अनूठे थे कर्पूरी ठाकुर

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कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी 1924 - 17 फरवरी 1988)
कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी 1924 - 17 फरवरी 1988)

— हेमंत —

ह आमजन के साथ खास लोगों की भी स्वीकृत मान्यता है कि भारत की वर्तमान ‘गठबंधन की राजनीति’ का बीजारोपण उस काल में हुआ था, जब बिहार में पहली बार सत्ता-राजनीति की जमीन पर ‘संविद सरकार’ की फसल पैदा हुई थी। उसी बीज की नई किस्मों (हाई ब्रीड) की आज भी पैदावार जारी है।

यह सवाल आज भी कायम है और आगे भी रहेगा कि वर्तमान सत्ता-राजनीति के किस अंश को ‘गैरकांग्रेसवाद’ के उस इतिहास से जोड़ा जाय? क्योंकि, एक तरफ, उस वक्त गैरकांग्रेसवाद की राजनीति में शामिल संघी-भाजपाई धड़ा (एनडीए) केंद्र की सत्ता पर काबिज होकर आज खुद को गैरकांग्रेसवाद का एकमात्र असली योद्धा साबित करने की धुन में उसी शैली में नाच रहा है, जिसे 58 साल से कांग्रेसवाद नाम से जाना जाता रहा है। दूसरी तरफ, उस वक्त गैरकांग्रेसवाद की राजनीति में शामिल तमाम गैरभाजपाई धड़े, जो आज कांग्रेस के साथ विपक्ष (INDIA) में हैं, भाजपा के कांग्रेसवाद की प्रतिच्छाया जैसे वर्तमान राजनीतिक नृत्य को कांग्रेसवाद की संज्ञा देने से बचते हुए, अपने आप को गैरभाजपावाद के सबसे बड़े योद्धा साबित करने में लगे हुए हैं।

वर्ष 1965 से शुरू सत्ता-राजनीति को गैरकांग्रेसवाद के दौर के रूप में चिह्नित किया जाता है, जब सरकार बनानेवाली उस कांग्रेस-प्रणाली के विघटन का सूत्रपात हुआ, जिसकी निरंतरता ब्रिटिश राज में 1937 के चुनाव से चली आ रही थी। सन् 67 से पूर्व कांग्रेस में नेहरूवाद की माया का अवसान (मोहभंग) हुआ और बाद में ‘इंदिरावाद’ का उत्थान हुआ, जो 1973 आते-आते खुद को देश की शीर्षस्थ सत्ता-राजनीति का एकमात्र विकल्प घोषित करने लगा।

आजादी के पंद्रह साल बाद ही भारतीय लोकतंत्र की इतिहास-यात्रा में राह के पत्थर-सा एक सवाल उठा था। आज 21वीं सदी के दो दशक बाद वह सवाल पहाड़ जैसा बन गया है कि जो शासक प्रदेश या देश की ‘जनता’ की आधी-अधूरी स्वीकृति के बाद एक अवधि विशेष के लिए सत्ता में आते हैं और मिट जाते हैं या फिर जनता के विरोध और अस्वीकृति की परवाह किए बिना भी सत्ता पर तब तक काबिज रहते हैं, जब तक कोई विध्वंसात्मक आंदोलन या संघर्ष नहीं होता या कोई ऐसी घटना नहीं होती जो जनता से भारी कीमत वसूलती है – क्या उन शासकों को देश की सार्वकालिक राजनीति का प्रतिमान माना जा सकता है? ‘लोक’ द्वारा किसी व्यक्ति को राजा या शासक के रूप में स्वीकार किया जाना उसकी अपनी यानी लोक की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है? जैसे, ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’, जैसा नारा। और अब ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ का नारा।

