— परिचय दास —
।। एक ।।
श्यामल मेघ की तरह घनीभूत उनकी आभा, गगन की नीलिमा में घुली उनकी दृष्टि और अनाहत स्वर की तरह बजती उनकी बाँसुरी—श्रीकृष्ण का नाम आते ही मानो समूचा जीवन संगीत और रंगों से भर उठता है। वे केवल पुराणों के पात्र नहीं, केवल धर्म के अवतार नहीं, वे जीवन की समग्रता हैं। उनके अस्तित्व में वह चपलता है जो यमुना के जल की लहरों में झिलमिलाती है, वह गहराई है जो समुद्र की अथाह गोद में छिपी है और वह उज्ज्वलता है जो पीताम्बर की रश्मियों में सूर्य की किरणों-सी फैल जाती है।
कृष्ण की छवि बालपन की चपलता से आरम्भ होती है। गोकुल की गलियों में माखन चुराते, उल्हाने खाते, माँ के डाँटने पर नयन भर आँसू बहाते और फिर क्षण भर में हँसी की उजास से मुखमंडल को आलोकित कर देने वाले वह ललित बालक। उनके छोटे-छोटे पगचिह्न जब गोपियों के आँगन में पड़ते तो लगता मानो स्वर्ग के पुष्प पथ पर बिखर गए हों। वह बालपन केवल लीला नहीं, वह संसार को बताने का एक रूपक है कि जीवन का आरम्भ ही आनंद से होना चाहिए।
फिर आते हैं वे युवा रूप में—गोपियों के मनोहर सखा, राधा के शाश्वत प्रिय। उनकी बाँसुरी जब बजती है तो यमुना के तट पर पेड़ ठिठककर सुनते हैं, पवन अपनी गति रोक लेता है, नदियाँ प्रवाह को धीमा कर लेती हैं और समूची प्रकृति संगीत में लीन हो जाती है। उस स्वर में न कोई भाषा है, न कोई सीमा। वह केवल हृदय की धड़कनों से संवाद करता है। गोपियाँ सब कुछ भूलकर उस स्वर के पीछे दौड़ पड़ती हैं, मानो उनका अपना अस्तित्व उसी बाँसुरी की धुन में समाया हो। कृष्ण की यह छवि प्रेम की पराकाष्ठा है—एक ऐसा प्रेम जो शरीर के बंधन से परे है जो आत्मा के भीतर की छुपी प्यास को तृप्त करता है।
कृष्ण केवल रति और माधुर्य के देवता नहीं, वे करुणा के भी प्रतीक हैं। जब-जब पीड़ा का बादल छाता है, वे अपने करुणामय नेत्रों से उसे दूर करते हैं। कालिया नाग के फनों पर नृत्य करते बालक कृष्ण में जहाँ शौर्य का दर्शन होता है, वहीं गोवर्धन पर्वत को अंगुली पर उठाकर वृजवासियों को इन्द्र के कोप से बचाने वाले कृष्ण में करुणा का अद्भुत रूप दिखाई देता है। उनके शौर्य में भी कोमलता है और उनकी कोमलता में भी असीम शक्ति।
जब वे महाभारत के रणक्षेत्र में अर्जुन के सारथी बनते हैं, तब उनका स्वरूप और विराट हो उठता है। गीता के श्लोकों में उनका वाक्य केवल उपदेश नहीं बल्कि जीवन के प्रश्नों का उत्तर है। धर्म और अधर्म, कर्तव्य और मोह, युद्ध और शांति—इन सबके बीच वे संतुलन का स्वर बनते हैं। वे कहते हैं—कर्म करो, फल की चिंता मत करो। उनके शब्दों में समूची मानवता के लिए मार्गदर्शन है। कृष्ण वहाँ केवल मित्र नहीं, केवल सारथी नहीं, वे विश्व के नायक हैं, जीवन के तात्त्विक द्रष्टा हैं।
राधा के साथ उनका संबंध मानव-हृदय के सबसे गहन रहस्य का उद्घाटन है। राधा केवल उनकी प्रेमिका नहीं, वे उनकी आत्मा की दूसरी छवि हैं। कृष्ण बिना राधा अधूरे हैं, और राधा बिना कृष्ण। दोनों का मिलन केवल दो व्यक्तियों का संयोग नहीं, वह आत्मा और परमात्मा का संगम है, प्रेम और सौन्दर्य की अनंत धारा का प्रवाह है। चित्रकारों ने जब-जब इस मिलन को कैनवास पर उतारा, कवियों ने जब-जब इसे शब्दों में बाँधा, तब-तब संसार ने अनुभव किया कि प्रेम किसी बंधन में नहीं बँधता, वह मुक्त है, वह अनन्त है।
