नफरत की राजनीति को नहीं रोकेंगे तो यह देश नहीं बचेगा – डॉ सुनीलम

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(पिछले दिनों कोटा के कृषि सभागार में आयोजित शांति सद्भाव सम्मेलन में मुख्य वक्ता के रूप में मध्यप्रदेश से पधारे समाजवादी चिन्तक, किसान संघर्ष समिति के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. सुनीलम से यह बातचीत संजय चावला ने की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के कुछ अंश।)

# डॉ साहिब, सबसे पहले तो मैं आपके नाम सुनीलम के बारे में पूछना चाहता हूँ. सुनील नाम तो हमने खूब सुना है पर सुनीलम? यह संस्कृत का प्रभाव भी नहीं लगता क्योंकि प्रथमा विभक्ति में तो सुनिलः बनेगा न कि सुनीलम।

मेरा वास्तविक नाम सुनील मिश्र है। पर हम समाजवादियों ने निर्णय लिया था कि हम अपने नाम के आगे जातिसूचक सरनेम नहीं लगाएंगे। किन्तु मेरे जन्म के समय सुनील गावसकर इतने पोपुलर थे कि कई बच्चों के नाम सुनील रखे जा रहे थे। तो मैंने सुनीलम रख लिया। कोई और विशेष बात नहीं है।

# पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के एक प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका द्वारा एक मुस्लिम छात्र को हिन्दू बच्चों के माध्यम से भरी कक्षा में पिटवाने की घटना को आप किस रूप में देखते हैं?

1925 में स्थापित आरएसएस का लक्ष्य देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना था। वे अंग्रेजों से बड़ा दुश्मन देश में रहने वाले मुस्लिम और क्रिश्चियन को मानते थे। बिलकुल वैसे ही जैसे हिटलर की अपने देश में नीति थी। तो उन्होंने तब से ज़हर बोने का काम किया। इसी का असर है कि आज उस टीचर को बच्चे बच्चे नहीं दीखते बल्कि हिन्दू और मुसलमान दीखते हैं। इसी प्रकार एक आरपीएस चलती ट्रेन में गोली चलाकर चुन-चुन के मुस्लिम यात्रियों को टारगेट कर रहा है और फिर योगी और मोदी के नारे लगा रहा है तो हम समझ सकते हैं कि यह मोटिवेशन उसे कहाँ से मिल रहा है। इसके बीज कहाँ बोये गए हैं। तो यह जो नफरत की राजनीति है इससे हमारा देश बदनाम हो रहा है। जब नफरत को आप राजनीति का हिस्सा बना लेते हैं तो मणिपुर जैसी घटना होती है। महिलाओं को नंगा करके घुमाया जाता है। सिर्फ इसलिए कि वे एक विशेष समुदाय की महिला हैं।

अल्पसंख्यकों को टारगेट करने का जो प्रयोग वहां चल रहा है उसे ही पूरे देश में लागू करने की योजना है। इसीलिए मैं आज यहाँ शांति सद्भाव सम्मेलन में आया हूँ ताकि इस पर बात हो सके। यदि हम कुछ नहीं करेंगे तो यह देश नहीं बचेगा। आजादी के समय तो मुट्ठी भर मुसलमान थे तब आप कुछ नहीं कर पाये। अब तो तीस करोड़ मुसलमान हैं। उनका आप क्या करेंगे? आप केवल नूंह जैसी घटना ही कर सकते हैं। आप केवल कत्लेआम कर सकते हैं। गुजरात जैसी घटना कर सकते हैं। आप उनपर बुलडोजर चलवा सकते हैं। फिर इसपर रोक लगाने वाले पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के जज का आपको तबादला करना पड़ता है। तो इस तरह नफरत की भावना लोगों के दिलोदिमाग में गहरे पैठ जमा चुकी है।

आज ही आरएसएस के मुखपत्र में लेख छपा है जिसमें फिल्म अभिनेता आमिर खान को राष्ट्रद्रोही बताया गया है क्योंकि तुर्की के राष्ट्रध्यक्ष की पत्नी के साथ उसका फोटो आया है। उसने सत्यमेव जयते जैसा सीरियल और लगान जैसी उत्कृष्ट फिल्म बनायीं। वो तो देशद्रोही हो गया सिर्फ इसलिए कि वह मुसलमान के घर पैदा हुआ। एक कलाकार के रूप में आप उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हो। हम जब किसान आन्दोलन चला रहे थे तो इन्होंने हमें भी देशद्रोही, आतंकवादी न जाने क्या क्या कहा। तो इनकी हिन्दू राष्ट्र की जो फिलोसोफी है उसमें सवाल करना मना है। यदि आप देश और संविधान की बात करते हैं तो आप एंटी नेशनल या अर्बन नक्सल हो जाते हो। इसके विपरीत यदि आप हिन्दू राष्ट्र की बात करते हो तो आप देशभक्त हैं। और विडम्बना यह है कि यह बात वे लोग कर रहे हैं जिनका देश की आजादी के आन्दोलन में कोई योगदान नहीं था। जिन्होंने हमेशा अंग्रेजों का साथ दिया वे लोग देश का इतिहास बदलने का काम कर रहे हैं। अब तो देशवासियों को तय करना है कि वे नफरत फैलाने वालों के साथ चलना चाहते हैं या मोहब्बत की बात करने वालों के साथ हैं। मोहब्बत के साथ चलेंगे तो यह देश बचेगा, नहीं तो टूटेगा।

# इधर देश में लागू की गयी नई शिक्षा नीति 2020 में तो बात की गई है कि इसके माध्यम से बच्चों में क्रिटिकल थिंकिंग, प्रश्न करने की स्पीरिट बढ़ाना चाहते हैं और आप कह रहे हैं कि इन्हें प्रश्न करने वाले ही पसंद नहीं है। इसमें आपको कोई विरोधाभास नहीं दीखता?

