भारत तिब्बत सांस्कृतिक-सम्बन्ध

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India and tibbet

anand kumar

— आनंद कुमार —

प लोगों का बहुत धन्यवाद कि आप लोग यहां पर आए एक ऐसे विषय के बारे में जो तात्कालिक महत्त्व का नहीं है यूपीएससी के लिहाज़ से, राजनीति के लिहाज़ से, मीडिया के लिहाज़ से और ऐसे व्यक्ति को जो बहुत दूर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एक अवधि पूरी करके आप लोगों के बीच में आया है। हम लोग अभी जो बात करेंगे उसका एक अलग तरह का चरित्र है क्योंकि किन्हीं दो संस्कृतियों के बीच जो संबंध होता है उसमें इतिहास का एक आयाम होता है। उसकी जड़ें अतीत में होती हैं और उसको समझने के लिए अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों का एक संतुलित ज्ञान होना चाहिए। तिब्बत के बारे में हम भारतीयों का परिचय उल्टा है। जो वर्तमान है हमें उसी से अतीत और भविष्य दिखाई पड़ता है। उसकी जड़ों को खोजने में बड़ी कठिनाइयां हैं। और वह जड़ें जब सामने आती हैं तो हम चमत्कृत हो जाते हैं। आज भारत में सबसे बीमारपिछड़ा, बीमारू प्रदेश का हिस्सा बिहार है और उसके बगल में उत्तर प्रदेश । जिसकी तिब्बत और भारत के संबंधों में असाधारण भूमिका है। उस भाषा का व्याकरण नालंदा में लिखा गया। उसके लिए तिब्बत के शासक ने विद्वानों की एक टोली को तिब्बत से भेजा जो महीनों पैदल चलते हुए आए। उस ज़माने में यातायात के साधन बहुत सीमित थे। तिब्बत के बौद्ध धर्म का प्रवर्तन काशी से हुआ। बुद्ध ने पांच लोगों को जो बातें कही, उसकी गूंज बढ़तेबढ़ते तिब्बत तक गई।

आज भारत में बौद्ध धर्म हाशिए का धर्म है और तिब्बत का मुख्य धर्म है। ऐसे ही बहुत सारा ज्ञानविमर्श विद्वानों की मदद से हुआ उसमें अधिकांश विद्वान कुछ नहीं करते थे। आज कश्मीर में जो सांस्कृतिक रूपरंग, मिश्रण है उससे लगेगा ही नहीं कि यह विमर्श का एक बड़ा केंद्र होता था। यह विस्मयकारी है लेकिन अपनी जगह पर टिका हुआ है कि जो भारत के बौद्ध विद्वान हुए उनके लिए बौद्ध धर्म को समझने के लिए दो ही क्षेत्र में जाना अनिवार्य थाश्रीलंका, हीनयान धारा के लिए और तिब्बत महायान धारा के लिए। हिंदी में पहली बड़ी किताब तिब्बत के बारे में राहुल सांकृत्यायन जी की लिखी हुई है– ‘तिब्बत में सवा बरस।राहुल जी वहां जाकर इतने चमत्कृत हुए कि वह गए थे कुछ हफ्तों के लिए लेकिन सवा बरस रहे और जब वहां से लौटे तो इतनी विपुल राशि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बारे में उनको वहां मिली कि चार या पांच खच्चरों पर लादकर मठों से उपलब्ध पांडुलिपियां लाए। जिनमें से अभी भी अधिकांश का कोई सदुपयोग नहीं हुआ है। ये राहुल जी के वारिसों और भारत सरकार के विभिन्न केंद्रों के बीच में फैली हुई है। ज़्यादा पटना में है लेकिन अगर आज हम आपसे कहें कि तिब्बत के बारे में आपकी क्या जानकारी है? तिब्बत का चेहरा कौन है? तो ज्यादातर लोगों के ध्यान में तीन छवियां आती हैं।

सबसे पहले तो दलाई लामा की छवि।तिब्बत मतलब दलाई लामा और दलाई लामा मतलब तिब्बत।दलाई लामा पूरी दुनिया में शांति, अहिंसा और करुणा के प्रवक्ता हैं लेकिन जो बात वह भारत वासियों के लिए गर्व से कहते हैं वह दो हैं। एक तो वह कहते हैं कि भारत हमारा गुरु देश है, हम भारत के चेला हैं। हमें लगता है कि हम लोग सारा ज्ञान 19वीं शताब्दी से पश्चिम से ले रहे हैं हम किसी के गुरु कैसे हो सकते हैं? लेकिन वह कहते हैं कि बुद्ध भारत की दुनिया को भेंट थे। बुद्ध हमारे मार्गदर्शक थे। बुद्ध का देश भारत है इसलिए भारत हमारा गुरु देश है। दूसरी बात यह कहते हैं कि दुनिया को यह बात समझ में नहीं आती है कि एशिया में दो महाशक्तियां हैं।