कृष्ण की बाँसुरी केवल धुन नहीं, वह जीवन का संदेश है। उसमें विरह भी है, मिलन भी है। उसमें करुणा भी है, शौर्य भी है। उसमें शून्यता की गूंज भी है, और पूर्णता की रागिनी भी। वही बाँसुरी उन्हें नन्दलाल से मुरलीधर, माधव से मुकुंद तक अनेक नाम देती है। उस धुन में गोकुल की धूल भी है और गीता का अमृत भी।
कृष्ण की छवि रंगों में ढली तो वह नीलवर्ण हो गई। नीला रंग उनके अनंत स्वरूप का प्रतीक है। जैसे आकाश, जैसे समुद्र, वैसा ही उनका हृदय। उसमें जितना डूबो, उतनी गहराई मिलती है। उनके पीताम्बर का रंग उस गहराई में प्रकाश की तरह फैलता है। वे नीले और पीले के संगम में जीवन के द्वंद्वों को समेटते हैं—अंधकार और प्रकाश, शून्यता और पूर्णता।
कृष्ण के चरणों में धूल समर्पित करने वाली गोपियों की छवि हमें बताती है कि प्रेम में अहंकार का कोई स्थान नहीं। वहीं द्वारका के राजसिंहासन पर बैठे कृष्ण हमें दिखाते हैं कि राज्य और वैभव भी उन्हें बाँध नहीं पाते। वे साधारण और असाधारण दोनों में समाए रहते हैं।
उनका विराट रूप वर्णन से परे है। जब अर्जुन के सम्मुख वे समूचे ब्रह्माण्ड को अपने शरीर में प्रकट करते हैं, तब दर्शक ठिठक जाता है। वह दृश्य केवल एक योद्धा को नहीं बल्कि मानवता को यह बताता है कि कृष्ण मात्र व्यक्ति नहीं, वे स्वयं जीवन का विराट स्वरूप हैं। उनका स्मरण हमें सीमाओं से परे ले जाकर अनंत से जोड़ देता है।
कृष्ण की लीलाएँ लोकगीतों में गूँजती हैं, चित्रों में खिलती हैं, नृत्य में झूमती हैं। चाहे ब्रज की होली हो या झूलों का सावन, हर उत्सव में कृष्ण की उपस्थिति रंगों और संगीत की तरह छाई रहती है। उनके बिना भारतीय संस्कृति का कोई उत्सव पूर्ण नहीं लगता।
वे हँसी में हैं, आँसू में हैं, शरारत में हैं, गंभीरता में हैं। वे खेतों की हरियाली में हैं, नगर की चहल-पहल में हैं, साधु के ध्यान में हैं और ग्वाल-बाल के खेल में भी। कृष्ण का नाम लेते ही जीवन की जटिलताएँ सरल हो जाती हैं और साधारण क्षण भी असाधारण बन जाते हैं।
कृष्ण वह दीप हैं, जो हर युग के अंधकार को आलोकित करते हैं। वे केवल एक मिथक की कथा नहीं, वे प्रत्येक वर्तमान की धड़कन हैं। उनका स्मरण हमें बताता है कि जीवन में आनंद आवश्यक है, प्रेम आवश्यक है, कर्तव्य आवश्यक है और अंततः आत्मा का परमात्मा से मिलन ही जीवन की पूर्णता है।
वे आज भी हमारे साथ हैं—नीले गगन की गहराई में, यमुना के जल की तरंगों में, मंदिर की आरती में, कवि के गीत में, चित्रकार की रेखाओं में और सबसे बढ़कर, हमारे हृदय की धड़कनों में। जब मन थक जाता है, तब उनकी बाँसुरी का स्वर सुनाई देता है। जब जीवन उलझ जाता है, तब उनकी गीता का उपदेश मार्ग दिखाता है। जब प्रेम विरह में डूब जाता है, तब उनकी राधा के प्रति अनन्य भक्ति हमें स्मरण कराती है कि प्रेम का स्वरूप चिरंतन है।
