गोवा के राया गांव के युवाओं ने अपने गांव में एक बड़े बारहमासी झरने और जंगल की जगह पर विरोध प्रदर्शन किया, जो इस नए संशोधन विधेयक के पारित होने पर अपना अस्तित्व खो देगा।

कैमोर्लिम के ग्रामीणों द्वारा अपने गांव के ढलान रुपी जंगलों पर भी प्रदर्शन किए गए, जिन्हें अभी तक अधिसूचित नहीं किया गया है। इन जंगलों को वो रियल एस्टेट के लगातार होते हमलों से बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। वहीं गोवा के दक्षिणी सिरे पर स्थित लोलीम गांव के लोग 40 लाख वर्ग मीटर में फैली, चार विशाल इको-पर्यटन परियोजनाओं, फिल्म सिटी और अन्य मेगा निर्माण परियोजनाओं से अपने जंगलों को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

उनका कहना है कि गोवा के लोग इस संशोधन विधेयक का विरोध कर रहे हैं क्योंकि वो गोवा के स्वदेशी समुदायों, अद्भुत वन्य जीवन, दुर्लभ पेयजल संसाधनों और करीब 12,000 साल पुरानी समृद्ध सभ्यता को नष्ट नहीं होने दे सकते।

फेडरेशन ऑफ रेनबो वॉरियर्स के महासचिव अभिजीत प्रभुदेसाई के मुताबिक, “गोवा के ग्रामीण पहले ही रियल एस्टेट, खनन, पर्यटन और उद्योगों के हमलों से जूझ रहे हैं और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ रहे हैं।

गोवा के 46 फीसदी जंगल अभी तक अधिसूचित नहीं किए गए हैं। केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाब्दिक अर्थ के अनुसार वनों के रूप में की उनकी व्याख्या ने अब तक गोवा के आधे वनों को बचाया है, जिसे इस संशोधन विधेयक द्वारा निरस्त करने का प्रस्ताव है।”

उनके अनुसार ऐसे में यदि यह विधेयक पारित हो जाता है, तो पूरे गोवा में अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए लड़ रहे जमीनी स्तर के ग्रामीण समुदाय अपनी लड़ाई हार जाएंगे।

यह संशोधन राष्ट्रीय महत्व की “रणनीतिक और सुरक्षा” संबंधी परियोजनाओं को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए बड़े वन क्षेत्रों को वन संरक्षण अधिनियम के दायरे से छूट देता है।

अरुणाचल प्रदेश के दिबांग स्थित इंडीजीनस रिसर्च एंड एडवोकेसी के सह-संस्थापक भानु ताटक का इस बारे में कहना है कि, “नियंत्रण रेखा के 100 किलोमीटर के दायरे में फैले जंगलों को एफसीए के दायरे बाहर करने से अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के साथ इन अमूल्य जंगलों में सड़कों के व्यापक, अप्रतिबंधित निर्माण को बढ़ावा मिलेगा।“

उनके मुताबिक हमारे सीमावर्ती क्षेत्रों में उत्तर पूर्व भारत, हिमालय, पश्चिमी घाट, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, रेगिस्तान, मैंग्रोव आदि में सबसे अधिक जैव विविधता से समृद्ध वन और संरक्षित क्षेत्र शामिल हैं, जो पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र हैं और कई लुप्तप्राय प्रजातियों सहित समृद्ध और स्थानिक जैव विविधता का घर हैं।

उनका कहना है कि “इन क्षेत्रों में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, रेड पांडा, स्नो लेपर्ड, कश्मीर स्टैग, तिब्बती मृग, मार्खोर, हूलॉक गिबन्स के साथ वनस्पतियों और जीवों की कई अन्य स्थानीय प्रजातियों का वास है। ये क्षेत्र कई झीलों और नदियों के जलग्रहण क्षेत्र भी हैं, जिनके विनाश से देश की जल सुरक्षा पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

इसके अलावा विकास परियोजनाओं में विस्फोट और खुदाई के साथ सुरंग बनाना, जलधाराओं को बांधना जैसी गतिविधियां शामिल होती हैं, जिससे हिमालयी क्षेत्रों के पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील परिदृश्य को अपरिवर्तनीय क्षति होती है। अरुणाचल और अन्य उत्तर पूर्वी राज्यों के जनजातीय समुदायों ने सदियों से जंगलों की रक्षा की है। ऐसे में हम भारत के निर्वाचित प्रतिनिधियों को हमारी पारिस्थितिक विरासत को नष्ट नहीं करने देंगे|”

जो संशोधन प्रस्तावित किए गए हैं उनमें से कई वन अधिकार अधिनियम के तहत अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को दी गई सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं, क्योंकि यदि भूमि वन संरक्षण अधिनियम के दायरे से बाहर आती है, तो वो प्रभावी रूप से ग्राम सभा से सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता को समाप्त कर देता है।

छत्तीसगढ़ के मोरगा गांव के नरेंद्र ने हसदेव अरण्य में प्रदर्शन करते हुए कहा कि, “वन संरक्षण संशोधन विधेयक, वन अधिकार अधिनियम 2006 की भूमिका को खत्म करने की कोशिश करता है, जो उस ऐतिहासिक न्याय को संबोधित करने के लिए बनाया गया था जो आदिवासियों को उनकी भूमि से हटाने के कारण झेलना पड़ा था। अब, वन संरक्षण संशोधन विधेयक एक और ऐतिहासिक अन्याय होगा।”

