— ओमा —
तो जी एक थी बिल्ली वो जिसके भाग से छींके फूटते रहे… दूसरी थी वो बिल्लियां जिनकी आपसे लड़ाई में बंदर रोटी लील गया…! यूं तो दोनों बिल्लियां पहले पता नहीं कहां रहती थीं… पर आज तीनों की तीनों दिल्ली में दिखाई दीं… दो बिल्लियों की लड़ाई में तीसरी बिल्ली दिल्ली की रोटी ले उड़ी…।
यूं तो राजनीति अवसरवाद का ही एक सभ्य नाम मात्र है… किन्तु कभी कभी यह अपने वास्तविक चरित्र में स्पष्ट मूर्तिमान हो जाता है… जैसा कि एक दशक पहले भारत की राजनीति में यह दो राजनेताओं में प्रचंड रूप से प्रकट हुआ.. जिनमें पहला नाम है देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन “नरेंद्र मोदी” का तो दूसरा दिल्ली की गद्दी से आज ही पदच्युत हुए “अरविंद केजरीवाल”..।
२०११ के आसपास अचानक देश की जनता को देश भर में भ्रष्टाचार दिखाई देने लगा(यद्यपि वह जनता में ही व्याप्त रहता है) और सुनाई देने लगा “हिन्दू विरुद्ध उठता सरकारी स्वर”…देश में हर तरफ काले धन और इस्लामिक आतंकवाद की चर्चा उफान पर आ गई थी… लोगों को हमेशा की तरह उस समय के आधे अधूरे प्रधानमंत्री “मनमोहन सिंह” से शिकायत होते होते नफरत होने लगी… सवाल उठते उठते शोर के बदलने लगा…शोर नारों में… नारे प्रदर्शन में और प्रदर्शन आंदोलन में बदल गया… एक व्यापारी बाबा की छोड़े “कालधन” शिगूफे से एक “कन्फ्यूज्ड गांधीवादी” ने अनशन और आंदोलन का ऐसा गुल खिलाया कि
चमचमाती यू•पी•ए• सरकार का चेहरा केंद्र में और लगभग दो दशकों से राज कर रही “शीला दीक्षित” का दिल्ली में रंग उड़ने लगा…और उधर दूर से इस अवसर को भांप कर विज्ञापनों के अतुलनीय रथ पर सवार लाल चौक और गोधरा कांड से चर्चा में आए नरेंद्र मोदी ने संसद में बड़ी धूमधाम से प्रवेश किया… एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने “आपदा में अवसर” खोज कर के “अपना विकास” किया…और जनता को एक ऐसे “भाषण युग” में बैठा दिया जहां संवाद का अर्थ भाषण बन गया और प्रश्न का अर्थ विद्रोह..! खैर जो भी हो… नरेंद्र मोदी ने इस देश में बहुसंख्यकवाद का एक ऐसा तूफान खड़ा किया है कि जिसको रोकने में अबतक कोई भी दल अथवा बुद्धिजीवी समूह सफल नहीं हो सका है… हमको यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि “मोदी आज बहुसंख्यकवाद” का प्रतिमान है..।
दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल नाम है उस अवसरवादी राजनेता का जिसने अन्ना हजारे,किरण बेदी,अरविंद गौड़ जैसे आंदोलन कर्ताओं को छलते हुए बड़ी तेज़ी से समाजसेवक से राजनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ से दिल्ली के मुख्यमंत्री पद तक का सफर कोई कुछ एक साल में ही पूरा कर लिया…और मोदी मॉडल पर ही विज्ञापन बल का भरपूर प्रयोग करते हुए दिल्ली में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया… साथ ही साथ बिजली,पानी, स्वास्थ और शिक्षा के क्षेत्र में “मुफ्त” शब्द का ऐसा आकर्षण भरा की आज वह भारतीय राजनीति का सबसे प्रभावी जुमला बन चुका है।
