आजकल कुम्भ के बरक्स गंगाजल की शुद्धता को लेकर खूब बहस हो रही है। जो उसे अशुद्ध मानते हैं उनके अपने तर्क हैं वह भी एक सरकारी नियंत्रण में चलने वाली एजेंसी की वैज्ञानिक रिपोर्ट के आधार पर, जाहिर ये वैज्ञानिक इस सरकार के अपने ही लोग हैं जो वर्तमान राजनीतिक वातावरण में सरकार के खिलाफ काम नहीं कर सकते, करना चाहें भी तो।
अब जो उसे शुद्ध मानते हैं वे मूलतः तीन तरह के लोग हैं:
१) एक तो वे जो गंगा नदी के प्रति आदिकाल से चली आ रही धार्मिक और आध्यात्मिक आस्था के कारण जिनके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है, कहना भी नहीं चाहिए, उनमे से अधिकांश भले और मासूम लोग हैं जिनके लिए आस्था किसी भी चीज़ से बढ़कर है। ऐसे लोग सभी धर्मों में होते हैं और वे मेरे लिए बिलकुल भी आलोचना का विषय नहीं हैं।
२) दूसरे वे जो विज्ञान की अपनी अधकचरी समझ के कारण वैज्ञानिक/तकनीकी शब्दों का घालमेल करके अपनी आस्था को श्रेष्ठ बताना चाहते हैं
३) तीसरे ऐसे लोग हैं जो विज्ञान और तकनीकी समझ के बाद भी किसी राजनीतिक या करियर सम्बन्धी महत्त्वाकांक्षा के कारण वर्तमान राजनीतिक प्रतिष्ठान के निकट जाने के लिए विज्ञान की आधी जानकारी को झूठ के साथ मिला जुला कर वही सिद्ध करते हैं जो राजनीतिक प्रतिष्ठान के लिए सुविधाजनक होता है। ये लोग ही धर्म, समाज, और अंततः विज्ञान के लिए असली खतरा होते हैं क्योंकि जो यह कह या कर रहे होते हैं वह pseudoscience की श्रेणी में आता है।
अब आते हैं गंगाजल की शुद्धता पर – इस समय सोशल मीडिया पर कई वीडियो तैर रहे हैं जिसमे कोई अजय सोनकर नामक वर्तमान सत्ता से “पद्मश्री” प्राप्त वैज्ञानिक है जिसे माइक्रोबायोलॉजी की किसी विधा में ट्रेनिंग है इस बात का का कोई प्रमाण नहीं है. यह वैज्ञानिक कह रहा है कि उसके परीक्षण में संगम से प्राप्त विभिन्न नमूनों में जितने भी बैक्टीरिया मिले वे सब मरे हुए थे, जीवित नहीं थे, इसलिए वह पानी सुरक्षित है। आगे यह वैज्ञानिक यह भी कहता है कि चूँकि गंगा जल में बैक्टीरिओफेज नामक वायरस होता है वह सारे बैक्टीरिया को मार डालता है इसलिए ये बैक्टीरिया मर गए और पानी सुरक्षित है।
ऐसी बात केवल वह व्यक्ति कर सकता है जिसे माइक्रोबायोलॉजी की बेहद सतही समझ हो।
अब आते हैं तथ्यों पर – यह बात सही है कि गंगाजल में बैक्टीरिओफेज नामक वायरस पाया जाता है जिसका मुख्य काम है बैक्टीरिया को मारना। यह आज की नहीं सौ साल से भी पुरानी खोज है। दरअसल Hankin नामक एक अँगरेज़ वैज्ञानिक था जिसने १८८६ में ही अपने कई सारे प्रयोगों से यह सिद्ध किया था कि गंगा और यमुना दोनों में ही ऐसे कुछ तत्त्व हैं जिनकी वजह से काफी मात्रा में बैक्टीरिया होने के बावजूद इन नदियों के पानी का इस्तेमाल करने वालों में उतनी बीमारी नहीं फैलती जितनी होनी चाहिए। उस वक्त तक “बैक्टीरिओफेज” नाम के वायरस की खोज नहीं हुई थी, पर कुछ दशकों के बाद १९१५ और १९१७ के बीच William Twort और Felix d’Herelle ने इस वायरस को खोज निकाला जिसका नाम Bacteriophage रखा गया क्योंकि यह बैक्टीरिया को खा जाता है, phage का मतलब खाना होता है.
