— परिचय दास —
रतन थियम—यह नाम लेते ही रंगमंच के आकाश में एक अद्भुत प्रभा उदित होती है, जो मणिपुर की सांस्कृतिक मिट्टी में पली-बढ़ी, किंतु जिसकी आलोक-रेखाएँ समूचे भारतीय रंगमंच को आलोकित करती हैं। वे केवल एक रंगनिर्देशक नहीं थे, एक दृश्य नहीं, बल्कि एक दृश्य की आत्मा थे, जो मंच पर घटनेवाले हर क्षण को किसी अंतर्ध्वनि की तरह भर देते थे—जिसे शब्द नहीं, स्पंदन कहते हैं। जैसे आकाश में रह-रहकर चमकती है कोई विद्युल्लता, वैसे ही थियम की नाट्य-दृष्टि बार-बार भारतीय रंगमंच के ऊबड़-खाबड़ परिदृश्य में सौंदर्य की लकीरें खींचती रही है—और हर बार गाढ़े रंगों से।
रतन थियम के रंगमंच में संगीत है, मौन है, मंत्र है, प्रतीक है और पग-पग पर है एक आध्यात्मिक बोध, जो केवल नाटक ‘करने’ से नहीं, उसे ‘जीने’ से उपजता है। वे जब कोई नाटक रचते थे तो लगता था वे केवल कथा नहीं कहते—वे अपने दर्शकों को किसी आत्मचिंतन की अग्नि में डुबो देना चाहते हैं। उनकी शैली जैसे कलात्मक समाधि हो। वे शब्दों को ऐसे चुनते थे जैसे कोई ऋषि मंत्रों का संधान कर रहा हो—उनका हर नाटक किसी यज्ञ की तरह दीप्त, ध्वनित और सुगंधित होता था।
उनके ‘चक्रीय’ मंच-संयोजन में समय एक रेखा नहीं, वृत्त बन जाता है—जो इतिहास को वर्तमान और वर्तमान को भविष्य में घुमाकर ले आता है। जैसे मणिपुर के लोकनाट्य ‘शुमांग लीला’ में रंग और रस एकाकार हो जाते हैं, वैसे ही थियम के रंगमंच में लोक और क्लासिक, प्राचीन और समकालीन, स्थूल और सूक्ष्म, सब एक हो जाते हैं। ‘उत्तरप्रियदर्शी’ हो या ‘रितिका’, ‘आंधी के पीछे’ हो या ‘अंधा युग’—उनकी हर प्रस्तुति जैसे किसी दर्शक की आत्मा पर बिंब अंकित कर जाती है, जिसे वह जीवन भर भुला नहीं सकता।
उनके रंगमंच में मंच, पात्र और दर्शक के बीच कोई दीवार नहीं होती—थियम उसे तोड़ते हैं, मिटाते हैं, और फिर एक नया वास्तु रचते हैं, जो दर्शक को केवल देखने का नहीं, उसमें समाहित हो जाने का अवसर देता है। उनके पात्र मंच पर नहीं चलते—वे किसी पारलौकिक संप्रेषण की तरह बहते हैं, उठते हैं, थिरकते हैं और मौन हो जाते हैं। और वह मौन भी बोलता है, जैसे कोई घाव बोलता है, जैसे कोई नदी बिना लहरों के बहती है।
उनकी रंगदृष्टि में जो आध्यात्मिकता है, वह न किसी धर्म की है, न किसी मत की। वह शुद्ध सौंदर्य की साधना से उपजी हुई है। वह सौंदर्य, जो केवल नेत्रों को नहीं, आत्मा को छूता है। उनका रंगमंच केवल कला नहीं है—वह विचार है, वह संघर्ष है, वह संवाद है, वह शांति की खोज में भटकते मनुष्य की पीड़ा का दस्तावेज़ है। वे जब कोई नाटक प्रस्तुत करते हैं तो लगता है जैसे वे पृथ्वी के चारों कोनों को एकत्र कर किसी सार्वभौम मौन को आवाज़ दे रहे हों।
रतन थियम की रचनात्मकता किसी यंत्रवत परंपरा से नहीं, किसी बोधगम्य तप से उपजी थी। वे मंच पर जब ध्वनि और संगीत का संयोजन करते थे तो वह केवल श्रवण का सुख नहीं देता—वह किसी प्राचीन स्मृति का स्पर्श करता था। ऐसा लगता था कि कोई वनवास से लौट आया राग, कोई भुला हुआ देवता फिर से अपने मंदिर की दीवारों पर गूंज उठा हो। वे पाश्चात्य रंग-प्रविधियों को जानते थे पर उन्हें तोड़कर भारतीय अस्मिता की नयी भाषा गढ़ते थे। जैसे कोई संत अपने समय से संवाद करता है, वैसे ही थियम संवाद करते थे—और वह संवाद बगैर बोले भी सघन होता था।
