एक और दुनिया होती

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एक और दुनिया होती

— मुकेश प्रत्‍यूष —

तुम्‍हें क्‍या लगता है प्रेम, मेरी जरूरत है किसी को?” हिन्‍दी के चर्चित कथाकार और जयप्रकाश नारायण की दूसरी आजादी के आंदोलनकर्ता शिवदयाल के नवीनतम उपन्‍यास ‘एक और दुनिया होती’ के अंतिम हिस्‍से का यह वाक्‍य पाठक को भीतर कहीं गहरे तक हिलाकर रख देता है. एक ऐसा स्‍वप्‍नद्रष्‍टा, जिसका जीवन लक्ष्‍य सर्वोदय हो, जिसने भय और शोषण मुक्‍त समाज बनाने के लिए अहिंसक आंदोलन में न केवल भाग लिया हो बल्कि उसके लिए सत्‍ता और हिंसा के माध्‍यम से क्रांतिकारी बदलाव लाने की वि चारधारा वाले आंदोलनकारियों के विरूद्ध लगातार संघर्षरत रहा हो, वह जीवन के उत्‍तरार्द्ध में आते-आते व्‍यवस्‍था की राजनीति या कहें राजनीति की व्‍यवस्‍था का शिकार होकर अपने संघर्ष की सफलता के बावजूद स्‍वयं को असफल मानने को विवश हो जाता है. आरंभ में आशा, उत्‍सुकता और दुनिया को बदलने की चाहत समय के साथ-साथ सब कुछ देखते-समझते हुए भी कुछ न कर पाने की विवशता निराशा और ग्‍लानि की भावना में परिवर्तित हो जाती है.

यह किसी एक स्‍वप्‍नद्रष्‍टा की नियति नहीं. देखें तो हर क्रांति, हर आंदोलन, हर संघर्ष चाहे वह रूसी हो, फ्रांसिसी हो, भारतीय हो या अन्‍य कोई, सबकी एक ही परिणति है. क्रांति या आंदोलन की सफलता के साथ ही उसके नायक और उसके सपने को अपना सपना मानने वाले सच्‍चे साथी अप्रासंगिक किए जाने लगते हैं. सुविधा भोगी लोग नायक को ही लक्ष्‍य से भटका हुआ सिद्ध करते हुए परिदृश्‍य पर आ जाते हैं. भारतीय प्रसंग में ही देखें तो स्‍वाधीनता के पश्‍चात् महात्‍मा गांधी, भूदान आंदोलन के अंत आते-आते बिनोवा भावे, छात्र आंदोलन के बाद जे.पी, इंडिया अगेंस्‍ट करप्‍शन की तात्‍कालिक सफलता के बाद अन्‍ना हजारे इसके उदाहरण हैं. इन्‍हीं के आंदोलन में शामिल कुछ अति महत्‍वाकांक्षी इनका इस्‍तेमाल विश्‍चास-पात्र बनकर करते हैं. देखें तो आंदोलन की शुरूआत के साथ ही उसके नायक को अप्रासंगिक करने का बीजारोपण उसके सबसे निकट सहयोगी कर देते है.

शिवदयाल दूसरी आजादी के नाम से मशहूर सबसे प्रभावशाली अहिंसक राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन,जिसका नेतृत्‍व जयप्रकाश नारायण ने किया था और इसीलिए इसे जेपी आंदोलन के नाम का नाम भी दिया गया, से जुड़े रहे हैं. इसलिए उनके इस उपन्‍यास में आंदोलन के पहले का, आंदोलन के दौर का और आंदोलन के बाद मनमोहन सिंह तक के समय की विसं‍गतियां सहज ही दिखाई देती हैं.

जे.पी. समाजवादी थे इसीलिए इस पूरे आंदोलन पर समाजवादी विचारधारा का गहरा प्रभाव था. इसमें शामिल अधिकांश युवा निम्‍नमध्‍यवर्गीय परिवारों से आये थे, उनके सामने परिवार के जीवन यापन की चुनौतियां भी थी. इसलिए परिवर्तनकामी होते हुए भी वे एक सीमा से आगे नहीं जा सकते थे. यहीं विचारधारा का अंतर्द्वंद शुरू हो जाता है. अमृत जैसे कुछ आदर्शवादी आंदोलन को परिकल्पित परिणाम तक ले जाना चाहते हैं तो प्रेम जैसे नौजवान अपने सपने को अधूरा छोड़ नौकरी करने चले जाते हैं. भ्रष्‍ट और पतित प्रबंधन और संघ के गठजोड़ से रचित अन्‍याय के एक नये संसार में. जहां एक आदर्शवादी युवक संघर्ष नहीं समझौते की भाषा और उसकेतौर-तरीके सीखता है. सत्‍ता बदलती है लकिन उसका स्‍वरूप कभी नहीं बदलता. उस पर बैठा व्‍यक्ति, खासकर यदि वह भीतर से डरा निम्‍न मध्‍यवर्गीय हो, तो उसे बदलने की सोच भी नहीं सकता. न चाहते हुए भी उसी के अनुरूप स्‍वयं को बदल लेता है. भले ही इसके लिए वह आजीवन स्‍वयं को क्षमा नहीं कर पाए.

