सोनम वांगचुक के नेतृत्व में ‘दिल्ली चलो पदयात्रा’ का समर्थन

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Support for 'Delhi Chalo Padyatra' led by Sonam Wangchuk

Randhir K Gautam

— रणधीर कुमार गौतम —

स्वामी विवेकानंद का प्रसिद्ध संदेश है, ‘उठो, जागो और तब तक रुको मत जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए!’ आज सोनम वांगचुक के नेतृत्व में चल रही ‘दिल्ली चलो पदयात्रा’ लद्दाख की प्रमुख मांगों और समाजवादी विरासत के हिमालय बचाओ आह्वान की याद दिला रही है।

गृह मंत्रालय (MHA) द्वारा “लद्दाख के चार-सूत्रीय एजेंडा”—राज्य का दर्जा, छठी अनुसूची का दर्जा, एक समर्पित लोक सेवा आयोग (PSC), और लद्दाख के लिए दो संसदीय सीटें—पर शीर्ष निकाय और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (KDA) के साथ बातचीत फिर से शुरू करने में देरी हो रही है। इसे देखकर शीर्ष निकाय लेह के समर्थन में लगभग 80 लोग राष्ट्रीय राजधानी की ओर पैदल मार्च कर रहे हैं। यह ‘दिल्ली चलो पदयात्रा’ शीर्ष निकाय लेह द्वारा आयोजित किया गया है। यह यात्रा रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता, शिक्षाविद, और पर्यावरण आंदोलन के कार्यकर्ता सोनम वांगचुक के नेतृत्व में है।

24 अगस्त को, लेह एपेक्स बॉडी ने लद्दाख की मांगों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और सरकार से रुकी हुई बातचीत फिर से शुरू करने का आग्रह करने के उद्देश्य से दिल्ली तक पदयात्रा (पैदल मार्च) शुरू करने की घोषणा की। पदयात्रा 2 अक्टूबर, महात्मा गांधी की जयंती, तक

दिल्ली पहुंचने वाली है। यात्रा 1 सितंबर को लेह के शहीद स्मारक पार्क से शुरू हुई, जिसमें कई आंदोलनकारियों ने भाग लिया और अन्य लोग उन्हें विदा करने के लिए पहुंचे। लद्दाख के व्यापक हित में होने के बावजूद, यात्रा में KDA (कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस) के सदस्यों की अनुपस्थिति चिंताजनक है। वैसे KDA ने आश्वासन दिया है कि वह दिल्ली की सीमा पर पदयात्रा में शामिल होगा। फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि जब KDA के सदस्य आसानी से शामिल हो सकते थे, तब भी वे लेह से ही पदयात्रा में क्यों नहीं शामिल हुए? तीसरे दिन, जब यात्रियों ने 75 किमी की दूरी पूरी कर ली, तब KDA ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर 30 सितंबर को दिल्ली में पदयात्रा में शामिल होने और 2 अक्टूबर को सोनम वांगचुक के साथ राजघाट पर हिस्सा लेने की घोषणा की।

टागलांग-ला, जो लद्दाख के सबसे ऊंचे दर्रों में से एक है, पर पहुंचने पर सोनम वांगचुक ने जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को उजागर किया । यह बताया कि ऊंचाई पर भी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री से भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के तहत नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करने की अपील की । और वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने का आह्वान किया, क्योंकि जलवायु घड़ी irreversible (असाध्य) नुकसान तक पहुँचने की समय सीमा पाँच साल से भी कम दिखा रही है।

पदयात्रा के 11वें दिन, प्रतिभागी सर्चू और भरतपुर (हिमाचल प्रदेश) पहुंचे। जहां उनका गर्मजोशी से स्वागत किया गया, ठहराया गया और भोजन कराया गया । 15,910 फीट की ऊंचाई से नीचे उतरते समय, ज़िंग ज़िंग बार (हिमाचल प्रदेश) के निवासियों ने पारंपरिक तरीके से उनका स्वागत किया, खाटक भेंट किए और धूप चढ़ाने की रस्म निभाई।

लद्दाख के केंद्रशासित प्रदेश क्षेत्र में यात्रा के दस दिनों के दौरान, प्रशासन और लेह हिल काउंसिल ने प्रतिभागियों की स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया। इसके विपरीत, हिमाचल प्रदेश के कीलोंग और लाहौल-स्पीति प्रशासन ने स्वास्थ्य जांच की , चिकित्सा सहायता दी। डॉक्टरों और एंबुलेंस को यात्रियों की देखभाल के लिए भेजा। सोनम वांगचुक ने लद्दाख प्रशासन के अपने नागरिकों के प्रति रवैये पर निराशा व्यक्त की, साथ ही कीलोंग और लाहौल-स्पीति प्रशासन को हार्दिक धन्यवाद दिया।