रतन थियम के पात्र अक्सर मौन होते थे किंतु उनका मौन गूंजता था। वे शब्दों की बजाय प्रतीकों से काम लेते थे—जैसे धूप, अग्नि, जल, रक्त, रंग, वाद्य, मुद्रा। उनका मंच वस्तुओं का संग्रहालय नहीं—अनुभवों का तीर्थ होता था। वहाँ हर वस्तु अर्थपूर्ण होती थी। एक दीपक केवल दीपक नहीं—वह प्रतीक था आत्मा का। एक मुखौटा केवल शृंगार नहीं—वह प्रतीक था हमारे भीतर छिपे अनेक रूपों का। उनका रंगमंच प्रतीकों का महाकाव्य था।
थियम केवल कलाकार नहीं थे—वे एक द्रष्टा थे। वे मंच को उस विराट दृश्य की तरह प्रयोग करते थे जहाँ मनुष्य, इतिहास, प्रकृति और नियति एक साथ उपस्थित रहते थे। वे प्रश्न करते थे—पर उत्तर नहीं देते। वे द्वंद्व उपस्थित करते थे—पर समाधान नहीं थोपते। वे दर्शक को यथास्थिति से झकझोरते थे, लेकिन उसे किसी निश्चित विचारधारा में जकड़ते नहीं। वे कहते थे—तुम सोचो। यही उनका सौंदर्य है। वे निर्देशक थे, पर आचार्य नहीं। वे शिक्षक थे पर उपदेशक नहीं।
उनका ‘उत्तरप्रियदर्शी’ जैसे किसी राजा की आत्मा की परतें खोल देता था। वहाँ अशोक एक ऐतिहासिक चरित्र नहीं रह जाता—वह व्यक्ति बन जाता था, व्यथा बन जाता था। वे बुद्ध को मंच पर लाते थे पर वह बुद्ध किसी बुत की तरह नहीं—किसी अनिर्वचनीय करुणा की तरह उपस्थित होते थे। उनका मंच एक धर्मसभा नहीं, करुणा की सभा थी—जहाँ अहिंसा, ग्लानि, आत्मबोध और क्षमा जैसे भाव नाटक नहीं, अनुभव बन जाते थे।
रतन थियम को मंच पर देखने का अनुभव किसी मंदिर में प्रवेश जैसा था—जहाँ संगीत घंटियों की तरह गूंजता था, रंगों की छाया प्रार्थना की तरह झरती थी और हर पात्र जैसे किसी भिक्षु की तरह चलता था—अपने समय के पापों का बोझ उठाए हुए। वे दृश्य बनाते नहीं—वे दृश्य घटाते थे, जैसे कोई ऋतु धीरे-धीरे उतरती हो। वे रचना करते नहीं थे—वे जीवन का शोधन करते थे।
उनका रंगमंच प्राचीन और आधुनिक, देसी और विदेशी, लोक और शास्त्र के बीच कोई दीवार नहीं खड़ी करता था —बल्कि वे उस दीवार को हटाकर एक ऐसा ललित सेतु बनाते थे जिस पर कला और अनुभूति एक साथ चल सकें। उनकी दृष्टि में मंच केवल प्रस्तुति का स्थान नहीं—वह आत्म-अन्वेषण की भूमि थी। वहाँ दर्शक भी एक यात्री था, एक सहगामी था, एक साक्षी था।
रतन थियम के रंग-विश्व में ‘दृश्य’ के भीतर एक ‘अदृश्य’ होता है—और वही अदृश्य दृश्य को अनंत बनाता है। जब वे मौन को मंच पर लाते थे तो वह मौन केवल रिक्त नहीं होता—वह जीवन से भरा होता था। उसमें प्रार्थना होती थी, प्रतिरोध होता था, प्रेम होता था। उनकी रचनाएँ भारतीय आत्मा का एक स्वप्न थीं —जिसे उन्होंने अपने रंगों, शब्दों, गतियों और मौनों से रचा था।
वे एक कवि थे, जो शब्दों से नहीं, रंगों से लिखते थे। वे एक योगी हैं, जो अभिनय नहीं, ध्यान करते थे। वे एक संगीतकार थे, जो सुरों से नहीं, अंतरंग नाद से रचना करते थे। उनका रंगमंच केवल मंचन नहीं—वह अनुष्ठान है। उनके पात्र केवल अभिनेता नहीं—वे साधक थे।