श्रीकृष्ण केवल कथा नहीं, केवल गीत नहीं, केवल चित्र नहीं, वे जीवन की लय हैं, जीवन का माधुर्य हैं, जीवन का संगीत हैं। वे अनंत हैं, और उनकी उपस्थिति हमें यह बताती है कि जब तक संसार में प्रेम और सौन्दर्य जीवित हैं, तब तक कृष्ण अमर रहेंगे।
।। दो ।।
श्याम वर्ण में डूबे, नयन कमलों की शोभा से उद्भासित, अधरों पर चिरंतन मुस्कान और हाथों में वेणु—यही छवि सबसे पहले स्मरण में आती है। यह छवि केवल चित्रकार की रचना नहीं, यह तो जीवन की स्मृति है। जिस प्रकार किसी उद्यान में प्रवेश करते ही पुष्पों की सुगंध मन को भर देती है, उसी प्रकार कृष्ण का नाम आते ही हृदय में रस की तरंगें उठती हैं। वे अद्वितीय हैं क्योंकि उनमें एक साथ अनेक रूप समाए हैं।
गोकुल की गलियों में वह नन्हा बालक जब माखन की मटकी फोड़ देता था, तो गोपियों की डाँट में भी स्नेह झलकता था। उनकी आँखों में क्रोध का अभिनय और होंठों पर छिपी मुस्कान, दोनों एक साथ बहते थे। वह दृश्य केवल शरारत का दृश्य नहीं था बल्कि उसमें जीवन का सहज उल्लास था। माखन यहाँ केवल दूध से बनी वस्तु नहीं बल्कि जीवन के गाढ़े रस का प्रतीक था और कृष्ण उसे चुराकर मानो बता रहे थे कि आनंद को भी चुराना पड़ता है क्योंकि वह सहज रूप से नहीं मिलता।
माँ यशोदा की गोद में जब वह लघु शरीर समाता, तो ब्रह्मांड भी लघु हो जाता। एक ओर वह आँगन में रेंगने वाला बालक है, दूसरी ओर मुँह खोलकर समूचा ब्रह्मांड दिखा देने वाला विश्वात्मा। यही कृष्ण की विशेषता है—वे सामान्य में भी असामान्य हैं, और असामान्य में भी अत्यंत आत्मीय। यशोदा ने जब डाँटकर उन्हें रस्सी से बाँधना चाहा, तब वह रस्सी हर बार दो अँगुल छोटी रह जाती। यह केवल एक लीला नहीं, यह गहन संकेत था कि ब्रह्म को कोई बाँध नहीं सकता।
गोपियों के लिए कृष्ण केवल श्यामसुंदर नहीं, वे उनके हृदय की धड़कन थे। जब वे यमुना तट पर बाँसुरी बजाते तो ग्वाल-बाल भी उस स्वर में खो जाते। वह बाँसुरी केवल वाद्य नहीं, वह आत्मा की पुकार थी। उसमें वह राग था जो किसी भी शब्द में नहीं बँध सकता। गोपियाँ अपने-अपने कार्य छोड़कर दौड़ पड़तीं, मानो उनका समूचा अस्तित्व उसी धुन में विलीन हो गया हो। उनके लिए कृष्ण केवल प्रिय नहीं बल्कि स्वयं जीवन थे।
राधा के साथ उनका मिलन उस गहनतम प्रेम का प्रतीक है जिसे कोई भाषा पूरी तरह व्यक्त नहीं कर सकती। राधा कृष्ण की आत्मा थीं और कृष्ण राधा की चेतना। उनका प्रेम किसी लौकिक सीमा में नहीं बँधा, वह तो अनंत का संवाद था। राधा के नयनों में जब कृष्ण का प्रतिबिंब उतरता तो मानो सृष्टि का सारा सौन्दर्य उसी क्षण साकार हो जाता। यही कारण है कि कवियों ने राधा-कृष्ण के प्रेम को मानव प्रेम का चरम रूप मानकर बार-बार गाया।
लेकिन कृष्ण केवल प्रेम के रसिक नहीं। वे करुणा और शौर्य के भी आदर्श हैं। जब कालिया नाग ने यमुना को विषमय बना दिया था, तब बालक कृष्ण ने उसके फनों पर नृत्य कर उसका अभिमान भंग किया। वह दृश्य केवल एक बालक के साहस का नहीं, बल्कि इस संदेश का था कि जब अन्याय और विष का विस्तार होगा, तब सत्य का स्वरूप प्रकट होकर उसे नष्ट करेगा। इसी प्रकार इन्द्र के कोप से जब गोकुलवासी पीड़ित हुए, तब कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठा लिया। वह पर्वत उनका भार नहीं बना क्योंकि उनके भीतर करुणा की शक्ति थी।