गैरकांग्रेसवाद का आगाज

1965 में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में ‘संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी’ ने कांग्रेस सरकार की जन-विरोधी एवं छात्र-विरोधी नीतियों के विरोध में सशक्त आन्दोलन शुरुआत की। राज्य के अधिकांश विरोधी दल इस आन्दोलन के साथ हो गये। कांगेस सरकार के विरुद्ध सम्पूर्ण राज्य में वातावरण बनने लगा। इसी क्रम में 9 अगस्त को पटना बंद एवं शाम में प्रदर्शन का आयोजन किया गया, जिसकी अगुआई राममनोहर लोहिया को करनी थी।

पटना बंद पूर्णतः सफल रहा। शहर में कई जगह लाठियां, गोलियां चलीं। शहर में कर्फ्यू लागू हो गया। इसके बावजूद राममनोहर लोहिया ने पटना के गांधी मैदान में एक विशाल सभा को संबोधित किया। रात में लौटते वक्त पटना जंक्शन पर लोहिया को गिरफ्तार कर लिया गया। पटना से प्रकाशित ‘सर्चलाइट’ के सम्पादक के.एम. जार्ज भी गिरफ्तार कर लिये गये।

इस दमनात्मक कार्रवाई का विरोध करने के लिए 10 अगस्त, 1965 को पटना के गांधी मैदान में धारा 144 एवं कर्फ्यू को अमान्य करते हुए एक आमसभा का आयोजन हुआ। आमसभा में हजारों की भीड़ जमा थी। उसी दौरान पुलिस ने अचानक मंच पर बैठे हुए नेताओं को निशाना साधते हुए हमला बोल दिया। इस हमले में कर्पूरी ठाकुर के बायें हाथ की हड्डी टूट गयी। रामानंद तिवारी और कम्युनिस्ट नेता चन्द्रशेखर सिंह समेत कई अन्य नेताओं को गंभीर चोटें आयीं।

उस समय कृष्णवल्लभ सहाय राज्य के मुख्यमंत्री थे। लाठी-चार्ज की घटना पर अगले दिन बिहार विधानसभा में जोरदार हंगामा मचा। मुख्यमंत्री सहाय ने कर्पूरी ठाकुर समेत अन्य सभी लोगों पर सरकारी परिसम्पतियों को नष्ट करने का आरोप लगाते हुए कहा–“श्री रामानंद तिवारी, श्री कर्पूरी ठाकुर एवं अन्य व्यक्तियों पर लाठी-प्रहार के परिणामस्वरूप जो जख्म आये थे, वे साधारण हैं…।”

घायल कर्पूरी ठाकुर ने लोकतंत्र की मर्यादा के तहत वाणी पर संयम रखते हुए कहा–“गांधी मैदान में 10 अगस्त को हमलोगों पर हुए लाठी-प्रहार के संबंध में मुख्यमंत्री जी ने 11 अगस्त को इस सदन में जो बयान दिया, उसमें कई गलतबयानियां हुई हैं। अध्यक्ष महोदय, मुख्यमंत्री ने कहा है कि उस दिन पुलिस ने हमलोगों पर जो जुल्म ढाया, वह सर्वथा उचित था। हम इस मुख्यमंत्री से किसी दूसरी चीज की उम्मीद भी नहीं कर सकते हैं। हमारा यह निश्चित मत है कि इस मुख्यमंत्री से यह आशा करना कि वे असत्य को असत्य, अनुचित को अनुचित और अन्याय को अन्याय कहेंगे, उसी तरह व्यर्थ है जिस तरह पानी को मथकर घी निकालने और बालू को पेरकर तेल निकालने की आशा करना व्यर्थ है।

कर्पूरी ठाकुर की आवाज में जनता बोली 1967 के आम चुनाव में। आम चुनाव में कांग्रेस को जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा। केन्द्र में तो वह किसी तरह सरकार बनाने में कामयाब हुई। लेकिन बिहार समेत आठ राज्यों में वह बहुमत खो बैठी। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बिहार में 69 जगहों पर जीतकर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आयी। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता कर्पूरी ठाकुर थे ही। इसलिए बिहार की जनता ने मान लिया कि वही मुख्यमंत्री बनेंगे।

