प्रस्तावित दंड संहिता के मायने

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— अरविन्द मोहन —

भारतीय न्याय संहिता’, ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ और ‘भारतीय साक्ष्य बिल’ नाम से जिन तीन नई विधायी पहल से नरेंद्र मोदी सरकार ‘भारतीय दंड संहिता’ को आमूल बदलने की पहल कर रही है वह अपने हिन्दी नामों और मंशा के चलते तो स्वागतयोग्य हैं, लेकिन अपने प्रावधानों को लेकर आशंका पैदा करते हैं। आशंका की वजह सरकार की मंशा नहीं, उसकी सोच और इस पहल की दिशा है। उम्मीद करनी चाहिए कि जब इस पहल पर संसद में बहस होगी और कानून अपने अंतिम रूप में पास होगा तो कई बातें बदली हुई होंगी।

कुछ चर्चा बाहर मीडिया में होने लगी है, कुछ और होगी ही। तब भी कहना होगा कि इस पौने दौ सौ साल पुराने कानून को बदलने की न तो पूरी तैयारी हुई है, न पर्याप्त चर्चा हो रही है। मोदी सरकार पुराने कानूनों को बदलना अपना एक काम मानती है, जो अच्छी बात है, लेकिन उसमें इतने लंबे समय के अनुभव को शामिल न किया जाए यह चिंता की बात है- खासकर वैसे मामले में जिससे हर किसी का पाला पड़ता है, सीधे या परोक्ष रूप से।

जी हां, सरकार ने ‘भारतीय दंड संहिता’ को बदलने की पहल की है जिसका ‘दंड’ अपराध को रोकने और अपराधी को सुधारने के जितने काम आता है, उसका ‘डंडा’ उससे ज्यादा सबको डराने के काम आता ही है। थाना, कचहरी ही नहीं इन मामलों वाला गृह मंत्रालय भी हमारी नजर में खौफ और शासन करने वालों के ‘इकबाल’ से ही ज्यादा चलता है। जब 1837 में लार्ड मैकाले ने इस कानून की पहल की थी तब उनके लिए खौफ और इकबाल लक्ष्य थे, बेंथम के दर्शन के अनुसार शासन को खड़ा रहने के लिए तरह-तरह के अपराधों के लिए खास तरह के दंड जरूरी थे और विभिन्न रजवाड़ों और मजहबों द्वारा चलाई जा रही न्याय प्रणालियों में एकरूपता लाने की जरूरत थी।

वर्ष 1860 में दंड संहिता अंतिम रूप में आई और तब से अब तक इसमें पचासों संशोधन की जरूरत अंगरेजों को और हम भारतीयों को हुई। जेल को सुधारगृह, किशोर कैदियों को अलग रखने की व्यवस्था, सजा का लक्ष्य अपराधी को सुधारना, फांसी की सजा पर रोक, दहेज हत्या, पुलिस हिरासत से तकलीफ, राजद्रोह के प्रावधान पर सवाल से लेकर मानवाधिकार के सवालों को उठाया गया है या कानून में बदलाव हुए हैं। इस बीच दुनिया में ‘दंड’ की जगह व्यवहार सुधारने और ज्यादा-से-ज्यादा वित्तीय जुर्माने या दोषियों पर दूसरे दबाव बनाने (जैसे- वाहन लाइसेंस स्थगित या रद्द करना, पासपोर्ट पर सख्ती, पेशा वाला कार्ड रद्द करना) के काम हुए हैं।

दूसरी तरफ, हमने डंडा से सुधार (हालांकि हमने भी इस बीच पुलिस के ‘थर्ड डिग्री’ इलाज पर रोक लगाई है), वर्दी से खौफ, सुरक्षा गार्डों से इज्जत, ब्लैक कैट से राजनैतिक शान की व्यवस्था इतनी मजबूत कर ली है कि यह हमारे दिमागों में बैठ गई है। नए कानून के हिन्दी नाम में ‘न्याय’ को प्रमुखता जरूर दी गई है, लेकिन पुलिस हिरासत की संभावित अवधि पंद्रह दिन की जगह साठ दिन कर दी गई है, फांसी की सजा को बरकरार रखा गया है, राजद्रोह के प्रावधानों को और सख्त किया गया है और ‘माब लिंचिंग’ (जिसका सीधा प्रावधान पहली बार हुआ है) के लिए सामान्य हत्या से कम सजा का प्रावधान किया गया है। ये बातें दंड की जगह न्याय और सुधार को प्राथमिकता दिए जाने की मंशा को हल्का बनाती हैं।