महाभारत के रणक्षेत्र में उनका रूप और विराट हो जाता है। अर्जुन के मन में जब मोह और शंका का बादल घिर आता है, तब कृष्ण उसे गीता का उपदेश देते हैं। उनके वचनों में केवल युद्ध की रणनीति नहीं बल्कि जीवन का शाश्वत दर्शन है। वे कहते हैं—कर्म ही सबसे बड़ा साधन है, परिणाम की चिंता मत करो। उनके शब्द आज भी उतने ही सत्य हैं जितने कुरुक्षेत्र में थे। यही कारण है कि गीता केवल एक ग्रंथ नहीं बल्कि जीवन का मार्गदर्शन है।
उनका विराट रूप जब अर्जुन के सम्मुख प्रकट होता है, तब समूचा ब्रह्मांड उनके भीतर दिखाई देता है। नदियाँ, पर्वत, नक्षत्र, देवता, सब उनके अंगों में समाए रहते हैं। वह दृश्य बताता है कि कृष्ण केवल ग्वाल-बाल या राधा के प्रिय नहीं, वे विश्व के अधिपति हैं, स्वयं सृष्टि के आधार हैं। फिर भी वे इतने सहज हैं कि गोकुल की गलियों में बच्चों के साथ खेल सकते हैं। यही विरोधाभास उन्हें अद्वितीय बनाता है।
कृष्ण का प्रभाव केवल महाकाव्यों तक सीमित नहीं। वे लोकगीतों, चित्रकला, नृत्य और संगीत में भी समाए हैं। मधुबनी चित्रकला में उनकी छवि सजीव है, राजस्थान की लघुचित्र परंपरा में वे राधा के साथ बार-बार प्रकट होते हैं। कांगड़ा शैली में उनकी बाँसुरी और गोपियों का रासलीला भारतीय कला का शिखर है। कथक नृत्य की जड़ें भी उन्हीं की लीलाओं में हैं। जब कथक नर्तकी घूमते हुए रास का दृश्य प्रस्तुत करती है, तब दर्शक को लगता है कि कृष्ण अभी यहीं उतर आए हैं।
आधुनिक युग में भी उनका आकर्षण कम नहीं हुआ। कवि उन्हें गीतों में गाते हैं, चित्रकार उन्हें कैनवास पर उकेरते हैं, और संगीतज्ञ उन्हें रागों में पिरोते हैं। वे केवल अतीत के पात्र नहीं, वे वर्तमान के भी सखा हैं। किसी किसान के गीत में भी वे आते हैं और किसी नगरवासी के स्वप्न में भी। यही कारण है कि कृष्ण अमर हैं।
उनके स्वरूप की अनंतता यह है कि हर कोई उन्हें अपने ढंग से देख सकता है। भक्त उन्हें ईश्वर मानता है, प्रेमी उन्हें प्रियतम मानता है, दार्शनिक उन्हें योगी मानता है, और कलाकार उन्हें सौन्दर्य का प्रतीक मानता है। वे सबके हैं और फिर भी किसी एक के नहीं। यही उनका चिरंतन रहस्य है।
।। तीन ।।
कृष्ण और जीवन-प्रबंधन का संबंध भारतीय चिंतन की सबसे महत्त्वपूर्ण धरोहरों में से एक है। कृष्ण केवल पुराणों के देवता नहीं, वे जीवन के सबसे जटिल प्रश्नों के समाधानकर्ता भी हैं। उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि उसमें प्रेम और नीति, आनंद और करुणा, चपलता और गंभीरता, सब कुछ एक साथ मिलता है। यही कारण है कि उन्हें केवल पूजा नहीं जाता, बल्कि जीवन के मार्गदर्शक के रूप में भी देखा जाता है। उन्होंने अपने प्रत्येक आचरण, प्रत्येक वचन और प्रत्येक निर्णय से यह बताया कि जीवन की परिस्थितियों में कैसे संतुलन बनाना चाहिए, कैसे कठिनाइयों के बीच भी सहज बने रहना चाहिए और कैसे कर्तव्य और आनंद दोनों को साथ लेकर चलना चाहिए।