एक को वो श्रेष्ठ मानते हैं यानी चीन को, दूसरे को वो हीन मानते हैं यानी भारत को। लेकिन मेरी समझ से भारत का जो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नवनिर्माण हुआ है वह चीन से ज्यादा टिकाऊ, मानवीय और अनुकरणीय है। एक छवि हमारे सामने भारततिब्बत संबंधों की दलाई लामा प्रस्तुत करते हैं उसमें वह भारत को धर्म के नाते गुरु देश कहते हैं उसको वह और बढ़ाते हैं। वह कहते हैं कि भारत के अंदर आज़ादी तक तमाम ज्ञान परंपराएं थीं और उसमें एक परंपरा नालंदा परंपरा थी। अब नालंदा परंपरा के बारे में नालंदा के लोगों को ही नहीं मालूम है तो बाकी हम भारतीयों को क्या मालूम होगा? हम लोगों को तो और दूसरी परंपराओं के बारे में मालूम है, मैकॉले की परंपरा, जर्मन विद्वानों का योगदान मालूम है। अमेरिकी विश्वविद्यालय हार्वर्ड में कल किताब छपती है और आज भारत में चर्चा का विषय बन जाती है। नालंदा परंपरा जो सातवीं, आठवीं, नौवीं शताब्दी की है जिससे पश्चिम का हमलावर समाज इतना आक्रांत था कि बख्तियार खिलजी उतनी दूर से हमला करने आया। कहते हैं कि नालंदा की लाइब्रेरी 6 महीने तक जलती रही। उसने नालंदा की किताबों को जलाकर अपने घोड़ों को गर्मी दी। इतना बड़ा हमारा अतीत का तिब्बत के साथ संबंध है।

दूसरी छवि तिब्बत की हैतिब्बत के ऊनी कपड़ा बेचने वालों की। दक्षिण में ठंड का उतना आतंक नहीं है। उत्तर में जाड़े में महीना डेढ़ महीना तिब्बती अपनातिब्बत मार्केटलगाते हैंपटना, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, भोपाल, लखनऊ और बनारस में। तिब्बती बेचते हैं इसलिए हम लोगों को लगता है कि कहीं और से आया होगा इसलिए हम ज्यादा दाम देंगे, कपड़ा अच्छा होता है लेकिन वह भारत का ही बना हुआ होता है लेकिन उनकी इतनी प्रतिष्ठा है लुधियाना के बाजार में कि वह जाते हैं और जो सामान खरीदते हैं कई लाख का खरीदते हैं, एक पर्ची पर लिखकर दुकानदार उनको दे देता है फिर डेढ़ महीने बाद वह एकएक रुपए ईमानदारी से लौटा देते हैं। कोई उनसे आधार कार्ड या पैन कार्ड नहीं पूछते हैं।

दूसरी छवि उनकी ये है कि वे बड़े मेहनती होते हैं। कोई तिब्बती आपको भीख मांगता नहीं मिलेगा, ड्रग या शराब के नशे से आक्रांत युवा दूसरे समुदाय, समाज के मिल जाएंगे प्रवासी या भारतीय लेकिन तिब्बत के नहीं मिलेंगे। उनका एक बहुत सौम्य व्यक्तित्व है। हिंदी विभाग में 6-7 दिन के लिए तेनजिंगत्सुन्ड्यु और बुचुंगडी सोनम आए। उनसे भी परिचित होकर लगा होगा कि उनकी बनावट ही अलग तरह की है। उस बनावट में वह बुद्ध का आधार मानते हैं। वे कहते हैं कि हम बौद्ध हुए। नहीं हुए होते तो अलग बात होती। खांपा लोग बड़े उग्र होते थे। तिब्बतियों की एक जनजाति खांपा है। भारत में कुछ जनजातियों को मार्शल रेस कहा जाता है जैसेमराठा, जाट, गोरखा, राजपूतों के बारे में कहते हैं कि ये तीर तलवार वाले लोग हैं। बातबात पर यह लोग तलवार निकाल लेते हैं।

ऐसे ही लोग हैंखांपा। बौद्ध धर्म ने उनको इतना सुसंस्कृत किया कि वे बड़े विनम्र सहनशील मानवीय गुणों से सम्पन्न हुए। एक तीसरी छवि तिब्बती समाज की हमें समझ में आती है जो ज्यादा सजग लोगों के लिए है तिब्बत की आजादी की मांग। आज़ादी की मांग कर रहे युवकयुवतियां हर साल दोतीन तारीख जो तिब्बत की आजादी की लड़ाई से संबंधित हैंदलाई लामा का जन्मदिन, 10 दिसंबर को मानव अधिकार दिवस, 2 मार्च को चीन की सेना ने उनकी आजादी का अपहरण किया ल्हासा में घुसकर इसलिए 12 मार्च को तिब्बत की आज़ादी का दिन मनाते हैं। वह भी एक छवि ऐसी है कि अगर तिब्बती युवकयुवतियाँ विश्वविद्यालय में है या शहर में है उस दिन यह ज़रूर करेंगे। यह तीन छवियां तिब्बत की हमारे सामने आती हैंइनके सांस्कृतिक पक्ष के बारे में एक पक्ष दलाई लामा का व्यक्तित्व जो एक तरह से पर्यायवाची हो गया है तिब्बती अस्मिता का, दूसरा पक्ष तिब्बती स्त्रीपुरुष जो अपनी रोजीरोटी के लिए स्वेटर बेचना या अन्य काम करते हैं।