राजद्रोह वाला मामला तो खास है क्योंकि जब सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों इसे समाप्त करना चाहा तो सरकार ने अदालत में भरोसा दिलाया था कि वह खुद इस पर पुनर्विचार कर रही है और वह जो नया कानून लाने जा रही है उसमें इसकी जरूरत नहीं रहेगी। अब जो नया कानून लाया जा रहा है उसमें सरकार के खिलाफ असंतोष वाली बात को तो नहीं रखा गया है, लेकिन देश की एकता और अखंडता वाले प्रावधानों को सख्त किया गया है।आपराधिक षड्यंत्र का प्रावधान अंगरेजी हुकूमत ने 1913 में किया था और आज की सरकार को भी यह जरूरी लगता है, जबकि वह खुद राष्ट्रद्रोह और शासनद्रोह का फर्क दिखाना चाहती है।

माना जाता है कि मुकदमों की बाढ़ रोकने की जिस असली इच्छा से कानून लाया गया है, पुलिस हिरासत वाली नई व्यवस्था उस पर पानी फेर देगी। अभी पुलिस ज्यादा-से-ज्यादा पंद्रह दिन की हिरासत और वह भी पहले पंद्रह दिन ही किसी अभियुक्त को पास रख सकती थी- पूछताछ और जानकारियां जुटाने के लिए। इस बीच जमानत का भी प्रावधान है, पर पुलिसवाले उसे टलवाने का प्रयास करते थे। अब पुलिस पहले सात दिनों में कभी भी हिरासत मांग सकती है और इस आधार पर अदालत से अभियुक्त को जमानत न देने की गुहार लगा सकती है।

अपराधी भाग जाएगा, जांच को प्रभावित करेगा- जैसे तर्क पहले पंद्रह दिनों के लिए इस्तेमाल होते थे, अब साठ दिनों के लिए होंगे। इसमें भी अपराधी के चरित्र के आधार पर दो वर्ग बनाए गए हैं, लेकिन जब पुलिस का असर ज्यादा लंबे समय तक रहेगा तो मामले लंबा खिंचेंगे ही। हत्या और गैर-इरादतन हत्या की परिभाषाएं भी विवादास्पद हैं और इनसे सजा वाला पक्ष प्रबल होता है, सुधार या रोक वाला पक्ष नहीं।

हम पत्रकार भी कानून की रिपोर्टिंग करते हैं, खूब करते हैं और कई बार इसी चक्कर में उसकी चपेट में भी आते हैं। बल्कि इधर तो हर अखबार, हर चैनल में अदालती रिपोर्टिंग कई गुना बढ़ गई है। ‘अदालत की अवमानना’ नामक प्रावधान ऐसा है जिसमें मुक्ति की कोई राह नहीं है। अदालत अपने सारे फैसलों पर बार-बार पुनर्विचार करती है, लेकिन अवमानना के मामले में पत्रकारों के लिए कोई राहत नहीं है।

ऐसा ही एक मसला मानहानि का भी है और संपादकों (जिन पर खबर छापने की वैधानिक जिम्मेवारी होती है) का काफी सारा वक्त और काफी ऊर्जा अदालती चक्करों में जाती है। इस बार इनसे बचाव का कोई हिसाब नहीं रखा गया है, जबकि मानहानि कानून में दो-तीन बदलाव किए गए हैं। दूसरी ओर, ‘हेट स्पीच’ के मामले में कोई बदलाव नहीं है। समलैंगिकता, विवाहेतर संबंध और इनसे पैदा संतानों के अधिकार, ऐसा संबंध रखने वाली महिला के अधिकार को लेकर इधर काफी अच्छे और महत्त्वपूर्ण निर्णय सुप्रीम कोर्ट से आए हैं, पर व्यभिचार पर वही ईरानी नजरिया दिखाता है जिसकी दुनिया आलोचना करती है। (सप्रेस)

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