समाजवाद का सिद्धांत : गैरकांग्रेसवाद की रणनीति

समाजवादी संस्कृति की तलाश में चले कर्पूरी ठाकुर ने गैरकांग्रेसवाद की रणनीति स्वीकार की। रणनीति पर तेजी से अमल किया – हर तरह की कीमत चुकाई।

पहली कीमत यह कि दूसरे के लिए मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया। और जो पद मिला, उसका जनता की तकदीर बदलने के लिए कम से कम समय में अधिक से अधिक इस्तेमाल करने का इतिहास रच दिया।

बिहार में गैर-कांग्रेसी दलों के जोड़ से सरकार बनाने की कोशिशें शुरू हुईं, तो सफलता और विफलता की सीमा-संभावना के आकलन के साथ कांग्रेसवाद के खिलाफ बनायी गयी रणनीति पर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर ने अमल किया। अथक प्रयास से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ को ‘संविद सरकार’ में शामिल होने के लिए राजी किया।

संयुक्त विधायक दल में शामिल अधिकांश घटक दलों के विधायक कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में थे। लेकिन जन-क्रांति दल के नेता महामाया प्रसाद सिन्हा ने मुख्यमंत्री पद पर दावा ठोंक कर संविद सरकार बनाने की कोशिशों पर संभावना के ‘जोड़’ की बजाय संदेह के ‘घटाव’ का निशान लगा दिया।

चुनव में जन-क्रांति दल को 29 सीटें मिली थीं, जो संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की 69 की संख्या की आधी भी नहीं थी। लेकिन महामाया प्रसाद सिन्हा ने पटना पश्चिम विधानसभा सीट से मुख्यमंत्री कृष्णवल्लभ सहाय को पराजित किया था। सो उनकी पार्टी की मांग थी – ‘मुख्यमंत्री कृष्णवल्लभ सहाय को हराने वाले इस महामाया प्रसाद सिन्हा को कम से कम एक घंटे के लिए भी मुख्यमंत्री बना दो!

कर्पूरी ठाकुर ने निर्द्वन्द्व भाव से मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी। बिना किसी ना-नुकुर के, मुख्यमंत्री पद के लिए महामाया प्रसाद सिन्हा के नाम पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी। क्योंकि उनकी राजनीतिक यात्रा का प्रथम और अंतिम संकल्प यह था कि समाजवादी संस्कृति पैदा करने के लिए वह एक घंटा तो क्या, जीवन भर के लिए सत्ताधीशों के बजाय संघर्षशील जनता की कतार में खड़े रह सकते हैं।

तब 33-सूत्री न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर बिहार के इतिहास में पहली बार 5 मार्च, 1967 को महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में गैरकांग्रेसी दलों का गठबंधन सत्तासीन हुआ। कर्पूरी ठाकुर को उप-मुख्यमंत्री का पद मिला, साथ में वित्त और शिक्षा विभाग दिये गये।

अपनी इस समझ के प्रति कर्पूरी ठाकुर में कोई संदेह नहीं था कि गैरकांग्रेसवाद समाजवाद का विकल्प नहीं है। वह कांग्रेसवाद के सिक्के का ही दूसरा पहलू है ‘हेड’ और ‘टेल’ की तरह। एक पहलू दूसरे को पराजित करेगा, लेकिन मारेगा नहीं, क्योंकि दूसरे के बिना पहला भी जिंदा नहीं रहेगा। दूसरे को मारकर कौन अपनी मौत को न्योतना चाहेगा?