जो लोग धर्मशाला गए हो या ऐसे इलाकों में गए हो जहां तिब्बती लोग रहते हैं जैसे दिल्ली में मजनू का टीला है या कर्नाटक में मंदाकोर तो वहां देखेंगे कि वे सब रोजगार के लिए तमाम छोटीबड़ी दुकान, ढाबे तिब्बती चलाते हैं। जैसे कभी चीनी खाना खाना हो दुनिया में कहीं चले जाइए उस शहर में कोई तिब्बती रेस्टोरेंट भी होगा जो कम पैसे में ढेर सारा खाना खिलाएगा। हम लोगों के लिए भारततिब्बत सांस्कृतिक संबंधों का मूल्यांकन करते समय (जैसे और देश के साथ हम करते हैं जैसे भारत का श्रीलंका से क्या संबंध है?) तो कहानी को अशोक के समय तक ले जाते हैं। अशोक ने अपनी बेटी सुमित्रा और लड़के मयंक को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा। नेपाल में काठमांडू में एक बहुत बड़ा स्तूप है उसकोस्वयं स्तूपकहतेहैं।बताया गया कि अशोक की एक बेटी और थी चारुमति। वह नेपाल प्रचार करने के लिए गई।

एक समय ऐसा था कि धर्म के जरिए संस्कृति का आवागमन हुआ, संबंध बने। उसकी इतनी गहरी जड़ें हैं कि इतिहास के उलटपुलट होने के बावजूद वह स्मृतियां आज भी बची हुई है। श्रीलंका के इतिहास को मगध से जोड़ना पड़ेगा और ऐसे ही अगर वियतनामलाओसकंबोडिया की तरफ जाए तो उन सब में बौद्ध धर्म का वर्चस्व है और वह सब अपनीअपनी स्मृति में किसीकिसी भारतीय आचार्य, को किसीकिसी भारतीय इतिहास का दौर याद करते हैं। इंडोनेशिया का एक टापू हैबालीटापू।इंडोनेशिया की भाषा का नाम ही भाषा है और वह अपने आप को हिंदू धर्म से जोड़े हुए हैं।शेष इंडोनेशिया इस्लामी है लेकिन वे मानते हैं कि धर्म हमारा इस्लाम है संस्कृति हमारी रामायण से जुड़ी हुई है बुद्ध से जुड़ी हुई है। तिब्बत और भारत के इतिहास का जब हम स्मरण करते हैं तो दो काल हो जाएंगे। एक काल है बौद्ध काल के पहले का तिब्बत दूसरा कुछ ज़िक्र हमारे वैदिक काल में और महाभारत वगैरह कथाओं में आते हैं। महाभारत की कथाओं में बताया गया कि सारी दुनिया के तमाम सम्राट एक पक्ष और दूसरे पक्ष की तरफ से खड़े थे तो तिब्बत का भी ज़िक्र महाभारत में है।

वैदिक साहित्य में तिब्बत का नामत्रिविष्टपकरके है। वह भी एक संज्ञा या विशेषण है। लेकिन तिब्बत का जो सघन सांस्कृतिक इतिहास सातवींआठवीं शताब्दी से शुरू होता है।संस्कृति की तीन बड़ी धाराएं होती है।संस्कृति का संबंध तो तमाम ओर से हैं लेकिन आर्थिक दृष्टि से तिब्बत और भारत का लगभग 95% व्यापार है और 5% बाकी दुनिया से है जिसमें चीन भी शामिल है। हालांकि आज चीन अपने आप को तिब्बत का मालिक कहता है लेकिन तिब्बत और भारत का यह जो सांस्कृतिक पक्ष है उसका जो आर्थिक आधार है वह वस्तुओं के आदानप्रदान का था। नमक और मिट्टी के तेल से लेकर ऊनी कपड़ों तक का व्यापार और यह सब कुछ भारत का जो हिमालय क्षेत्र है हिमालय में किन्नौर और लद्दाख से लेकर के अरुणाचल प्रदेश तक का हिस्सा आता है।

वह सब तिब्बत से सरहद उसकी जोड़ती है और उनके आदानप्रदान की कहानियां और मार्ग अभी भी हैं, हालांकि वह उतना इस्तेमाल में नहीं है। जब से चीन का कब्जा तिब्बत पर हुआ तब से वह सारा इलाका चीनी सेना के हवाले है। जो इसका आर्थिक आधार था सांस्कृतिक पक्ष हुआ उसमें तीन संकेत आपको मिलेंगे। तीन आधार है जिन पर बाद में हम शोध करें, एक हैधर्म, आप जानते हैं कि खानपान का आदानप्रदान तो आसान है लेकिन धर्म का अनुकरण करना धर्म को स्वीकारना है। बहुत बड़ा सांस्कृतिक परिवर्तन है यह सांस्कृतिक क्रांति जैसा है जैसे भारत में इस्लाम भारत में ईसाइयत या बाली में हिंदू धर्म। वैसे ही तिब्बत में एक बौद्ध पूर्व काल भी था जो बड़ा प्रबल था लेकिन जब बौद्ध धर्म का प्रवेश वहां हुआ तो उसका इतना स्वागत हुआ कि आज तिब्बती लोग जिनकी 65 से 70 लाख के करीब आबादी है 95% लोग अपने आपको बौद्ध धर्म का अनुयायी कहते हैं।बौद्ध धर्म के चार संप्रदाय हैं और चारों संप्रदाय अपना मूल बुद्ध में जोड़ते हैं।