वहीं छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला का कहना है कि, “देश भर में आदिवासी और वनवासी समुदाय कॉर्पोरेट शोषण के खिलाफ अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए लड़ रहे हैं।

यह नया वन संरक्षण संशोधन विधेयक 5वीं अनुसूची, वन अधिकार और पेसा अधिनियम के तहत आदिवासियों को दिए कानूनी और संवैधानिक अधिकारों पर एक और हमला है। अब समय आ गया है कि सरकारों को यह एहसास हो कि वनों को स्थानीय समुदायों द्वारा बेहतर रूप से संरक्षित किया जा सकता है, जो अपने जीवन, जीविका और पहचान के लिए उन पर निर्भर हैं।”

किसके फायदे के लिए किया जा रहा कानून में बदलाव

वॉरियर मॉम्स की समीक्षा आचार्य, जिन्होंने कोलकाता में छोटे बच्चों के साथ प्रदर्शन किया था, उनका कहना है कि, “कोलकाता भयंकर गर्मी और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए संघर्ष कर रहा है।” “माओं के रूप में, हम वन संरक्षण अधिनियम 1980 की धाराओं में किए जा रहे बदलाव को लेकर बेहद चिंतित हैं क्योंकि इसका मतलब है कि हमारे शहर में जलवायु पर इसके दूरगामी और विपरीत प्रभाव होंगे।”

उनके अनुसार मैंग्रोव के जंगल बंगाल की खाड़ी से आने वाले चक्रवातों के लिए एक अवरोधक का काम करते हैं। इस नए संशोधन विधेयक के साथ, मैंग्रोव के नष्ट होने का खतरा है। इसकी वजह से पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों में तूफानों और तेज रफ्तार से चलने वाली हवाओं का मुकाबला करने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। ऐसे में होने वाली व्यापक तबाही से हमारे नौनिहालों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा।

आरे बचाओ आंदोलन के यश अग्रवाल का कहना है कि, “पुणे के लोगों ने अपने शहर से लगी पहाड़ियों और तटवर्ती जंगलों के प्रति अपनी एकजुटता दिखाने के लिए एसबी रोड पर वन कार्यालय के सामने विरोध प्रदर्शन किया था। मुंबईवासी आरे जंगल में एकत्र हुए, वहीं आदिवासी कर्जत के चिंचवाड़ी गांव में एकजुट हुए। वन संरक्षण अधिनियम संशोधन विधेयक के खिलाफ इन समुदायों ने गहरा आक्रोश व्यक्त किया है।

पुणे के एरिया सभा एसोसिएशन की हेमा चारी मदभुशी के मुताबिक, “बढ़ते शहरीकरण, गर्मी, भूजल की कमी और वायु प्रदूषण के साथ हर दिन जूझते महाराष्ट्र के लोग जंगलों को और अधिक खोने का जोखिम नहीं उठा सकते। आइए हम जीवन और स्थिरता पर धन और शक्ति को प्राथमिकता न दें। यदि सब कुछ बाढ़ में डूब कर नष्ट हो जाएगा तो इन आधारभूत संरचनाओं का क्या मतलब है।”

क्लाइमेट फ्रंट इंडिया की उपनिदेशक रुचिथ आशा कमल ने इस मुद्दे पर हैदराबाद में विरोध प्रदर्शन करते हुए कहा कि, “ऐसे समय में जब भारत जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों के प्रति दुनिया के सबसे संवेदनशील देशों में से एक है। हमारे प्राकृतिक जंगल और पारिस्थितिकी तंत्र ही हमारी एकमात्र ढाल हैं। युवा होने के नाते हम अपने भविष्य को लेकर बेहद चिंतित हैं और इस नए संशोधन विधेयक का विरोध करते हैं क्योंकि यह पूरे देश में वन भूमि के बड़े हिस्से को व्यवसायीकरण, औद्योगीकरण और आधाभूत संरचनाओं के विकास के लिए खोल देगा।”

उनके अनुसार इससे वन्यजीव के आवास के साथ-साथ लोगों के साफ हवा में सांस लेने के मौलिक अधिकार और देश की जल सुरक्षा पर भी गंभीर प्रभाव पड़ेगा। वो भी उस समय में जब हम बढ़ते जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता को होती हानि, जूनोटिक बीमारियों, वायु प्रदूषण और जल संकट जैसे गंभीर समस्याओं से जूझ रहे है| गौरतलब है कि इस युवा समूह के सदस्यों ने जम्मू के राइका स्थित पर्यावरण पार्क के सामने विरोध प्रदर्शन किया था।

फ्राइडेज फॉर फ्यूचर इंडिया के स्वयंसेवक दिशा रवि का कहना है कि, “हम अपने सांसदों से आग्रह करते हैं कि वे लोगों की इच्छाओं के खिलाफ न जाएं और इस लोकतंत्र में युवाओं के भविष्य को बचाएं, जिसे हम भारत कहते हैं।” बता दें कि इस युवा समूह ने लखनऊ और बेंगलुरु में प्रदर्शन किया था।

– ललित मौर्य

(डाउन टु अर्थ से साभार)

 

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