इसलिए कर्पूरी जानते थे कि संविद सरकार कुल मिलाकर एक ही संस्कृति के दो पक्षों के बीच के ऐसे सत्ता-खेल का परिणाम है, जो हारने वाले पक्ष में विफलता के ठीकरे एक दूसरे के सर फोड़ने की प्रवृत्ति को उकसाता है और जीतने वाले पक्ष में सत्ता की सूखी हड्डी को भी अधिक से अधिक अकेले चूस लेने की आग को हवा देता है। पराजित पक्ष में जनसंघर्ष के नाम पर अपने अस्तित्व की रक्षा की दुरभिसंधियां चलती हैं। विजयी पक्ष में जनता की भलाई के नाम पर अपनी-अपनी (निजी) भलाई की होड़ मच जाती है। ऐसे खेल का परिणाम जो भी हो, उसे अप्रत्याशित नहीं माना जा सकता।

संविद सरकार का गठन और जय-जयकार होते ही यही हुआ। एक तरफ प्रतिपक्षी कांग्रेस के दिग्गजों पर राजनीतिक अवसान की तलवारें लटक गयीं। दूसरी तरफ सरकार में शामिल घटक दलों के दिग्गजों की महत्वाकांक्षाएं आपस में टकराने लगीं। कुर्सी पर प्रतिपक्ष के गुरिल्ला प्रहार के बीच सत्तापक्ष में अंदरूनी मारामारी शुरू हो गई।

यानी यह तय हो गया कि सरकार अल्पजीवी है। ऐसी सरकार में कर्पूरी जी जैसे व्यक्ति इसके सिवा क्या सोचते कि सामूहिक क्षमता और अधिकार होने के बावजूद जो काम बरसों में संभव नहीं होता, उसे व्यक्तिगत स्तर पर कुछ दिनों में कर जाओ, भले इससे अल्पजीवी सरकार की उम्र कुछ और घट जाय!

कर्पूरी जी ने इसीलिए फैसले जल्द किये और उन पर अमल के और भी तेज कदम उठाये। जो सही हो और जिस पर समय पर अमल हो वही फैसला युगान्तरकारी होता है!

लिफ्ट सबके लिए

उप-मुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर पहली बार पुराना सचिवालय स्थित अपने कार्यालय कक्ष में जाने के लिए चले। ऊपरी तल पर ले जाने के लिए उन्हें लिफ्ट के पास ले जाया गया। लिफ्ट के ऊपर अंग्रेजी में लिखा था– “Only for Officers”। यानी केवल राजपत्रित अधिकारी ही लिफ्ट का प्रयोग कर सकते हैं! शेष कर्मचारियों का आना-जाना सीढ़ियों से।

कर्पूरी ठाकुर सीढ़ियों से ऊपर पहुंचे। अपने कक्ष में गये और पहला आदेश जारी किया- ‘आम लोग भी लिफ्ट का प्रयोग कर सकते हैं।’

वरीय अधिकारियों के प्रतिरोध के बावजूद तब से आम कर्मचारी के साथ-साथ सचिवालय में काम से आने वाले अन्य लोग भी लिफ्ट का प्रयोग करने की आजादी पा गये!

अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म

शिक्षा मंत्री की हैसियत से कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर उसे वैकल्पिक विषय बनाने का आदेश जारी किया! इस फैसले ने बिहार में सदियों से शिक्षा और सम्मान से वंचित सामाजिक जीवन पर जादुई असर डाला।

अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण, गांव-देहात के लाखों बच्चे मैट्रिक की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते थे। ज्यादातर पिछड़े-दलित। ये ‘नन-मैट्रिक’ होकर पहले कदम पर ही उच्च शिक्षा से वंचित हो जाते। एक विदेशी भाषा की अनिवार्यता राज्य में शिक्षा के प्रचार-प्रसार को सीमित कर देती है! अपने ही समाज के युवक-युवतियां केवल अंग्रेजी में अनुत्तीर्णता के कारण ऊंची शिक्षा के वरदान से वंचित कर दिये जाएं? क्या यह आजाद देश के सत्ताधीशों की गुलाम मानसिकता का प्रमाण नहीं?