आपने अभी देखा कि अशोका यूनिवर्सिटी में एक प्रोफेसर को अपनी नौकरी इसलिए गंवानी पड़ी क्योंकि उसने एक शोध लेख ऐसा लिख दिया था जो शासकों को माफिक नहीं था। ऐसी घटनाएं लगभग हर संस्थान में हो रही हैं। आप स्वतंत्र अभिव्यक्ति को चैलेंज करते हैं तो आप संविधान को चैलेंज करते हैं, आप राष्ट्रीय ग्रन्थ को चेलेंज करते हैं। पर उनके पास सत्ता है, ईडी है, सीबीआई है। जो चाहें जब चाहें वैसा कर सकते हैं। इधर हमारी न्यायपालिका इतनी निरीह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद संजय मिश्रा को एक्सटेंशन पर एक्सटेंशन दिया जा रहा है। अब सरकार की योजना एक नई एजेंसी बनाने की है जिसमें उसी संजय मिश्रा को हेड बना दिया जाएगा। तब कोर्ट भी कुछ नहीं कर पाएगा।

# सरकार आईपीसी, आईईए तथा सीआरपीसी को कोलोनियल लेगेसी के नाम पर हटाकर नये ‘भारतीय’ कानून ला रही है। इसके पीछे उनकी क्या मंशा है?

इसको इस तरह से समझिए। जैसे यूएपीए का कानून है उसे और ज्यादा सख्ती से इन नये कानूनों में डाल दिया गया है। वास्तव में क्या है कि यूएपीए बदनाम हो गया वैसे ही जैसे कभी मीसा बदनाम हो गया था, टाडा बदनाम हो गया था। तो उन्हें हटाना पड़ा। तो यूएपीए के कंटेंट को नए नियमों में डाल दिया गया है, नए नाम के साथ। शराब पुरानी है बोतल नई।

तीन कृषि कानून जब आए थे तो वे अंग्रेजी में थे। उन्हें समझना, उनके पीछे के षड्यंत्र को भांपना इतना आसान नहीं था। कम पढ़े-लिखे किसान इतनी जल्दी कैसे भांप गए? जबकि नयी शिक्षा नीति और नए कानूनों को भी उसी प्रकार शब्दजाल में ढाला गया है। हमारे बुद्धिजीवी भी सरकार की असली मंशा को इतनी जल्दी नहीं भांप सके हैं। ऐसा कैसे हुआ?

किसान को जमीन सबसे ज्यादा प्यारी है। जान से प्यारी है। उसे यह बात तुरंत समझ में आ गयी कि ये जो कोंट्रेक्ट फार्मिंग है उसके जरिये हमारी जमीन को कारपोरेट के द्वारा कब्जाये जाने की योजना है। क्योंकि पूरी दुनिया का अनुभव उनके पास है। इसे ताकत पंजाब से मिली। पंजाब के जो किसान हैं वो दुनिया के चालीस देशों में खेती करते हैं। वहां पर यह सब हो चुका है। उन्हें मालूम था किस तरह से कंपनी आती है। वे जान गए कि अडानी अंबानी अब इस सेक्टर में प्रवेश करेंगे। वे देख रहे थे कि अडानी के इतने सायलोस बन गए हैं जिनमे असीमित भंडारण किया जा सकता था। पहले किसानों ने वहां धरना दिया तीन महीने तक, आन्दोलन तो बाद में शुरू हुआ। फिर हम दिल्ली आए। सरकार का जो अहंकार था उसे हम तोड़ने में कामयाब हुए। हरियाणा सरकार ने कहा था कि कोई परिंदा भी बार्डर पार नहीं कर पाएगा। इसे हमने चुनौती माना और परिणाम आपने देखा।

# आप शांति सद्भाव सम्मेलन में कोटा पधारे हैं। कोटा की जनता के नाम कोई सन्देश?

कोटा की संस्कृति समन्वय की संस्कृति है। गंगा जमुनी तहजीब की संस्कृति है। सह अस्तित्व की है। आज पूरा देश कोटा की ओर देखता है क्योंकि कोटा अब एजुकेशन हब बन गया है। देश भर से छात्र-छात्रा यहाँ आकर पढ़ते हैं। उनके माँ-बाप सोचते हैं कि उनका बच्चा कोटा जाएगा तो उसका करियर बन जाएगा। अगर वास्तव में वे ऐसा चाहते हैं तो वे नहीं चाहेंगे कि उनके बच्चों के दिमाग में साम्प्रदायिकता का जहर, धार्मिक कट्टरता का जहर प्रवेश करे। उन्हें यह यह सुनिश्चित करना होगा। अगर नूंह जैसी स्थिति कोटा में बन जाए तो कोई माँ-बाप अपने बच्चे को कोटा भेजेगा क्या? सब लोग शांति चाहते हैं। अपने बच्चे का सुरक्षित जीवन चाहते हैं, तो कोटावासियों को भी देखना होगा कि यह शहर शांति और सद्भावना का केंद्र बन करके रहे। तो साफ है कि आगामी चुनाव में कोटावासी ऐसे प्रतिनिधियों को न चुनें जो नफरत फैलाने का काम करते हैं। ये वो लोग हैं जो अपने बच्चों को तो पढ़ने विदेश भेजते हैं और अपने कार्यकर्ताओं और उनके बच्चों को दंगाई बनाते हैं। ऐसे बच्चे तो अंततः जेल ही जाएंगे। तो कोटावालों को ऐसे लोगों के हाथ मजबूत करने होंगे जो शांति और सद्भाव की बात करते हैं। समाज में अमन-चैन चाहते हैं।


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