यही पक्ष है धर्म का और धर्म का विमर्श इतना केंद्रीय है कि पूरी तिब्बती समाज व्यवस्था लामाओं के इर्दगिर्द घूमती है। उनके जीवन का हर पक्ष धर्म द्वारा संबोधित है जैसे ईसाइयों का चर्च है, मुसलमानों की मस्जिद है, मदरसा है, वैसे ही बौद्ध लोगों के जीवन का केंद्र उनका मठ है। हिंदुओं में यह परंपरा नहीं है। हिंदुओं में कुछ समाज, संप्रदाय ऐसे हैं जैसे वोक्कालिंगा, लिंगायत इनके यहां धर्म के मठों की प्रमुखता है, कबीर पंथी किसी न किसी मठ से जुड़े हुए हैं।लेकिन बौद्धों में धर्म की केंद्रीयता है और धर्म में लामाओं की।अगर एक समाज ऐसा बैठा हुआ तो सबसे पहले लामाओं को संबोधित किया जाता है।भिक्षु होना सर्वोच्च पद है और उसके बाद गृहस्थ।धर्म का क्षेत्र केवल तिब्बत में नहीं है भारत और तिब्बत का एक संधि क्षेत्र है, मिलन क्षेत्र जोकि हिमालय, लद्दाख, किन्नौर और वहां से लेकर अरुणाचल तक।

इन लोगों के लिए दिल्ली का इतना महत्त्व नहीं है जितना ल्हासा का है। ल्हासा का महत्त्व इसलिए है क्योंकि वहां पर धर्म और राजशक्ति की पीठ है। बौद्धों में कई परंपराएं बनी उसमें से एक परंपरा तिब्बत की है जो धर्मप्रमुख है वही राज्य प्रमुख भी है, स्पिरिचुअल पावर और टेंपोरल पावर दोनों। यूरोप में इन दोनों का अलगाव हुआ। राजा अलग और धर्मगुरु अलग, जैसे सिख धर्म में बहुत दिनों तक पीरी और मीरी दोनों एक रहे।गुरु नानक उनके राजनीतिक मार्गदर्शक भी थे और धार्मिक गुरु भी।गुरु गोविंद सिंह जी के समय से पीरी और मीरी का फासला होने लगा और गुरु गोविंद सिंह जी के बाद सिख लोगों ने माना कि इसके बाद हमारा कोई गुरु नहीं होगा। हमारा मार्गदर्शन अब यह किताब करेगी। सभी गुरु ग्रंथ साहब को अपना ज्ञान स्रोत मानते हैं। तिब्बती लोग धर्म को आधार बनाते हैं अपनी राजनीति के लिए, अपनी समाज नीति के लिए और सांस्कृतिक जीवन के लिए भी। दूसरा संबंध संस्कृति का होता है, भाषा का। 200 वर्षों से अंग्रेज प्रयास कर रहे थे कि हमारी भाषा अंग्रेजी हो जाए और उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए तो अंग्रेजी को अनिवार्य बना रखा था। सर्वोच्च न्यायालय में उनका भूत अब तक छाया हुआ है।

सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा किसी भी भारतीय भाषा में आप माननीय न्यायाधीश को संबोधित नहीं कर सकते। न्याय ही नहीं मिलेगा अगर अंग्रेजी में निवेदन नहीं करेंगे। 200 बरस हो गए लेकिन अंग्रेजी की उन्होंने ऐसी की तैसी कर रखी है। मजाक ही चलता है कि दो भोजपुरिया मिल गए तो तीसरी भाषा में बात ही नहीं करेंगे, आपस में भोजपुरी में ही बात करेंगे। बंगाली मिल गए अंग्रेजी आती हो, जर्मन आती हो, फ्रेंच आती हो लेकिन वह बंगाली में बात करेंगे। तमिल का जो आत्म गौरव है हर किसी के मुकाबले में श्रेष्ठ है। ऐसे सांस्कृतिक इतिहासवादी मानवता के लिए किसी और भाषा को अपना बनाना अद्भुत है। उन्होंने नालंदा में जो भाषा विकसित हुई उसे अपना बनाया और यह संबंध उनकी लिपि, व्याकरण और साहित्य से आज तक अटूट है।