कृष्ण का पहला पाठ यही है कि जीवन को बोझ नहीं, उत्सव की तरह जियो। उनका बचपन माखन चोरी, गोपियों के बीच शरारतें और ग्वाल-बालों के साथ खेलकूद में बीता। इन सबका संदेश यह है कि जीवन का आरंभ आनंद और सहजता से होना चाहिए। उन्होंने यह दिखाया कि आनंद लेना कोई अपराध नहीं है बल्कि वही जीवन की ऊर्जा है। किसी भी कठिन कार्य के लिए, किसी भी बड़े निर्णय के लिए यह ऊर्जा आवश्यक है। यदि जीवन में आनंद नहीं होगा तो मनुष्य धीरे-धीरे कठोर और निष्प्राण हो जाएगा। इसलिए जीवन-प्रबंधन का पहला सूत्र कृष्ण से यही मिलता है कि हमें हर परिस्थिति में आनंद की खोज करनी चाहिए।
दूसरा सूत्र है संतुलन। कृष्ण ने कभी भी एक ही पक्ष पर नहीं अड़े रहे। वे नंदलाल भी हैं, राधा के प्रियतम भी और अर्जुन के सारथी भी। वे गोपियों के साथ रास भी करते हैं और महाभारत के युद्ध में धर्म की रक्षा के लिए नीति भी बनाते हैं। उनका यह बहुआयामी स्वरूप यही सिखाता है कि जीवन में केवल एक ही रूप या एक ही दृष्टिकोण से चिपके रहना प्रबंधन नहीं है। सच्चा प्रबंधन वही है जो परिस्थिति के अनुसार अपने रूप और दृष्टिकोण को बदल सके, परंतु मूल सिद्धांतों से न भटके। यही कारण है कि वे कभी चपल बालक की तरह सहज हैं और कभी विश्वरूप धारण करके गंभीर और विराट हो जाते हैं।
तीसरा सूत्र है कर्तव्य। गीता में उन्होंने अर्जुन को यही बताया कि कर्तव्य से पीछे हटना पलायन है। जीवन में चाहे कैसी भी उलझन आए, कर्तव्य से भागना नहीं चाहिए। अर्जुन जब युद्ध से विमुख होने लगे, तब कृष्ण ने उन्हें समझाया कि यदि तुम अपने कर्तव्य से भागोगे तो जीवन का संतुलन टूट जाएगा। कर्म ही जीवन का आधार है। परिणाम पर अधिकार किसी का नहीं, परंतु कर्म पर सबका है। यह सूत्र आज भी जीवन-प्रबंधन का सबसे बड़ा आधार है। कोई भी संस्था, परिवार या समाज तभी सफल हो सकता है जब हर व्यक्ति अपना-अपना कर्तव्य निभाए।
चौथा सूत्र है समय का प्रबंधन। कृष्ण ने प्रत्येक स्थिति में समय का महत्त्व समझाया। उन्होंने पांडवों को केवल बल या संख्याबल से नहीं, बल्कि सही समय पर सही निर्णय लेकर विजय दिलाई। चाहे जरासंध का वध हो या कर्ण और जयद्रथ की रणनीति, हर जगह समय का आकलन ही विजय का कारण बना। जीवन-प्रबंधन में भी यही सबसे ज़रूरी है कि कब कौन-सा निर्णय लेना है। समय को पहचानना ही सफलता का आधार है।
पाँचवाँ सूत्र है संचार और संवाद। कृष्ण के व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पक्ष उनका संवाद है। वे मौन नहीं रहते, वे बोलते हैं, स्पष्ट और सटीक बोलते हैं। चाहे गोपियों से बात हो या दुर्योधन से, चाहे अर्जुन से गीता का उपदेश हो या युधिष्ठिर से नीति की चर्चा, हर जगह उनकी वाणी मार्गदर्शक रही। प्रबंधन में भी संवाद ही सबसे बड़ा साधन है। यदि संचार स्पष्ट और आत्मीय न हो तो संबंध टूट जाते हैं, संगठन विखंडित हो जाते हैं। कृष्ण ने यह दिखाया कि एक अच्छा प्रबंधक वही है जो सबके साथ संवाद स्थापित कर सके।