कर्पूरी ठाकुर के इस निर्णय की ‘कर्पूरी डिवीजन’ कहकर खिल्ली उड़ायी गयी। समाज के हर वर्ग में काबिज – राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षिक संपन्नता से लैस – ब्राह्मणवादी सत्ता ने कर्पूरी ठाकुर को शिक्षा-जगत में अराजकता फैलाने वाला करार दिया। अधूरी योग्यता और अधकचरी क्षमता रखनेवालों ने कर्पूरी जी के निर्णय का भीषण विरोध किया। उनका उपहास करने के लिए जगह-जगह चर्चा चलाई और नाटक खेले। लेकिन जल्द ही वे स्वयं उपहास के पात्र हो गये।

सातवीं कक्षा तक निःशुल्क पढ़ाई

कर्पूरी ठाकुर ने दूसरा महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया – सातवीं कक्षा तक निःशुल्क पढ़ाई की सुविधा का। उन दिनों कक्षा 6 से ही सरकारी विद्यालयों में छात्रों को ढाई से तीन रुपये प्रतिमाह फीस भरनी पड़ती थी। इस ढाई-तीन रुपये की कीमत तब ज्यादा थी और गरीब छात्र इसका वहन नहीं कर पाने के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने के लिए विवश हो जाते थे। वे ‘ड्रॉप आउट’ हो जाते थे!

कर्पूरी ठाकुर के इस निर्णय ने ऐसे छात्रों को पढ़ाई के प्रति उत्साहित कर दिया। कर्पूरी ठाकुर के शब्दों में–“यह फैसला पिछड़ों, गरीबों और साधनहीनों को हीनता की ग्रन्थि से मुक्त होने का अवसर प्रदान करने के लिए किया गया।”

भ्रष्टाचार पर प्रहार

संविद सरकार के गठन के कुछ ही माह बाद उप-मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति टी.एल.वेंकटरामन की अध्यक्षता में एक-सदस्यीय आयोग का गठन कर दिया – अपदस्थ मुख्यमंत्री के.बी. सहाय और राज्य के अन्य मंत्रियों के भ्रष्टाचार की जांच के लिए।

कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में संसोपा ने सन् 1967 के आम चुनाव के समय ही यह घोषणा कर दी थी कि अगर वह सत्ता में आएगी, तो केबी सहाय और अन्य मंत्रियों के भ्रष्टाचार की जांच कराएगी। जांच-आयोग का गठन 1 अक्टूबर, 1967 को हुआ और उसने चार माह में अपना काम पूरा कर अपनी अंतिम रिपोर्ट 5 फरवरी, 1970 को सौंप दी। आयोग की रिपोर्ट ने बिहार सहित पूरे देश में सनसनी फैला दी।
जांच के दायरे में सिर्फ अपदस्थ मुख्यमंत्री केबी सहाय नहीं, बल्कि और भी कई दिग्गज आए–मंत्री श्री महेश प्रसाद सिन्हा, मंत्री श्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, मंत्री श्री रामलखन सिंह यादव, मंत्री श्री राघवेन्द्र नारायण सिंह और मंत्री श्री अम्बिका शरण सिंह जैसे दिग्गज!
बिहार में संविद सरकार और कर्पूरी ठाकुर ज़िंदाबाद के नारे गूंजने लगे।

लेकिन यूं गिरी सरकार

संविद सरकार को गिरना ही था, वह गिरी। गिरने की वह कथा सिर्फ कल का सच नहीं, आज का भी सच है!

