हमीद दलवाई का संघर्ष

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हमीद दलवाई (29 सितंबर 1932 - 3 मई 1977)

— डॉ सुरेश खैरनार —

कोंकण के चिपळूण के करीब मिरजोली नाम के गांव में 29 सितंबर 1932 को हमीद दलवाई का जन्म हुआ था।पिताजी मौलवी थे और उनकी तमन्ना थी कि बेटा भी मौलवी बने। लेकिन चिपळूणू में राष्ट्र सेवा दल की शाखा में हमीद बचपन से ही जाते थे इसलिए वह ‘इंडियन सेकुलर सोसाइटी’ और ‘मुस्लिम सत्यशोधक समाज’ इन दो संस्थाओं के संस्थापकों में से एक बने ! हमीद दलवाई समस्त मुस्लिम जगत में, तुर्की के कमाल पाशा के बाद, दूसरे मुस्लिम सुधारक निकले। जिस कारण कठमुल्ला मुसलमानों ने सत्तर के दशक में, कई बार उनके ऊपर जानलेवा हमले किए! लेकिन उन्होंने अपने काम को छोडा नहीं। किडनी की बीमारी से पीड़ित होने की वजह से वह अपने जीवन का अर्धशतक भी पूरा नहीं कर सके। 3 मई 1977 को महज 45 साल की आयु में उनका निधन हो गया।

उनकी जिंदगी के शुरुआती 20 साल छोड़ दें तो वह 25 साल अपनी जान जोखिम में डालकर महात्मा जोतिबा फुले की तरह समाज प्रबोधन के काम में लगे रहे ! और उसमें भी मुस्लिम सामाजिक सुधार के जैसे काम सौ साल पहले तुर्की में कमाल अतातुर्क पाशा ने सत्ता में आने के बाद किये थे।

महाराष्ट्र के कोंकण के चिपळूण में ही सामाजिक सुधार करनेवाले विष्णु शास्री चिपळूणकर पैदा हुए थे ! उसी कोंकण क्षेत्र के छोटे-से गांव में हमीद 29 सितंबर 1932 को पैदा हुए ! और उम्र के 14वें साल में, सिर्फ 9 साल पहले स्थापित हुए राष्ट्र सेवा दल नामक बच्चों के संगठन में शामिल हुए। इस कारण एक संस्कारक्षम उम्र में जनतांत्रिक समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक दृष्टि और राष्ट्रवाद के मूल्यों को लेकर ही उन्होंने जीवन का आगे का सफर तय किया। बहुत लोग अलग-अलग संगठनों में आते रहते हैं ! लेकिन सभी का अपने जीवन के लक्ष्य को खोजने का प्रयास होता है, ऐसा नहीं लगता ! लेकिन कुछ लोग होते हैं, जिन्हें अगर सही समय पर सही राह मिल जाती है तो हमीद दलवाई बनते हैं !

जब वे 15 साल के हो गये तो आजादी आ गई थी। फिर स्वाभाविक ही मुख्य लक्ष्य बना देश को बनाना ! क्योंकि आजादी के पहले बांटो और राज करो की नीति के कारण एक तरफ मुस्लिम लीग और दूसरी तरफ हिंदू महासभा और 1925 के बाद संघ परिवार को प्रश्रय देने का काम अंग्रेजों ने बखूबी किया था ! जिसके फलस्वरूप आजादी देश के बंटवारे के साथ मिलकर ही आई। बंटवारे में लाखों लोग मारे गए और करोड़ों की संख्या में विस्थापित हुए। महात्मा गांधी की शहादत भी हुई।

इसलिए हामिद दलवाई का किशोरावस्था से तरुणाई में प्रवेश करने का काल कितने बड़े संक्रमण का काल रहा होगा इसकी कल्पना करते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं !ऐसे माहौल में अपने आप को सेकुलर बनाये रखना कोई साधारण बात नहीं है ! यह तो सिर्फ और सिर्फ राष्ट्र सेवा दल के संस्कार के कारण ही संभव है !

आपके जाति व धर्म निरपेक्ष रहने के पीछे, आपका परिवेश और समय भी एक कारण होता है ! इसलिए मुझे हमेशा से लगता रहा कि मैं भी, हमीद भाई की तरह उम्र के 13वें-14वें साल में राष्ट्र सेवा दल जैसे, जाति व धर्म निरपेक्ष समाज के संस्कार देने वाले संगठन से परिचित नहीं हूआ होता तो मैं संघ का स्वयंसेवक बना होता ! क्योंकि मेरे प्रिय भूगोल के शिक्षक बी बी पाटील सर, मुझे संघ में शामिल करने के लिए काफी प्रयास करते रहे। और उनके आग्रह की वजह से मैं कुछ दिन संघ की शाखा में गया था !

मुझे लगता है कि हमीद दलवाई की शुरुआती जिंदगी में अगर राष्ट्र सेवा दल नहीं होता, तो वे मौलावी बने होते ! क्योंकि उनके अब्बाजान की यही इच्छा थी। यह बात हमीद भाई ने मुझे अमरावती में, जब 70 के दशक में मैंने उन्हें बुलाया था, तब खुद गपशप में कही थी ! वह गपशप के बहुत शौकीन थे। किडनी की बीमारी में जसलोक अस्पताल के बेड पर थे तब भी वह गपशप के मूड में थे ! और शरद पवार जी के आवास पर रहते थे। अपने जीवन के अंत आ गया है यह मालूम रहते हुए भी, इतने जिंदादिल आदमी मैंने बहुत कम देखे हैं !

