खॅंडहर में प्रेम

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— सूर्यनाथ सिंह —

विता जब इतिहास में प्रवेश करती है तो समझ लेना चाहिए कि उसका समकाल बहुत विकट है। कविता जब भी इतिहास और पुराणों, मिथकों के नए अर्थ खोलना शुरू करती है, उन्हें अपने समय के रूबरू रखती है, तो समझ लेना चाहिए कि उसके सामने अभिव्यक्ति के खतरे हैं, अभिव्यक्ति पर पहरे हैं। राकेशरेणु के “नए मगध में” को इसी सूत्र से खोलने की जरूरत है। वे अगर मगध के खॅंडहरों में नए मगध की पहचान कर पा रहे हैं, तो जाहिर है, नया मगध उन्हें पुराने मगध से ज्यादा विकट नजर आता है। नया हमेशा बेहतर या सुंदर का बोध देता भी नहीं। नया, पुराने का विलोम जरूर है, मगर सुंदर का पर्याय कतई नहीं। वह कई बार पुराने से अधिक विद्रूप रूप में भी उपस्थित हो सकता है। प्रायः होता ही है।

राकेशरेणु का नया मगध पुराने, घटोत्कच वाले मगध, से ज्यादा विद्रूप है। उसकी शासन व्यवस्था पुराने मगध से कहीं ज्यादा क्रूर और मानवद्रोही है। अमानवीय स्थितियां नए मगध में ज्यादा पीड़ादायी हैं। वहां कुछ भी तय नियमों के अनुसार नहीं है। प्रतिगामिता ही नए मगध का नया और प्रमुख नियम है। जो कुछ पहले से चला आ रहा है, उसके विरुद्ध चलना ही नियम है। जो कुछ पहले से स्थापित है, उसे पलट देना ही नए मगध का नया विधान है। नया मगध आगे कम, पीछे की तरफ ज्यादा चलता है।‌ जो कुछ सीधा है, उसे टेढ़ा कर देना ही उसका शगल है। जो भी आवाज विरोध या प्रतिकार में उठती है, उसे दफ्न कर देना ही नए मगध का विधान है। जनता जहालत झेलने को अभिशप्त है, आर्तनाद करती है, मगर राजा को जयगान ही भाता है। वह जुटा ही लेता है जयगान करने वाली भीड़। उदघोष करता फिरता है कि वह है, इसीलिए सुरक्षित है मगध। मगध का मुस्तकबिल उसके होने से ही है।

“जिस तरह गणित की शाखाओं के नियम बने/ उसी तरह विज्ञान के, दर्शन के/ इतिहास और राजनीति के/ सुशासन के नियम बने/नए मगध में./ उन नियमों का पालन जरूरी था जन जन के लिए/ न मानने की सजा कुछ भी हो सकती थी/ सार्वजनिक प्रताड़ना, मारपीट, कारावास/ या फिर मृत्युदंड/ खड़े खड़े गोली मारी जा सकती थी अवज्ञाकारी को/ यह नए मगध का जनतंत्र था./ जो मूल्यों को जीते थे/ विचार दे सकते थे जनहितकारी/ जो समाज बदल सकते थे/ खतरा थे निजाम के लिए.”

राकेशरेणु

“नए मगध में” मगध प्रतीक से बुनी पंद्रह कविताएं हैं। बाकी कविताएं प्रेम की हैं। हैरानी नहीं कि क्रूर व्यवस्था में प्रेम क्यों प्रासंगिक हो उठा है। कवि का स्पष्ट दावा है कि कठिन दिनों में प्रेम ही बचा सकता है मनुष्यता को। कठिन क्रूर समय में सबसे बड़ा संकट मनुष्यता पर होता है। उसी को बचाने की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। अगर मनुष्यता बची रही तो क्रूर दिनों को बदला जा सकता है, तलाशी जा सकती हैं उसमें से अनंत संभावनाएं जीवन के सुंदर दिनों की। इस संग्रह में राकेशरेणु विगत की स्मृतियों में उतरते हैं। प्रेम का पसारा वे उस घर में तलाशते हैं, जहां फूटी थी जातक की तोतली बोली, जहां बाबूजी के संघर्षों में भी अथाह प्रेम प्रवाहित था। अलगनी पर सूखती मां की साड़ी में नजर आते थे विश्व के सारे ध्वज रंग बिरंगे। उसी घर में वे स्मृतियां भी स्पंदित हैं जब प्रिया का चूमा था मुख। उस घर में फिर लौट आने का संकल्प बार बार उमगता है। इन विकट दिनों में जड़ों की ओर लौटना एक संभावनाशील क्रिया है। लौटना फिर से उम्मीदों को पा लेना है। उन सपनों में जी लेना है, जो सबसे सुंदर और अछोर संभावनाओं से भरे हैं। वही सुंदर दिनों में लौटना है।