सोनम वांगचुक की यात्रा का संदर्भ अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें पर्यावरण आंदोलन, संघवाद के मूल्य और लोकतांत्रिक जन संघर्ष का स्पष्ट आह्वान है। इस यात्रा या यूं कहें इस आंदोलन की जड़ें ‘हिमालय बचाओ यात्रा’ के आंदोलन में हैं। इसे एक बड़े प्रदर्शन के रूप में भी देखा जा सकता है। हिमालय बचाओ आंदोलन डॉक्टर लोहिया का एक सपना था, जो एक विरासत के रूप में समाजवादियों के साथ-साथ आज के नागरिक समाज में भी जीवित है। इसमें अब सोनम वांगचुक का नाम भी शामिल हो गया है।

सोनम वांगचुक की मांगें वही हैं, जो सरकार ने वादों के रूप में लद्दाख की जनता से किए थे। हिमालय का सबसे आकर्षक पक्ष यह है कि यह प्रकृति और पर्यावरण के संतुलन के साथ जीवन के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। जैसा कि हम देख रहे हैं, लद्दाख की जनता की मांगों की किसी भी तरह की लोकतांत्रिक सुनवाई नहीं हो रही है। वहां के लोग ब्यूरोक्रेसी की व्यवस्था के खिलाफ गुस्से में हैं, क्योंकि अलग राज्य बनने के बाद भी जनप्रतिनिधियों की कोई वास्तविक सत्ता नहीं है।

केदारनाथ की त्रासदी हो या वायनाड की, ये घटनाएं यह स्पष्ट करती हैं कि मनुष्य विकास की अंधी दौड़ में किस तरह से प्रकृति के साथ अन्याय कर रहा है। और इसका परिणाम हमें इतनी बड़ी आपदाओं के रूप में देखने को मिल रहा है।

दूसरा पक्ष जो सोनम वांगचुक के आंदोलन से जुड़ा है, वह सेवा और देशभक्ति का है। लगभग 4000 किलोमीटर से अधिक क्षेत्र पर चीन ने भारत का कब्जा कर लिया है, और केंद्र सरकार लगातार यह झूठ बोल रही है कि चीन ने भारत की भूमि का कोई अधिग्रहण नहीं किया है।

सोनम वांगचुक बिना किसी तरह की उत्तेजना फैलाए, गांधी के अहिंसात्मक और लोकतांत्रिक तरीके से अपनी मांगों को जनता और सरकार के सामने रख रहे हैं। इसी उद्देश्य से उन्होंने ‘दिल्ली चलो पदयात्रा’ का आह्वान किया है, ताकि सरकार उनकी मांगों पर ध्यान दे।

यह आंदोलन केवल सरकार के सामने अपनी मांगें नहीं रख रहा है, बल्कि जन आंदोलन के लोगों से भी आह्वान कर रहा है कि वे इस मार्च को अपने मार्च की तरह अपनाएं और प्रकृति, पर्यावरण, और सुरक्षा के सवालों को लोकतांत्रिक तरीके से सरकार के समक्ष रखें।

हम देख रहे हैं कि सरकार का रवैया सोनम वांगचुक के आंदोलन के प्रति विरोधी है। एक जागरूक नागरिक के रूप में हमें चुप नहीं रहना चाहिए। हमें सोनम वांगचुक के आंदोलन से जुड़ना चाहिए और उनके आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अपने सामर्थ्य अनुसार किसी न किसी प्रकार का सहयोग अवश्य करना चाहिए।

सोनम वांगचुक ने पहले 21 दिनों का अनशन किया। और जब इसके बाद भी सरकार का रवैया नहीं बदला, तब उन्होंने इस शांति मार्च का आह्वान किया। यह यात्रा कई दिनों से जारी है।

यह भी गौर करने वाली बात है कि लद्दाख की जनता ने लोकसभा चुनावों में भी सोनम वांगचुक के साथ अपना समर्थन दिखाया है।
सोनम वांगचुक की यात्रा गांधी की नमक यात्रा की तरह है, जो लोगों को आह्वान करती है, उनकी शक्ति को बढ़ाने और जन भागीदारी की अपील करती है। हमें सोनम की यात्रा और उनके लक्ष्यों को सफल बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए, ताकि भारत का पर्यावरण लक्ष्य और संविधान की रक्षा का उद्देश्य पूरा हो सके।

सोनम वांगचुक चाहते तो संयुक्त राष्ट्र में अपील कर सकते थे या चीन के हाथों खेल सकते थे। लेकिन उन्होंने संयम का रास्ता चुना—गांधी का रास्ता, बुद्ध का मार्ग। इसलिए भी हमें उनकी यात्रा को सफल बनाने में अपना योगदान देना चाहिए।”


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