भारत में बौद्ध धर्म हाशिए पर चला गया। नालंदा की परंपरा बख्तियार खिलजी के हमले के बाद हाशिए पर चली गई। बहुत सारे आचार्यों को खत्म किया गया जो बचेखुचे हुए थे वे अपनी जान को बचाने के लिए हिमालय के सुदूर क्षेत्रों में चले गए। तिब्बती लोग और उनके तमाम आचार्यों ने भारत में आकर अपने मठों का निर्माण किया और परंपरा को बचाया। भाषा वाला संबंध है इसको भी ध्यान रखने की जरूरत है। भारत और तिब्बत की संस्कृति का एक पक्ष साहित्य है और बहुत सारे ज्ञानी यह मानते हैं कि तिब्बत भारत के लिए ज्ञानविज्ञान साहित्य का ट्रस्टी है, संरक्षक है। जब यहां पर सब जगह जलाओ, तोड़ो, हटाओ, खत्म करो का अभियान चल रहा था यह सारा ज्ञान अनूदित होकर के या मूलग्रंथों के रूप में तिब्बत के मंदिरों और मठों में सुरक्षित रखा गया।आचार्य राहुल सांकृत्यायन जी के उस ग्रंथ पर चर्चा होनी चाहिए कि तिब्बत में सवा साल उन्होंने क्या किया? कैसे लोगों से संपर्क बना? और कैसे उन्होंने उनका विश्वास जीता? और वह साहित्य ले आए और क्यों ले आए? क्योंकि वह अमूल्य ग्रंथ थे। कहते हैं कि भारत के बहुत सारे मूल ग्रंथ ना संस्कृत में हैं, ना तमिल में हैं, ना तेलुगु में हैं, ना बांग्ला में और हमारी मातृभाषा भोजपुरी में तो होने का सवाल ही नहीं है लेकिन वे तिब्बती में उपलब्ध हैं।

इस काम को सारनाथ में केंद्रीय उच्च बौद्ध विद्या संस्था पिछले 20- 25 साल से लगातार कर रही है। संस्कृत या पाली के ग्रंथों जिनका अनुवाद तिब्बती साधकों ने तिब्बती में किया, कुछ का अनुवाद चीनी में हुआ, वापस तिब्बती से संस्कृत में और कुछ साहित्य का तो हिंदी में भी अनुवाद हो रहा है।हमारा जो अपने पुरखों का बचा हुआ अमूल्य साहित्य था जिससे तिब्बती लोग प्रेरणा लेते थे, पूरी दुनिया में सिर्फ तिब्बत में बचा है। शताब्दियों पहले भारत का जो मूल साहित्य था जो जनजन के ज्ञान विज्ञान के काम आता था वह यहां नष्ट हो गया लेकिन तिब्बत ने बचा लिया। तिब्बत एक मायने में हमारा शिष्य ही था लेकिन आज वह हमारा ट्रस्टी है जिसने हमारी पूंजी को सहेज कर रखा।

जैसेजैसे हमारी क्षमता बढ़ेगी और हमारी अपनी अस्मिता का आग्रह बढ़ेगा वह सारा साहित्य धीरेधीरे उपलब्ध होगा और तब हम उस अज्ञात पक्ष के बारे में ज्यादा जान सकेंगे। एक एहसान का भाव भी हम लोगों को तिब्बत के बारे में रखना चाहिए। हालांकि खुद तिब्बत के लगभग 6000 मठ और मंदिर नष्ट किये जा चुके हैं।वहां जब से माओवाद का दबाव बढ़ा तब उन्होंने धर्म को प्रतिक्रियावादी विमर्श माना और उस प्रतिक्रियावादी विमर्श को नष्ट करना था तो उन्होंने पहले मठों को नष्ट किया। लामा और भिक्षुणी बनने की परंपरा थी। घर के श्रेष्ठ बच्चे और बच्चियों होते, सबसे बड़ा लड़का या लड़की अथवा सबसे छोटा लड़का या लड़की उन दो में से किन्हीं एक को या कभी दोनों को धर्म को समर्पित करने की परंपरा थी वह परंपरा आज तक हिमालय के भारतीयों में बची हुई है।

लद्दाख, किन्नौर, स्फीति और अरुणाचल में लेकिन तिब्बत में तो यह अपनी श्रेष्ठतम रूप में थी और दलाई लामा के भारत में निर्वासित जीवन के बावजूद तिब्बत में यह परंपरा बची हुई है।विचारधारा आधारित पार्टी ने जाने किस विश्लेषण के आधार पर उसको अपना शत्रु घोषित किया और उनको खत्म करने का काम किया। वहां जो कुछ बचा था वह भी नष्ट होने के किनारे आ गया और इसके बारे में चीन के मौजूदा शासकों को कोई अपराध बोध नहीं है। हम लोगों को जो चीन, रूस, जर्मनी, इंग्लैंड के संग्रहालयों में तिब्बत के अमूल्य साहित्य का जो भी अंश बचा है उसकी फिर से कैटालॉगिंग करनी चाहिए। हैदराबाद में जो प्रयास हो रहा है उसका एक पक्ष यह भी हो कि कौनसा ऐसा साहित्य है जो तिब्बती में उपलब्ध है और संस्कृत और पाली में विलुप्त हो चुका है। वह कहां है और उसके बाद उसका पुनर्पाठ हो। पहला इतिहास का संबंध है, दूसरा भाषा और धर्म का और तीसरा जीवन शैली का।संस्कृति का यह पक्ष है कि तीज त्यौहारों का ज्ञान अब नहीं रहा।