मगर हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि लौटने का इरादा जितना सुखद है, लौटने के बारे में सोचना भर जैसी पुलक, जितनी सुखद अनुभूति से भर देता है, लौटना दरअसल उतनी सहज क्रिया है नहीं। राकेशरेणु की कविताओं में यह विडंबना बहुत सघन है। उसमें लौटने का संकल्प बार बार प्रश्नंकित हो उठता है। मगर प्रेम कहीं भी मुरझाता नहीं। इसीलिए भूखे के लिए कौर, प्यासे के लिए जल लिये तत्पर रहता है। इन कठिन दिनों में इस करुणा, इस परदुखकातरता का लोप होता गया है। नए मगध में उसे फिर से जगाना, जिंदा रखना बड़ी चुनौती है। राकेशरेणु उसका बीज वपन करते हैं।खॅंडहर में कुछ झाड़ बुहार लगाने का प्रयास करते हैं।

इस क्रूर, विद्रूप समय में भी बेहतरी की उम्मीदें, सुंदर सपने जिंदा हैं अभी। कवि को विश्वास है कि प्रेम से ही संभव होगी सुंदर दिनों की शुरुआत। इतिहास ने देखे हैं बहुत से कठिन दिन, झेली हैं नफरतों की आंधियां, कत्लोगारत के दिन, मगर प्रेम ने फिर फिर रोपे हैं मनुष्यता के बीज। दरअसल, क्रूर से क्रूरतम समय में भी प्रेम बचा ही रहता है, ध्वस्त मीनारों के किसी न किसी शिलाखंड के बीच। इसलिए कवि को भरोसा है :
“पस्त हो चुके दर्शन की ढूह पर खड़ा/ केवल शुद्ध निथरा हुआ प्रेम/ हॅंस रहा होगा प्रेम./ जब सब समाप्त हो जाएगा/ बचा रहेगा प्रेम/ वही बचाएगा हमें प्रलयवेला में/ रक्षा कवच बन साफ हवा पानी ऑक्सीजन सा.”

कवि का प्रेम ऐंद्रिय नहीं है, इसलिए उसकी ताकत अधिक है। उसका प्रभाव, उसका असर जादुई है। नफरतों से लड़ने और आखिरकार उनसे जीत जाने, उन्हें पस्त और परास्त कर डालने का भरोसा उसमें अकूत है। प्रेम कवि के लिए मनुष्यता को बचाने, उसे सुंदर बनाने का कारगर औजार है। वही परम स्वतंत्रता पाने का एकमात्र साधन है : “आजाद होना चाहते हो तो प्रेम करो/ नफरतें मिटाने के लिए प्रेम करो।”

फिर यह कामना कि :
“अभी बहुत जगह बाकी है धरती पर/ बेहतर चीजों और घटनाओं के लिए./ उन अच्छाइयों पर भरोसा बना रहे/ भरोसा बना रहे संभावनाओं पर!/ और यह आत्मबल बना रहे/ मनुष्यता को क्षरित करने वाली/ हर कोशिश के खिलाफ अड़ा रहूं।”

राकेशरेणु की कविता स्पष्ट कथन की कविता है। जब वह प्रतीकों में बोलती है, तो भी स्पष्ट बोलती है। कोई परदा नहीं, कोई ओट नहीं। बेलाग और बेबाक बोलती है। कठिन वक्त में कविता अपना दायित्व इसी तरह निभाया करती है।‌ हालांकि राकेशरेणु सघन बिंबों के कवि हैं। रंगों पर रची उनकी कविताएं उनके बिंब बोध की गहराई थाहती हैं। वहां रंग अपने परंपरित अर्थों से बाहर निकल कर नई छटा बिखेरते हैं। वहां लाल न तो पारंपरिक अर्थों में केवल लाल रह जाता है और न हरा हरा या फिर नीला नीला और काला काला। रंगों के अर्थ भी समय और स्थितियों के अनुसार खुलते हैं।

एक सजग, सधे वितान में मुखर कविता की सुघर संरचना रच देना राकेशरेणु की विशेषता है।

नए मगध में : राकेशरेणु; अनुज्ञा बुक्स, 1/10206 लेन नंबर 1E, वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली; 199 रुपए.

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