इसके बाद तो मेडिकल साइंस का लिटरेचर bacteriophage पर हुए शोध से भरा पड़ा है, इन सौ सालों में लाखों शोधपत्र प्रकाशित हुए हैं इस विशिष्ट किस्म के वायरस पर क्योंकि एंटीबायोटिक की खोज से पहले वैज्ञानिकों को लगा कि शायद इस खास किस्म के bacteriophage से बैक्टीरिया जनित बीमारियों पर नियंत्रण किया जा सकता है। खैर, आज हज़ारों किस्म के एंटीबायोटिक्स के होने के बावजूद हज़ारों किस्म के bacteriophage का अध्ययन जारी है क्योंकि इसका उपयोग तमाम तरह के medical fields के अलावा evolutionary biologists, bacterial geneticists खूब करते हैं क्योंकि जीव की उत्पत्ति से लेकर लगातार चल रहे सभी तरह के जैविक evolution में जेनेटिक मटेरियल के ट्रांसफर का काम भी ये bacteriophage करते हैं। हमारे जैसे मॉलिक्यूलर biologists के लिए तो यह वरदान है, जो हमारे रोजाना के एक्सपेरिमेंट्स में काम आता है।
खैर, अब आते हैं मुद्दे पर – bacteriophage की खोज विदेशों में होने के बाद भारत में भी ऐसे शोध हुए जिसमे यह पाया गया कि कैसे गंगा जल में मौजूद bacteriophage की वजह से हानिकारक बैक्टीरिया मर जाते हैं और यह जल इस तरह शुद्ध या इस्तेमाल करने लायक बना रहता है। यहाँ तक यह बात तथ्यात्मक रूप से सही है।
विज्ञान खासकर मेडिकल साइंस बेहद जटिल विषय है जिसे पढ़ने में सिर्फ १०-१५ साल लगते हैं। जो शोधार्थी हैं वे तो जीवन खपा देते हैं फिर भी शरीर/कोशिकाओं की और उसमे होने वाली बीमारियों की पूरी समझ नहीं बन पाती।
सो बैक्टीरिओफेज के बारे में एक बहुत ही मूल बात समझनी होगी कि चाहे नदी का पानी हो या कोई भी अन्य तरह का वातावरण उसमे बैक्टीरिओफेज अकेले लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकता। बल्कि कोई भी वायरस अकेले नहीं जिन्दा रह सकता, उसे कोई न कोई कोशिका चाहिए जिसे साइंस की भाषा में host कहते हैं जिसमे इन्फेक्शन करके ही और उसके जेनेटिक सिस्टम को हाईजैक करके वे अपनी संतति आगे बढ़ाते हैं और इस तरह सारे वायरस अपनी लाइफ साइकिल आगे बढ़ाते हैं। बैक्टीरिओफेज चूँकि बैक्टीरिया को खाता है इसीलिए उसे लम्बे समय तक जिन्दा रहने के लिए बैक्टीरिया का आस पास होना जरुरी है।
वैसे तो एक बेहद जटिल सिस्टम का यह सरलीकरण है पर यह यह कहना गलत नहीं है कि गंगा जल या किसी भी अन्य नदी या तालाब या धरती की किसी भी सतह पर बैक्टीरिओफेज पाए ही तभी जाते हैं जब वहां बैक्टीरिया हो। हाँ ऐसे शोध हुए हैं जिसमे बताया गया है कि अन्य भारतीय नदियों की तुलना में गंगा में अधिक मात्रा में और अधिक प्रकार के बैक्टीरिओफेज पाए गए हैं तो इसका एक सीधा कारण यह है कि गंगा भारत की एक प्रमुख नदी है जो काफी लम्बी भी है और अगर मैं गलत नहीं हूँ तो गंगा की तुलना में कोई भारतीय नदी ऐसी नहीं है जिसके आस पास इतने बड़े-बड़े और सघन आबादी वाले प्राचीनतम नगर हों जितना गंगा के किनारे हैं। स्वाभाविक है ये मानव जनित रोगकारी बैक्टीरिया और उनके साथ साथ बैक्टीरिओफेज भी गंगा में आ जाते हैं।