12वीं-13वीं शताब्दी के बाद कड़ियां टूट गई। भारत से तिब्बत जाना और तिब्बत से भारत आना। व्यापार 19वीं शताब्दी तक रहा और उसी व्यापार के जरिए थोड़ा बहुत हम जानते हैं। इस्लाम का भारत में आगमन व्यापारियों के जरिए हुआ। केरल के राजा जामरीन मक्का मदीना की यात्रा पर गए और वहां इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया और लौट करके जब आए तो पहले मस्जिद बनाने की इजाजत दी। ऐसे और भी इलाकों में अरब देशों से व्यापार होता था। हिन्द महासागर हमारे लिए तालाब जैसा था। आंध्र, विजयनगर और तमिलनाडु तक लोग नौसैनिक थे।उड़ीसा में एक खास दिन पूर्णिमा का होता है।उस दिन कटक से एक यात्रा प्रतीकात्मक तौर पर शुरू हुई जिसका नाम ही बानिज यात्रा है। उस दिन सैकड़ों साल से बाली की तरफ जाने के लिए व्यापारी लोग अपनी नाव सजा करके वहां से भर के जाते थे। पूर्णिमा की रात समुद्र अनुकूल होता है। बाली और उड़ीसा का संबंध था। इसीलिए उड़ीसा के मुख्यमंत्री हुए बीजू पटनायक को इंडोनेशिया का सर्वोच्च सम्मान दिया गया। ओड़िया और इंडोनेशिया के लोगों का सांस्कृतिक इतिहास आज भी उनकी स्मृतियों में है।

इस तरह से व्यापार तो बना रहा और व्यापार के नाते तीजत्योहारों की जानकारी भी। लेकिन इधर का हिस्सा सूख गया। बौद्ध धर्म ही खत्म हो गया तो फिर क्या बौद्ध विरासत और क्या बौद्ध परंपराएं? बहुत सारे भारतीय खासकर हिंदू धर्म के अनुयायियों ने बुद्ध को विष्णु का दसवां अवतार मान लिया तो करीबकरीब सब सिमटता गया। अब भी बोधगया में बुद्ध से जुड़ा मंदिर है जिसके प्रबंधन में आधी कमेटी हिंदू होती है क्योंकि हिंदुओं ने भी उसको अपना तीर्थ स्थान बना लिया। लेकिन एक समय ऐसा था जब बौद्ध धर्म के प्रति बड़ा आक्रामक भाव था। खास करके राजा पुष्यमित्र शुंग और शशांक ने बोधगया का विनाश करने में बराबर इतिहास में अपनी जगह बनाई। वह पेड़ ही जड़ से उखाड़ दिया गया, जला दिया बल्कि जिस पेड़ के नीचे कहते हैं कि बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ। अब भी बोधगया का जो बोधि वृक्ष है जिसकी पूजा करने के लिए दुनिया भर से हज़ारों लोग आते हैं, वह उस पेड़ की शाखा है जो अशोक ने अपनी बेटी और बेटे के जरिए श्रीलंका भेजा था।

वह वृक्ष श्रीलंका में लगाया गया। वह विराट हो गया और सुरक्षित रहा। अनागरिक धर्मपाल 19वीं शताब्दी के समाज सुधारक थे। आध्यात्मिक पुरुष जो मूलतः ईसाई थे बाद में बौद्ध हो गए। उन्होंने बौद्ध तीर्थों का पुनरुद्धार करने का संकल्प लिया। वे संपन्न व्यक्ति थे। उन्होंने वहां से श्रीलंका में जो वृक्ष था, बोधगया का मूल वृक्ष जिसे आततायी राजाओं द्वारा जला दिया गया, उससे एक शाखा ले आए और फिर वहां वृक्ष लग गया।एक विराट अंतरराष्ट्रीय तीर्थ स्थान बन गया।भारत और तिब्बत की संस्कृति के दो संपर्क थे धर्म और भाषा तथा तीसरा जीवन शैली का था।समकालीन संबंधों की ओर ध्यान देना चाहिए।बौद्धधर्म दुनिया का इस समय सबसे तेजी से बढ़ रहा धर्म है।बौद्ध धर्म यूरोप और अमेरिका में फैला है क्योंकि यह धर्मग्रंथ आधारित नहीं है, धर्म गुरु आधारित भी नहीं है वह आप दीपो भव का संदेश है।