प्रेम इस वर्ग का प्रतिनिधित्‍व करता हैं. जीवन की जटिलताओं को सुलझाना आम मध्‍यवर्गीय चरित्र नहीं क्‍योंकि वह पारिवारिक दायित्‍वों से परे कुछ सोच ही नहीं पाता. नियमित आय वाली एक नौकरी हो और सामान्‍य जीवनयापन में घर के किसी व्‍यक्ति को कोई कठिनाई न हो यही उसका जीवनलक्ष्‍य होता है. संघर्षरत रहकर प्रेम कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहता. वह अपूर्वा से शादी कर परिवार बसाता है, जीवन को व्‍यवहारिकता की पटरी पर लाने और सहज-सरल होकर जीने की कोशिश करता है लेकिन मन में यह टीस रह जाती है कि उसने आम आदमी की भलाई के लिए प्रयत्‍न करने के बदले स्‍वयं एक बेहतर जीवन जीने की कोशिश कर रहा है. उसका चुना हुआ जीवन ही उसे परेशान करता है. एक आम मध्‍यवर्गीय आदमी की तरह वह संबंधों की अहमियत समझता है और उसे निभाना चाहता है।

इन्‍हीं कारणों से वह अपनी शुरूआत के साथी अमृत को भूल नहीं पाता. आंदोलन से अलग होने के बावजूद वह अमृत की खोजखबर लेता रहता है और जब उसे पता चलता है कि षडयंत्र रचकर अमृत को जेल भेज दिया गया है तो परेशान हो जाता है और उससे मिलने चला आता है और जीवन के पुराने पन्‍नों को उलट कर देखने लगता है. वह अमृत जिसने कभी प्रेम से कहा था -“.. मुझे जानना क्‍या इतना आसान है कुछ दिन मेरे साथ रहो, घूमो फिरो, दुनिया देखो, तब आप ही जानने लगोगे..” उसी अमृत को सांत्‍वना देते हुए जब प्रेम यह कहता है कि अमृत सबको तुम्‍हारी जरूरत है, सब अपने जीवन में अर्थ पाना चाहते हैं, सब मुक्ति चाहते हैं. सभी अमरत्‍व चाहते हैं, तो इसी के साथ उसे लगता है कि कहीं-न-कहीं अमृत की इस प्रताड़ना में वह भी शामिल है.

इस उपन्‍यास की शुरूआत में ही इसकी झलक भी मिल जाती है –..”उसके इस हश्र पर पीड़ा जितनी है उतना ही क्षोभ भी. जिसे युवावस्‍था में अपना आदर्श मानकर अपनी पलकों पर बिठाकर रखा हो उसे इस हाल में देखना – इतना निरीह, इतना निस्‍तेज.., कर्म उसका, कर्मफल भी उसी का लेकिन न मालूम क्‍यों मैं इसमें अपनी साझीदारी पर तुला हूं. एक तरह की यह आत्‍मपीड़क प्रवृति मुझे उमेठ रही है. कहां तो पथभ्रष्‍ट मैं अबतक खुद को मानता आया था लेकिन लगता है फिर से सबकुछ सोचना-समझना होगा शायद अपने बारे में अपना ही निष्‍कर्ष बदलना पड़े..”

यह उपन्‍यास जीवन के कई दशकों की कथा है. युवावस्‍था से लेकर प्रौढेपन तक की कहानी. जाहिर है विचारों, भावनाओं में आए परिवर्तन सहज परिलक्षित होते हैं लेकिन एक तारतम्‍यता बनी रहती है जहां शिवदयाल कथा में अपनी बात नहीं कह पाते वहां कविता का सहारा लेते हैं जैसे – “यह जो थोड़ी हरियाली बिछी पथपर/ यह जो मिली वृक्ष की थोड़ी सी छांह/ यह आसमान पर टंगा इकहरा बादल/ चाहो तो इनका अपना कह सकते हो क्‍योंकि वे मानते हैं कि जब दृष्टि क्षीण पड़ जाएगी/ पलकें थक जाएंगी/ कदम रह-रह कर कांप उठेंगे थर’थर/ उस दम भी/ कुछ दृश्‍य रहेंगे धुंधले ही”. अंत आते-आते यह धुंधलका भी साफ हो जाता है और प्रेम कुछ अधिक दृढ़ता के साथ कहता है हां अमृत तुम बचे रहोगे तुम्‍हे रहना होगा.

उपन्‍यास पढ़ते समय कई बार ऐसा महसूस होता है कि यह उपन्‍यासकार की आंदोलन डायरी है. ( यह समीक्षा सुपरिचित कवि, समीक्षक मित्रवर मुकेश प्रत्यूष जी ने 2019 में ही लिखा था जो दुर्भाग्य से अबतक अप्रकाशित रह गई। तो बिना और देर किए अब यह संक्षिप्त टिप्पणी/ समीक्षा फेसबुक मित्रों के लिए मुकेश जी के प्रति आभार सहित..! – शिवदयाल)

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