अब अगर अचानक एक नदी में ढेर सारा सीवर का पानी आ रहा हो जिसमे खूब सारा मानव जनित रोगकारी बैक्टीरिया आ रहा हो और ऊपर से करोड़ों की संख्या में मनुष्य भी उसे जगह पर जाकर अपनी गन्दगी साफ़ करने लगें तो इतने बैक्टीरिया हो जायेंगे कि बैक्टीरिओफेज का असर काफी नहीं होगा बैक्टीरिया के ओवरलोड को समाप्त करने का।
वैसे भी ध्यान रहे कि बैक्टीरिओफेज केवल अपने जीने के लिए यानी अपनी लाइफ साइकिल आगे बढ़ाने के लिए बैक्टीरिया को नष्ट करता है जहाँ वह अपना अड्डा बनाकर सुरक्षित रह सके, उसका यह प्रमुख काम नहीं है कि वह बैक्टीरिया को खाता यानी नष्ट करता फिरे। उसे क्या पता कि मनुष्य उसके भरोसे बैठा है कि चाहे जितना बैक्टीरियल लोड बढ़ता रहे और बैक्टीरिओफेज मनुष्यों का छोड़ा हुआ बैक्टीरिया नष्ट करता रहेगा।
एक बात और कि सामान्य तरीके से माइक्रोस्कोप से देखे गए बैक्टीरिया मरे हुए ही होते हैं क्योंकि देखे जाने के लिए बैक्टीरियल सैंपल की एक ख़ास किस्म की डाई से स्टेनिंग की जाती है जिस प्रक्रिया में बैक्टीरिया वैसे भी मर जाते हैं। इस सोनकर नामक ने उन्हें केवल माइक्रोस्कोप से देखा है, हालाँकि जीवित बैक्टीरिया भी माइक्रोस्कोप से देखे जा सकते हैं पर उसके लिए विशेष किस्म की स्टेनिंग की जरुरत होती है और यह आदमी उतना योग्य नहीं लगता जो वह कर पाया होगा। न ही उसकी लैब में ये सुविधाएं हैं।
यूँ भी अगर बैक्टीरिओफेज ने बैक्टीरिया को मारा होता जैसा यह वैज्ञानिक दावा कर रहा है तो माइक्रोस्कोप से देखने को कुछ बाकी न रह जाता। दरअसल बैक्टीरिओफेज द्वारा बैक्टीरिया को खाने का तरीका यह है कि वह सबसे छेद बनाकर बैक्टीरिया में घुस जाता है और उसे इस तरह नष्ट करता है कि बैक्टीरिया के अंदर के सारे पदार्थ और उसकी सेल वाल आदि सब खंड खंड जो जाते हैं, कुछ ऐसा बचता नहीं जो माइक्रोस्कोप में देखा जा सके।
जीवित बैक्टीरिया को देखने का सबसे मान्य उपाय है कल्चर करना और उसी तरीके से NGT की रिपोर्ट में यह बताया गया है जल पूरी तरह दूषित है। वह विज्ञानसंगत तरीका है देखने का और विश्वसनीय भी।
कुल मिलकर गंगा में बैक्टीरिया मारने वाले बैक्टीरिओफेज हैं यह सही है पर उसके भरोसे आप अपना स्वास्थ्य को खतरे में डालने से बचें, ठीक उसी तरह से जैसे आपके अंदर इम्यून सेल्स हैं पर फिर भी आप जान बूझकर कोई इन्फेक्शन नहीं लेना चाहते।
आपके शरीर की कोशिकाओं में म्युटेशन को करेक्ट करने वाले प्रोटीन्स होते हैं फिर भी आप लगातार कोई कार्सिनोजेनिक यानी म्युटेशन उत्पन्न करने वाले पदार्थ से एक्सपोज़ होते रहें तो कैंसर हो जायेगा।
बचाव सर्वश्रेष्ठ उपाय है।