आपको यह बात इसलिए नहीं माननी है कि आचार्य ने कहा। इसलिए भी नहीं माननी है कि ढेर सारे लोग उसको मानते हैं। इसलिए तो नहीं ही मानिए कि किताबों में लिखा है आप तभी मानिए जब आपको विवेक या तर्क की कसौटी पर उचित लगे। यही रेशनलिज़्म है जो आज का जीवन दर्शन है। साइंटिफिक टेंपर जिसको कहते हैं, विवेक सम्मत हो, तर्क सम्मत हो तभी स्वीकार्य है नहीं तो स्वीकार्य नहीं है और यही बुद्ध धर्म का मूल संदेश था। इस समय भारतीय संस्कृति में पश्चिमीकरण और देशीकरण का संक्रमण चल रहा है। अस्मिता और आधुनिकता के बीच में एक तनावसाहै।किस हद तक का आधुनिक बने और किस हद तक हम अपने अस्मिता को बचा कर रखें। अभी नवरात्र बीता है तो बड़ेबड़े आधुनिक परिवारों में 9 दिन नॉनवेज नहीं बनेगा, प्याजलहसुन नहीं बनेगा और नौवें दिन तो पूजा में थोड़ी देर बैठना ही पड़ेगा नहीं तो घर में झगड़ा हो जाएगा। स्त्रियां अभी भी संस्कृति के प्रति पुरुषों की तुलना में ज़्यादा आग्रही होती हैं। पुरुषों के लिए कहा जाता है गंगा गए तो गंगा दास और जमुना गए तो जमुना दास।

यह एक समाज वैज्ञानिक सच है।हमारा आधुनिकता और अस्मिता के बीच तनाव का संबंध है क्या करें, क्या ना करें यह हमेशा एक विवेकपूर्ण निर्णय होता है। यह हमको ठीक लगता है तो करना है इसलिए नहीं करना है हमको ठीक नहीं लगता है तो नहीं करना है, भले ही हमारे दादापरदादाओं के जमाने की परंपरा रही हो। आज दलाई लामा और तिब्बती लोग हमारा जो एक स्वर्ण युग था बुद्ध से लेकर के 11वीं-12वीं शताब्दी तक का चिंतन की दृष्टि, जीवन की दृष्टि उसे सामने रखते हैं।जिस सरलता से दलाई लामा कहते हैं कि हर व्यक्ति बल्कि हर प्राणी सुख चाहता है ऐसा कोई प्राणी नहीं होगा, शेर से लेकर के सूदखोर महाजन तक जो दुख खोज रहा हो। सब सुख खोजते हैं और सुख का मूल कहां है, अनासक्ति में है, अपरिग्रह में है और यह बात गांधीजी भी समझ गए थे। गांधी तो आजकल कुछ लोगों के निशाने पर हैं। सौभाग्य की बात है कि बुद्ध भगवान निशाने पर नहीं हैं और बुद्ध के प्रवक्ता इस समय दलाई लामा हैं।बौद्ध धर्म भारत में भी है।बौद्ध अनुयायी एक बड़ी तादाद में है।

उनका एक पुनर्विस्तार बाबासाहेब अंबेडकर के जमाने में हुआ। 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कियादीक्षाभूमि नागपुर में जहां हर साल बड़ा मेला लगता है जहां बौद्धों की खासकर दलित समाज में एक उपस्थिति है। जहां तक ज्ञान की व्याख्या और संस्कृति का प्रबोधन है, यह दलाई लामा से बेहतर अभी कोई नहीं कर सकता है। दलाई लामा एक तरीके से भारत का जो सांस्कृतिक कर्ज था उसको सूद सहित वापस लौटा रहे हैं। दूसरा भारत की आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति का संरक्षण तिब्बत में हुआ। मैंभारत तिब्बत मैत्री संघका एक वालंटियर हूं मुझे अक्सर ऐसे लोग जिनका धर्म और संस्कृति, बौद्ध धर्म तथा तिब्बत से कोई सरोकार नहीं है, उनका फोन आता है इसलिए आता है तिब्बती चिकित्सा पद्धति का लाभ उठाना चाहते हैं।

कई रोग ऐसे हैं खासतौर पर कैंसर, जो चार स्टेज आपके शरीर को सताता है। पहले और दूसरी स्टेज का अगर कैंसर है तो तिब्बतियों के पास चिकित्सा पद्धति बची हुई है जिससे बिमारी काबू में कर लेते हैं। वे लोग धर्मशाला में और अन्य जगह तिब्बती चिकित्सा केंद्र चलाते हैं। तिब्बती लोगों से पूछिए तो वे बताते हैं कि यह चिकित्सा पद्धति हमारी मौलिक नहीं है। हमको इसका बहुत बड़ा अंश 50% से ज्यादा भारतीय आचार्यों से मिला है। हमारे यहां वह परंपरा टूट गई, उन्होंने उसे बचा कर रखा है।आज के समय में जीवन शैली से लेकर के स्वास्थ्य रक्षा तक तिब्बत के लोग प्रवासी, राष्ट्र विहीन, अपना देश चीन को खो देने के बावजूद अपने तरीके से एक धारा प्रवाहित कर रहे हैं। इसमें भारत के लोगों का बहुत लाभ हो रहा है। एक और बात जो इस समय भारत के जीवन दर्शन का सारांश हैवसुधैव कुटुंबकम।

