— ध्रुव शुक्ल —
कुछ दिनों से यूट्यूब के संग्रह में संचित श्री अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण सुन रहा हूॅ़ं। उन्होंने यह तथ्य स्वीकार किया है कि एक समय अपराध करने वाले लोग राजनीतिक नेताओं से मदद माॅंगते थे। फिर ऐसा समय आया कि नेता ही अपराधियों से मदद माॅंगने लगे। फिर अपराधियों को ही यह लगने लगा कि जब हमारी मदद के बिना नेताओं का काम नहीं चलता तो हम ख़ुद ही राजनीति के क्षेत्र में आ जायें। प्रत्यक्ष अनुभव से कही गयी अटल जी की यह बात आज कितनी सच जान पड़ती है। पर हमारे राजनीतिक दल इस सच्चाई को झुठलाकर संविधान की रक्षा करने की डींगें मार रहे हैं। पता नहीं, हमें कब अपने इन राजनीतिक दलों की शर्म निरपेक्षता और बकवासवाद से छुटकारा मिलेगा?
बीते कुछ वर्षों से यह हल्ला मचा हुआ है कि अम्बेडकर जी का संविधान ख़तरे में है और उसे बचाये रखना ज़रूरी है। नेता संविधान की प्रति लहराते घूम रहे हैं। उनकी बातें सुनकर लगता है कि वे संविधान को पढ़ नहीं रहे। उसे लिखते समय जो बहसें हुईं और जो प्रश्न उठाये गये उन पर कोई ध्यान भी नहीं दे रहा। कोई कह रहा है कि संविधान से वे दो शब्द —- धर्म निरपेक्ष और समाजवाद —- हटा दो और कोई कह रहा है कि इन शब्दों को नहीं हटाया जा सकता। कोई कह रहा है कि संविधान की उद्देशिका में लिखे चार शब्द —– स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुता ही पर्याप्त हैं। संविधान में लिखे इन शब्दों पर मचे हो-हल्ले में किसी भी राजनीतिक दल का देश के बहुरंगी जीवन के प्रति समर्पण नहीं, राजनीतिक सत्ता पाने का लोभ ही अधिक झलक रहा है और कोई भी दल अम्बेडकर जी की चेतावनी पर ध्यान ही नहीं दे रहा है।
अम्बेडकर की दृष्टि में बंधुता का अर्थ है — सभी भारतीयों के भाईचारे और एक होने की भावना। यही बात हमारे सामाजिक जीवन को अखण्डता प्रदान कर सकती है और यह बहुत ही कठिन काम हमें कर दिखाना चाहिए। उन्होंने कहा था कि — २६ जनवरी १९५० से हम कई अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमें समानता प्राप्त होगी पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में नहीं होगी। हम ‘एक व्यक्ति एक वोट’ को मान्यता देते रहेंगे पर हमारे सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण ‘एक व्यक्ति एक मूल्य’ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे।
अम्बेडकर की यह आशंका अब तक सही साबित होती आयी है। धर्म जाति संप्रदाय के भेदभावों से ग्रस्त समाज में आर्थिक न्याय भी तब तक काफी नहीं है जब तक उसके साथ सामाजिक न्याय जुड़ा हुआ न हो। संविधान की रचना करते हुए वे महसूस कर रहे थे कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, खराब निकलें तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान में चाहे कितनी भी कमियां क्यों न हों, यदि उसे अमल में लाने वाले ईमानदार हों तो संविधान अच्छा साबित होगा।
अम्बेडकर कहते हैं कि — किसी संविधान पर अमल उसके स्वरूप पर निर्भर नहीं करता। वह तो केवल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों का प्रावधान ही कर सकता है। इन अंगों का नीतिपूर्वक संचालन जनता और उसकी आकांक्षाओं को पूरा करने के उद्देश्य से बने राजनीतिक दल ही कर सकते हैं। अम्बेडकर गहरे सोच में डूबकर यह भी रेखांकित करते हैं कि — अभी से यह कौन कह सकता है कि आने वाले समय में भारत के लोगों और राजनीतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा?
अम्बेडकर को जो शंका थी वह सही साबित हो रही है। वे देख पा रहे थे कि हमारी अतीतजीवी स्मृति में जाति और संप्रदायों के रूप में पुराने शत्रु तो बने ही रहेंगे। परस्पर विरोधी विचार रखने वाले राजनीतिक दल भी बना लिये जायेंगे। ऐसी हालत में क्या भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? आज हम देख ही रहे हैं कि जात-पांत और पंथ की सीमाओं में जकड़ी राजनीतिक ज़मीन पर अंध सत्तावाद की धूल उड़ रही है और जिसकी धुंध में देश अदृश्य हो रहा है।
अम्बेडकर चेतावनी दे गये हैं कि यदि राजनीतिक दल अपने पंथ को देश से बड़ा मानेंगे तो हमारी स्वतंत्रता भयानक खतरे में पड़ जायेगी और संभवत: हमेशा के लिए ख़त्म भी हो सकती है। वे आह्वान करते रहे हैं कि सभी देशवासियों को इस संभावित घटना का प्रतिकार करते रहना चाहिए। अम्बेडकर जी की बात सुनकर अनुभव होता है कि मतांध कट्टरता का प्रतिकार करना हमारी दिनचर्या में शामिल होना चाहिए। जैसे हम रोज़ अपने शरीर की रक्षा के उपाय करते हैं ठीक वैसे ही देश के लोकतांत्रिक शरीर की रक्षा भी हमें प्रतिदिन करना होगी। लोकतंत्र की रक्षा नेताओं और नागरिकों के बीच बंधुता के मूल्य को बनाये रखने से ही होगी। यह राष्ट्र की अस्मिता के लिए बहुत ज़रूरी है। संविधान में लिखे शब्दों को बदलने से कुछ नहीं होगा।
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