संविद सरकार ऐसी थी, जिसमें होनी-अनहोनी के कई जोड़-घटाव थे। 1967 के लोकसभा चुनाव में बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव के लिए संसोपा के टिकट पर चुने गये थे। वे राज्य की संविद सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बन गये। डॉ. लोहिया ने उन्हें राज्य मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर सिर्फ लोकसभा सदस्य के रूप में ही कार्य करने का निर्देश जारी किया, जो बिन्देश्वरी बाबू को स्वीकार नहीं हुआ। इधर डॉ. लोहिया ने जिद पकड़ी।

सो बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल ने संसोपा, सीपीआई तथा जनसंघ के विक्षुब्ध विधायकों को साथ लेकर 25 अगस्त, 1967 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में ‘शोषित दल’ नामक एक नई पार्टी का गठन कर दिया। शोषित समाज दल ने कांग्रेस के समर्थन से 25 जनवरी, 1968 को बिहार विधानसभा में महामाया मंत्रिमंडल के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 163 और सरकार के पक्ष में 150 मत पड़े। 13 मतों से महामाया सरकार गिर गयी!

इसके बाद पूरे पांच महीने तक कांग्रेसी और गैरकांग्रेसी नेताओं के बीच सत्ता के लिए समझौता, सौदेबाजी, खींच-तान का खेल चला।

1 फरवरी, 1968 को बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल ने कांग्रेस के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री-पद की शपथ ली। लेकिन यह सरकार सिर्फ दो महीने चली। पंडित विनोदानंद झा के नेतृत्व में कांग्रेस के 16 विधायकों ने विद्रोह किया। 18 मार्च, 1968 को सदन में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान मंडल सरकार 17 मतों से गिर गयी।

इन विद्रोही विधायकों के सहयोग से 22 मार्च, 1968 को भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार तीन माह में ही लड़खड़ाने लगी। अंततः 29 जून, 1968 को बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया!

पहला मध्यावधि चुनाव : सत्ता के लिए उठा-पटक

सन् 1969 के फरवरी माह में बिहार विधानसभा के लिए पहली बार मध्यावधि चुनाव हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन उसे स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सका। संसोपा की सीट 69 से घटकर 53 हो गई। रामानंद तिवारी संसोपा विधायक दल के नेता बने। कर्पूरी ठाकुर ताजपुर क्षेत्र से ही कांग्रेसी उम्मीदवार को पराजित कर विधानसभा में पहुंचने में सफल रहे। संसोपा, प्रजा समाजवादी पार्टी, लोकतांत्रिक कांग्रेस और निर्दलीय सदस्यों ने सरकार बनाने का दावा पेश किया लेकिन राज्यपाल ने उसे अस्वीकार करते हुए कांग्रेस के सरदार हरिहर सिंह को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। सरदार हरिहर सिंह के नेतृत्व में जन-क्रांतिदल, शोषित समाज दल एवं निर्दलीय विधायकों की मिली-जुली सरकार बनी।

इसी दौरान कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर पर विभाजन हो गया। सरदार हरिहर सिंह ने संगठन कांग्रेस में रहना पंसद किया, जबकि कांग्रेस विधायक दल के अधिकांश सदस्य इंदिरा कांग्रेस में चले गये। परिणामस्वरूप 22 जून, 1969 को पशुपालन बजट पर मतदान के दौरान सरदार हरिहर सिंह की सरकार 21 मतों से पराजित हो गयी।

22 जून, 1969 को ही गैरकांग्रेसी साझा सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में लोकतांत्रिक कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री ने पुनः शपथ ली। शास्त्री मंत्रिमंडल में शोषित समाज दल घटक से किसे मंत्री बनाया जाय, इस पर विवाद शुरू हो गया। शोषित दल में जगदेव प्रसाद और महावीर प्रसाद ने मनचाहा विभाग के साथ मंत्री पद के लिए दवाब बनाना शुरू किया। लेकिन उनके भयादोहन के सामने झुकने से इनकार करते हुए भोला पासवान शास्त्री ने 4 जुलाई, 1969 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। स्थायी सरकार के गठन की कोई संभावना बनती नहीं देखकर बिहार दूसरी बार राष्ट्रपति शासन के गिरफ्त में फंस गया। करीब सात माह तक कोई सरकार नहीं बन सकी।