शुरुआत में वह समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता भी रहे और पत्रकार भी। आचार्य अत्रे के ‘मराठा’ नाम के अखबार में काम किया। उसी समय ‘ईंधन’ नाम से मराठी में एक उपन्यास भी लिखा। जिसका दिलीप चित्रे ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है ! उनका एक कथा संग्रह भी है और दोनों कृतियों को पुरस्कार भी मिल चुका है ! यानी हमीद दलवाई ने ललित लेखन में भी योगदान दिया है। अलबत्ता समाज सुधारक की धुन सवार हुई तो वह छूट गया।

भारतीय मुसलमानों की हालत देखकर वे अपने आप को रोक नहीं सके। एक वर्ग था, जो इस्लाम के खतरे में होने की बात करके मुसलमानों की राजनीति कर रहा था ! और एक दूसरा वर्ग उनको वोट बैंक की राजनीति के कारण उनका सिर्फ इस्तेमाल कर रहा था। हमीद भाई को तो मुस्लिम समाज में बहुपत्नीत्व और तलाक का चलन चुभ रहा था ! और इसी कारण उन्होंने 18 अप्रैल 1966 को, यानी उम्रके 34वें साल में प्रवेश करते-करते मुम्बई के सचिवालय पर तलाक पीडित महिलाओं का पहला मोर्चा निकालकर साहसपूर्ण कामों का सिलसिला शुरू कर दिया था।

इस तरह हमीद दलवाई ने समाज सुधार का बिगुल बजा दिया था और अगले ग्यारह साल वह, महात्मा ज्योतिबा फुले की राह पर थे। पुणे में साने गुरुजी के शुरू किये गये साधना साप्ताहिक के दफ्तर में, 22 मार्च 1970 को यानी उम्र के 38वें साल में प्रवेश करते हुए ‘मुस्लिम सत्यशोधक समाज’ नामक संगठन की स्थापना की थी, क्योंकि हर बात में कुरान और हदीस का हवाला देकर, मुल्ला मौलवी और सत्ता की राजनीति करने वाले मुस्लिम नेता आम मुसलमानों को भेड़-बकरियों की तरह इस्तेमाल कर रहे थे !

मुसलमानो में समाज सुधारक बनना इस्लाम के भीतर बहुत बड़ी क्रांति की बात है ! और उनकी मृत्यु के 46 साल बाद भी अभी तक उनकी हैसियत का कोई नहीं दिख रहा है।

शरीयत का हवाला देकर, महिलाओं के साथ जो सलूक किया जाता रहा है, उसी के खिलाफ, 18 अप्रैल 1966 को मुंबई के सचिवालय पर तलाक पीड़ित महिलाओ का मोर्चा। ऐतिहासिक कदम था। शाह बानो का मामला उसके 20 साल बाद का है ! और यहीं से भारत की सेकुलर राजनीति का ‘पतनपर्व’ शुरू होता है ! “सवाल आस्था का है, कानुन का नहीं !” इस नारे की शुरुआत यहीं से हुई और संघ परिवार की बांछें खिल गईं ! और उन्होंने बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के मसले पर, अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने की शुरुआत यहीं से की है।

हमीद भाई की बीमारी के समय, 1977 में, जनता पार्टी बनी, और यहीं से भारतीय सेकुलर राजनीति के पतन की शुरुआत हुई। क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद से मुंह छुपाकर रहनेवाले संघ परिवार को वैधता मिलने की शुरुआत यहीं से हुई !

स्वतंत्र भारत के 76 सालों के इतिहास में 20-25 करोड़ मुसलमान जो भारत में रह रहे हैं कभी भी असुरक्षा की भावना के इतने शिकार नहीं थे जितने आज हैं ! और यह हाल संघ परिवार ने 100 साल से लगातार हिन्दु-मुस्लिम खाई बढ़ाने के लिए कभी मंदिर-मस्जिद, तो कभी गोहत्या, तो कभी कश्मीर, पाकिस्तान, और अब नागरिकत्व का मुद्दा ! गुरु गोलवलकर के कथन के अनुसार “मुसलमानोंको हिन्दुओं की दया पर भारत में रहना है तो दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा !” इस बात का सबसे बड़ा विरोध हमीद दलवाई ने किया होता ! वे हिन्दुत्ववादियों के इरादों से भलीभांति परिचित थे ! यह मैंने अमरावती के कार्यक्रम में खुद देखा-सुना है !

हमीद दलवाई ने आज से 50 साल पहले मुस्लिम सत्यशोधक समाज नाम क्यों दिया ? तुकाराम महाराज का एक अभंग कहता है : ‘सत्य असत्याशी मन केले ग्वाही !’ ( सत्य असत्य के साथ मेरा मन गवाह है ! ) महात्मा गांधी के जीवन का निचोड़ क्या है? सत्य की खोज, और उनसे भी सौ साल से ज्यादा समय पहले महात्मा ज्योतिबा फुले ने अपने संगठन का नाम ‘सत्यशोधक समाज’ क्यों रखा था? हमीद दलवाई जी को भी अपने संगठन को यही नाम देना क्यों सूझा होगा? और वह भी मराठी नाम !

(जारी)

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