भारत के समकालीन रंगमंच में जहाँ बाजार, मनोरंजन और चमक-दमक ने कलात्मकता को हाशिए पर धकेल दिया है, वहाँ रतन थियम एक मूक प्रतिरोध की तरह खड़े रहे। वे मंच को विज्ञापन की वस्तु नहीं बनने देते थे। वे उसे पुनः एक पवित्र स्थल में परिवर्तित करते थे, जहाँ मनुष्य, जीवन और देवत्व एकसाथ प्रकट होते हैं। उनका रंगमंच मंच नहीं, मंत्र था।
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आज मंच सूना है, परदे थमे हैं, वाद्य यंत्रों की करुण नीरवता में जैसे कोई अनसुना राग विलीन हो गया हो। वह दीपक, जो बरसों तक भारतीय रंगमंच की आत्मा को आलोकित करता रहा, बुझ नहीं गया—वह आकाश में एक तारा बनकर स्थिर हो गया है। रतन थियम अब हमारे बीच दृश्य रूप में नहीं हैं, लेकिन उनके रंग, उनकी रचनाएँ, उनके मौन, उनकी छायाएँ हमारे भीतर जीवित हैं—हमेशा के लिए।
उनका जाना कोई देह का विलीन होना मात्र नहीं है, वह एक युग का अवसान है—एक ऐसा युग जो मंच को केवल प्रदर्शन नहीं, दर्शन मानता था। रतन थियम के निधन के साथ भारतीय रंगमंच की वह चेतना विलीन हुई है, जो जीवन को रंगों और लयों में ढालकर आत्मा के समीप ले जाती थी। वे नाट्यकार नहीं थे, वे साधक थे—उनका हर नाटक किसी आत्मिक अनुष्ठान की तरह घटित होता था। वे मंच पर प्रकाश फैलाते थे, भीतर अंधकार को सहलाते थे।
जब वे बोलते थे, तो लगता था कोई ऋषि प्राचीन प्रतीकों की नई भाषा रच रहा है। जब वे चुप रहते थे, तो लगता था कोई सम्पूर्ण जीवन मौन हो गया है। उनका मंचन केवल आँखों के लिए नहीं होता था, वह आत्मा के लिए होता था। वे चरित्र नहीं रचते थे, वे नियति के प्रतिबिंब गढ़ते थे। आज वे स्वयं एक चरित्र बनकर हमारे भीतर जीवित हो गए हैं—अनुपस्थित होकर भी उपस्थित।
मणिपुर की घाटियों में, लोकगीतों के स्वर में, रेशमी वाद्यों की प्रतिध्वनि में, थियम की आत्मा बह रही है। वे शब्दों के बाद के समय में प्रवेश कर चुके हैं—जहाँ न कोई संवाद है, न अभिनय—सिर्फ एक दिव्य आलोक है, एक अजश्र मौन है। वे चले गए हैं, लेकिन रंगमंच को एक तपस्वी की तरह पुकार कर गए हैं—”स्मृति में मत रोओ, मंच पर जियो।”
आज जब हम रतन थियम को स्मरण करते हैं, तो कोई शोक नहीं आता—केवल एक गहराता हुआ सन्नाटा आता है, जिसमें उनका ‘उत्तरप्रियदर्शी’ पुनः मंच पर चल रहा होता है, ‘अंधा युग’ का युधिष्ठिर मौन खड़ा है, ‘चक्रव्यूह’ की रेखाएं फिर से बन रही हैं। मृत्यु ने उन्हें छीना नहीं—उन्हें दृश्य से अदृश्य में स्थानांतरित कर दिया है।
वह अब हर उस रंगमंच में हैं, जहाँ कोई अभिनेता सच बोलने की कोशिश करता है। वे हर उस प्रार्थना में हैं, जहाँ मौन मंच की आत्मा बन जाता है। वे अब एक दृश्य नहीं—दृष्टि हैं। रतन थियम नहीं रहे—यह कहना सत्य नहीं, क्योंकि जो जीवन को कला में रूपांतरित कर देता है, वह कभी ‘नहीं रहता’ नहीं। वह केवल देह से मुक्त होता है, समय से परे हो जाता है।
रतन थियम आज हमारे नहीं हैं, क्योंकि वे अब सबके हैं। उनका जाना एक क्षति नहीं, एक चेतावनी है—कि कला, जब तक आत्मा से जुड़ी रहे, तभी वह अमर होती है। और यही अमरता वे हमें दे गए हैं। उनके निधन पर आँखें भीग सकती हैं, पर आत्मा—वह प्रसन्न है, कृतज्ञ है—कि हमने अपने समय में रतन थियम को देखा, सुना, जिया।
नमन उस साधक को
जो मंच पर चलता था
और आत्मा तक पहुँच जाता था।
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