एक दशक से यह दोनों राजनेता एक ही शहर यानी देश के दिल दिल्ली में में अपना अपना अधिकार जमाए बैठे हुए थे… कि फिर गुजरात और पंजाब के चुनाव आए… गुजरात से हौसला ले कर और पंजाब की गद्दी जीत कर तो केजरीवाल केंद्र में अपना स्थान अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखने लग चुके थे… और वो ही क्यों देश भर में भी “उनकी ईमानदारी” तथा “क्रांतिकारी चरित” की चर्चा उनके रूप में एक प्रधानमंत्री दावेदार की कल्पना करने लगी थी(इस सूची में राहुल,ममता ही दो प्रमुख नाम और थे)… कि तभी दिल्ली शराब घोटाला नाम का एक छोटा किन्तु घातक सूचना बम विस्फोट हुआ… देखते देखते दिल्ली विधानसभा के सबसे चमकीले चेहरे तिहाड़ के अंधेरों में नज़र आने लगे… और इस तरह दिल्ली में केजरीवाल सरकार की उल्टी गिनती चालू हो गई… ऐसे ही बुरे समय में देश लोकसभा चुनाव का बिगुल फूंका… और इस बार मोदी बनाम विपक्ष का एक नया युद्ध सामने आया… केजरीवाल ने कई प्रांतीय दलों के साथ “इंडिया गठबंधन” (जिसका आरंभ करने वाले नीतीश बाबू स्वयं उससे बाहर आ गए थे) का दामन थाम लिया… ऐसे में कांग्रेस के लोकसभाई वोट में कई प्रांतीय दलों ने सेंधमारी की और अपने आपको संसद में बड़े पैमाने पर दाखिल करवा दिया… चुनावी परिणाम मोदी के विराट विज्ञापनों के बवंडर के मध्य भी मोदी के चेहरे पर धूल उड़ाते हुए आए…देश में एक दशक से अदृश्य विपक्ष आप शक्तिशाली हो कर सदन में बैठ गया था…
लेकिन सदन के बाहर इन प्रांतीय नेताओं को यह खुशफहमी भी जल्द होने लग गई की यह जीती उनके चेहरे और दल की है… कहीं न कहीं उनमें नरेंद्र मोदी सा होने का वहम होने लग गया (यकीनन इसमें उनके आसपास बैठे चमचों की बड़ी भूमिका होती है) वह यह बार बार भूलने लगे कि नरेंद्र मोदी एक सामान्य व्यक्ति नहीं अपितु भारत में “कट्टर हिंदुत्ववादी” राजनीति का प्रतीक है… जबकि दूसरे प्रांतीय दल के नेतृत्व में उनकी ही घोषित विचारधारा का कोई अक्स नज़र नहीं आता है… और “आप” के केजरीवाल की तो राजनीतिक विचारधारा ही अबतक साफ नहीं हो सकी… ऐसे में अतिआत्मविश्वास से भर कर दिल्ली चुनाव में कांग्रेस का हाथ झटक देना उन पर भारी पड़ गया…! एक ओर जहां बीजेपी दिल्ली में केजरीवाल के कांग्रेस को ले कर दोहरे मापदण्ड का प्रचार करने में कामयाब रही वहीं कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारो को “आप” पार्टी के विरुद्ध चुन चुन कर ऐसे उतारा की केजरीवाल की दुश्वारियां बढ़ती ही चली गईं… उसमें ओवैसी एण्ड पार्टी का “बांटों काटो” भी ज़ारी था… नतीजा केजरीवाल की “आप” मुंह के बल जा गिरी… और दिल्ली में तीस साल बाद बीजेपी की सत्ता लौट आई..।
यहां एक बात याद रखने को है… की केजरीवाल ने अपने कद को पार्टी से बड़ा रखने की जो कोशिश की वो इनके पतन का सबसे बड़ा कारण बन गया… केजरीवाल के फंसते ही पार्टी फंसने लगी…और लोगों को दिखने लगा कि यह “आम आदमी” के नाम पर “एक आदमी” की पार्टी है(इस बात से अभी क्षेत्रीय दलों को सबक लेना चाहिए)और इसमें भी समय आने पर “नेपोटिज्म” का सांप फन फैला लेगा… ऐसे में लोगों का विश्वास डगमगा गया… और ठीक उसी समय “मोदी पार्टी” ने केजरीवाल प्रदत्त सुविधाओं में और बढ़ोत्तरी करते हुए जब लोभ जाल फेंका तो दिल्ली ठगी सी रह गई… उस पर कांग्रेस(जो आप की नैसर्गिक शत्रु है) उसने भी फिलहाल “दुश्मन का दुश्मन दोस्त” वाली नीति को अपना कर “आप” को चारो खाने चित्त कर दिया..।
जी हां! ये हार है व्यक्तिगत दंभ की…नायक वादी सोच की…विचार विहीन राजनीति की…और दूरगामी राजनीति की समझ ना होने की..! और यह जीत है दूरगामी राजनीतिक समझ की…वैचारिक राजनीति की…ठोस संगठन शक्ति की और विज्ञापनों की असीम शक्ति की।।
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