भोला पासवान शास्त्री सरकार के पतन के बाद सन् 1970 के शुरुआती महीने से ही बिहार में मिली-जुली सरकार बनाने की कोशिशें शुरू हो गईं।

कोशिश रंग लायी। संसोपा, संगठन कांग्रेस, जनसंघ तथा कुछ निर्दलीय सदस्यों ने एकजुटता दिखाकर बहुमत का जुगाड़ भी कर लिया। संसोपा विधायक दल के नेता रामानंद तिवारी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए आपस में सहमति भी बन गई। उन्हें सिर्फ मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने का काम बाकी रह गया था।

लेकिन तभी संसोपा के भीतर रामानंद तिवारी के मुख्यमंत्री बनने को लेकर अचानक मतभेद हो गया। संसोपा के एक बड़े धड़े ने जनसंघ जैसी ‘सांप्रदायिक पार्टी’ के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने की कोशिश के लिए रामानंद तिवारी की आलोचना शुरू कर दी। इस धड़े ने यह बात भी प्रचारित करना शुरू किया कि जिस पार्टी का नारा ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ हो, उस पार्टी की ओर से किसी सवर्ण नेता का मुख्यमंत्री पद पर आसीन होना पिछड़ों के साथ विश्वासघात होगा। तिवारी समर्थकों ने इसे कर्पूरी की साजिश करार दिया। संसोपा के अंदर रामानंद तिवारी और कर्पूरी ठाकुर के परस्पर विरोधी खेमे बनने लगे। एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी भी शुरू हो गई। संसोपा के टूटने की भी भविष्यवाणी की जाने लगी।

लेकिन तभी अचानक रामानंद तिवारी ने जनसंघ विरोधी रुख अख्तियार कर सबको हतप्रभ कर दिया। उन्होंने जनसंघ की आलोचना करते हुए एक पर्चा निकाला और उसे देश भर के अखबारों में वितरित कराया। पत्र-पत्रिकाओं को दिये गये साक्षात्कारों में भी उन्होंने जनसंघ के सांप्रदायिक रुख की आलोचना शुरू कर दी।

जनसंघ के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने से रामानंद तिवारी के इनकार के बाद 16 फरवरी, 1970 को कांग्रेस के दारोगा प्रसाद राय ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन दारोगा प्रसाद राय की सरकार मात्र नौ महीने ही चल पायी।

तब कर्पूरी ठाकुर ने मिली-जुली सरकार का नेतृत्व करने के लिए 22 दिसंबर, 1970 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। कर्पूरी ठाकुर की यह सरकार उसी जनसंघ के सहयोग से बनी, जिसके समर्थन से सरकार बनाने से कुछ माह पूर्व रामानंद तिवारी ने इनकार कर दिया था। दिलचस्प बात यह रही कि कर्पूरी मंत्रिमंडल में रामानंद तिवारी बतौर पुलिस मंत्री शामिल हुए!

कर्पूरी ठाकुर का यह मुख्यमंत्रित्व काल सिर्फ 163 दिनों का रहा। सौदेबाजी व दल-बदल के कारण उनकी सरकार 2 जून, 1971 को गिर गयी।

163 दिनों का मुख्यमंत्री : औरों से अलग

एक : मुख्यमंत्री बनते ही कर्पूरी जी ने फरमान जारी कर दिया – ‘सचिवालय के सभी आला अधिकारी हिन्दी में टिप्पणी लिखें। सिर्फ अंग्रेजी में टिप्पणी लेखन दंडनीय होगा।’

इसके बाद ही बिहार सरकार के कार्यालयों में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हुई और हिन्दी भाषा को प्रोत्साहन मिला। हालांकि उनके इस निर्णय की यह कहकर कटु आलोचना की गई कि कर्पूरी बिहार के नवयुवकों को उच्च सरकारी पद पाने से रोक रहे हैं, क्योंकि अंग्रेजी की उच्च शिक्षा प्राप्त किये बिना कोई उच्च पदाधिकारी कैसे बन सकता है?