इसका भी पुनस्मरण दलाई लामा करवाते हैं। वह जहां जा रहे हैं वहां युद्ध के विरोध में है, अहिंसा के पक्ष में है, करुणा और मैत्री का संदेश देते हैं तथा चीन जिसने उनको इतना प्रताड़ित कर रखा है उसके बारे में भी वह कहते हैं कि हम चीनियों का बुरा नहीं चाहते। चीन का भी बुरा नहीं चाहते लेकिन वे चाहते हैं कि उनकी अस्मिता, स्वायत्तता, भाषा, संस्कृति, धर्म और जीवन शैली बची रहे।यह बात दलाई लामा कह रहे हैं और दलाई लामा भारत में है तो एक तरीके से वह भारत की विश्व में नवीन छवि निर्माण भी कर रहे हैं। दुनिया में 182 देश संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य हैं और उनमें से बहुत सारे देश यूरोप, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया अपने आप को जनतांत्रिक भी कहते हैं लेकिन दुनिया में चीन के आतंक के कारण कोई भी तिब्बती लोगों खास तौर पर दलाई लामा को मदद करने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन 1959 से आज तक दलाई लामा भारत में रहते हैं।जब कभी वह कहते हैं कि हम आपके शरणार्थी हैं तो भारतीय लोग इस पर एतराज करते हैं।वे कहते हैं कि आप लोग शरणार्थी नहीं हमारे अतिथि हैं।हर तरीके से उनकी अस्मिता बचाने में भारत का योगदान है।इससे भारत की एक अलग सांस्कृतिक छवि उन तमाम लोगों में है जो तिब्बत समर्थक हैं।

जहां तक तिब्बत का सवाल है जहांजहां तिब्बत की मुक्ति के समर्थक है वे तिब्बतियों के प्रति अनुराग के भाव के साथसाथ भारत के प्रति भी एक बहुत सकारात्मक भाव रखते हैं। तिब्बत के तकरीबन 1,20,000 लोग दुनिया में शरणार्थी हैं उसमें से लगभग 90 हजार लोग भारत या नेपाल में हैं। इस तरीके से भारत की शरणागत को सुरक्षित रखने की जो विरासत रही है उसके प्रतीक के तौर पर यह बात भी है। तिब्बत और भारत का जो संबंध है वह वर्तमान के जरिए अतीत को समझने की कोशिश के जरिए समझ में आएगा। उसमें से तीन सेतु अभी भी बचे हुए हैपहला बौद्ध धर्म का उदय भारत में हुआ और बुद्ध को वे अपना मार्गदर्शक मानते हैं।

दूसरा भाषा और लिपि का संबंध है। चीन भी तिब्बत के पड़ोस में है और तिब्बत पर दावा करता है किंतु तिब्बत की भाषा पर असर बिहार का है। नालंदा के प्रति उनमें आभार का भाव है क्योंकि इतिहास में उनके आचार्य नालंदा आए और उन्होंने अपनी भाषा और व्याकरण विकसित किया। उन्होंने शब्दावली और वर्णमाला विकसित की और अपनी लिपि को आज भी वे नालंदा में सृजित लिपि मानते हैं। तीसरा जीवन शैली का संबंध है। परिवार के अंदर से यानी अपने लड़केलड़कियों में से एक लड़के और एक लड़के को एक को भिक्षु और एक को धर्म प्रचार के लिए भिक्षुणी बनाने की जो पुरानी परंपरा अशोक के जमाने से चलाए जा रहे हैं।सिखों में भी यह परंपरा आज तक चली आ रही है।सिखों में एक लड़के को पूरी तरीके से पगड़ी धारीकेशधारी बना देते हैं। वह धर्म के लिए समर्पित हो जाता है लेकिन अब उनका अस्तित्व खतरे में है। जैसा भारत, पाकिस्तान, ईरान, श्रीलंका और नेपाल के लड़के लड़कियों में चलन है वैसे ही तिब्बत की भी नई पीढ़ी पर पश्चिम में जाने का दबाव है। पश्चिम में अवसर है, पश्चिम में आकाश है, पश्चिम में आज़ादी है। यह वहां जाएंगे तो मालूम होगा लेकिन यहां से यही लगता है कि अगर दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो वहीं है।

भारत और तिब्बत का जो सांस्कृतिक इतिहास है वह बहुत रोमांचक है उसमें कश्मीर से लेकर के बिहार बंगाल तक का आज भी उनका स्मरण है। उनके बड़े आचार्यों के जन्म स्थान, उनके वंश का उनको स्मरण है।दूसरे वे हमारे ट्रस्टी बने।भारत में विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा जब विध्वंश की खतरनाक लहर आई तब हमारा अध्यात्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक साहित्य तिब्बत में सुरक्षित रखा गया। उसका अनुवाद किया अब उसको वापस लौटाने का काम कर रहे हैं। भारत के शरणार्थी होने के नाते दलाई लामा और उन हजारों तिब्बतियों द्वारा 1959 से आज तक 60 साल से लगातार निर्माण का कार्य हो रहा है। उनका यह कहना कि भारत हमारा गुरु देश है और हमारा यह कहना कि भारत और तिब्बत की संस्कृति एक ही बोधि वृक्ष की दो शाखाएं हैं एक भारत, एक तिब्बती है। हमारी और उनकी एक अलग किस्म की विशिष्ट एकता और निकटता का आधार बनाती है। इसका जितना अध्ययन किया जा सके उतना उपयोगी रहेगा।

(25 अक्तूबर, 2023 को दिया गया विशेष व्याख्यान, शब्दांकनः मनीषा महेश कुमार)

आभार : संकल्य पत्रिका

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