कर्पूरी ने ऐसे आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब दिया। उन्होंने कहा – ‘हमें ऐसे पदाधिकारी चाहिए जो जनता की भाषा समझें, जनता की भाषा बोलें और जनता की भाषा में काम कर सकें। जो अधिकारी ऐसा नहीं कर सकता है उसके लिए यहां स्थान नहीं है।’

दो : कर्पूरी ठाकुर ने सचिवालय स्थित मुख्यमंत्री कक्ष में आमजनों के प्रवेश पर जारी प्रतिबंध हटाने का फैसला किया। छूट का आदेश जारी किया।

सामंत-नौकरशाह और कांग्रेसियों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई। कर्पूरी ठाकुर ने जवाब दिया–‘मुख्यमंत्री की कुर्सी किसी शासनाधिकारी या राजा की नहीं, जनता के सेवक की होती है। मैंने जनता से सीधा सरोकार के लिए ऐसा किया है, ताकि जनता अपनी व्यथा, सुख-दुख सीधे मुख्यमंत्री को बता सके।

तीन : कर्पूरी ठाकुर की पत्नी बीमार पड़ीं। कर्पूरी जी के निकटतम सहयोगी अमीरलाल राय उन्हें डॉक्टर के यहां ले जाने लगे।
कर्पूरी जी ने पूछा – गाड़ी कहां ले जा रहे हैं?
अमीरलाल राय ने कहा – डाक्टर के यहां इन्हें दिखाने ले जा रहा हूं।
कर्पूरी जी ने कहा – अमीरी लाल जी! ये गाड़ी मुख्यमंत्री की है, मेरी नहीं। आप इन्हें रिक्शा से ले जाएं।’
और, अमीरलाल मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की पत्नी को रिक्शा से डॉक्टर के यहां ले गये।

चार : कर्पूरी जी के पिता गोकुल ठाकुर बीमार पड़े। तेज बुखार। चलना-फिरना भी बंद। तभी गांव के एक जमींदार का बुलावा आया। गोकुल ठाकुर ने हलकारे के जरिये अपने खराब स्वास्थ्य का हवाला देते हुए जाने में अपनी असमर्थता जतायी। जमींदार आग-बबूला हो उठा। उसने हलकारे को वापस भेजकर गोकुल ठाकुर को जबरन अपनी ड्योढ़ी पर बुलाया। और, उनकी जमकर धुनाई कर दी। पिटाई में गोकुल ठाकुर के हाथ की हड्डी टूट गयी।

मुख्यमंत्री के पिता के साथ हादसा! सूचना मिलते ही सरकारी महकमे में हलचल मच गयी। जमींदार को तुरन्त गिरफ्तार कर हाजत में बंद कर दिया गया।

समस्तीपुर के सदर अस्पताल में गोकुल ठाकुर का प्राथमिक उपचार हुआ। इसकी सूचना कर्पूरी ठाकुर के आप्त सचिव लक्ष्मी साहु को दी गई। लक्ष्मी साहु के माध्यम से कर्पूरी ठाकुर को जैसे ही सारे घटना-क्रम की जानकारी मिली, उन्होंने तत्काल अपने पिता को इलाज के लिए पटना बुला लिया और फिर समस्तीपुर के जिलाधिकारी से दूरभाष पर बातचीत कर जमींदार को छोड़ देने का अनुरोध किया।

चकित जिलाधिकारी ने इसमें अपनी असमर्थता जतायी। तब कर्पूरी ठाकुर ने कहा–‘मेरे पिता को यह प्रताड़ना कोई पहली बार नहीं मिली है। हम तो बचपन से ही यह सब देखते-झेलते आए हैं।’

फिर उन्होंने ने मुख्य सचिव के माध्यम से सूचना भेजवाई और जिलाधिकारी को जमींदार को छोड़ने के लिए विवश किया। जमींदार पर कोई मुकदमा भी न हुआ।

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