छठा सूत्र है संकट प्रबंधन। जब-जब गोकुल या वृंदावन संकट में आया, कृष्ण ने उसका समाधान निकाला। कालिया नाग का विष, इन्द्र का कोप, कंस का अत्याचार—हर बार उन्होंने संकट को अवसर में बदला। यही तो प्रबंधन है कि कठिनाई को केवल कठिनाई न मानकर उसमें समाधान और अवसर खोजा जाए। महाभारत में भी उन्होंने यही किया। युद्ध को रोकना जब असंभव हो गया, तब उन्होंने पांडवों को विजय दिलाने की रणनीति बनाई।
सातवाँ सूत्र है मानवीय संवेदना। कृष्ण केवल रणनीति बनाने वाले युक्तिकार नहीं थे, वे गहन करुणा से भरे हुए भी थे। द्रौपदी की लाज बचाने के लिए वे स्वयं प्रकट हुए। सुदामा जैसे गरीब मित्र को उन्होंने गले लगाकर यह दिखाया कि प्रबंधन केवल संसाधन और शक्ति का नहीं, बल्कि संवेदना का भी है। बिना करुणा के कोई भी नेतृत्व स्थायी नहीं रह सकता।
आठवाँ सूत्र है नेतृत्व। कृष्ण ने कभी स्वयं को राजा नहीं बनाया, परंतु वे हर जगह नेता रहे। चाहे वे सारथी हों या दूत, चाहे मित्र हों या सखा—हर भूमिका में वे मार्गदर्शक बनकर सामने आते हैं। उनका नेतृत्व बल पर नहीं, विश्वास पर आधारित था। अर्जुन ने उन्हें सारथी बनाया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि कृष्ण हर परिस्थिति में उनका साथ देंगे। यही सच्चा नेतृत्व है—जहाँ अधिकार से नहीं, बल्कि विश्वास और निष्ठा से लोग आपके साथ हों।
नवाँ सूत्र है परिवर्तन को स्वीकार करना। कृष्ण ने कभी भी स्थिरता को जीवन का नियम नहीं माना। वे जानते थे कि परिवर्तन ही जीवन का स्वभाव है। मथुरा छोड़कर द्वारका बसाना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उन्होंने परिस्थिति को समझा और नया नगर बसाया। यही जीवन-प्रबंधन है—स्थिरता में नहीं, बल्कि परिवर्तन को अपनाने में।
दसवाँ सूत्र है दूरदर्शिता। कृष्ण केवल वर्तमान में नहीं जीते थे, वे भविष्य को भी देखते थे। उन्हें पता था कि महाभारत का युद्ध टलने वाला नहीं है, इसलिए उन्होंने पांडवों को पहले ही तैयार किया। उन्हें यह भी पता था कि कौरवों की शक्ति अधिक है, इसलिए उन्होंने रणनीति से उनकी शक्ति को विभाजित किया। जीवन-प्रबंधन में भी यह आवश्यक है कि हम केवल वर्तमान की समस्याओं में न उलझें, बल्कि भविष्य की तैयारी करें।
ग्यारहवाँ सूत्र है जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण। कृष्ण कभी निराश नहीं हुए। चाहे कैसी भी परिस्थिति आई हो, उन्होंने उसे हँसते-खेलते स्वीकार किया। उनका हँसता हुआ चेहरा यही बताता है कि कठिनाइयों के बीच भी मनुष्य को आशा नहीं छोड़नी चाहिए। सकारात्मक दृष्टिकोण ही मनुष्य को आगे बढ़ाता है।
बारहवाँ सूत्र है आत्म-संयम। यद्यपि कृष्ण प्रेम और आनंद के प्रतीक हैं परंतु उन्होंने कभी अपने संयम को नहीं छोड़ा। वे जानते थे कि कहाँ रास करना है और कहाँ धर्म का उपदेश देना है। यही जीवन-प्रबंधन है कि हम अपने भीतर संतुलन और संयम बनाए रखें। बिना संयम के जीवन भटक सकता है।
तेरहवाँ सूत्र है धर्म और नीति। कृष्ण ने कभी अन्याय का समर्थन नहीं किया। उन्होंने शांति की याचना भी की और युद्ध का नेतृत्व भी। उन्होंने छल और राजनीति का प्रयोग भी किया, परंतु उसका उद्देश्य केवल धर्म की रक्षा था। यही सिखाता है कि प्रबंधन में कभी-कभी कठोर निर्णय लेने पड़ते हैं, परंतु वे निर्णय धर्म और न्याय के पक्ष में होने चाहिए।
चौदहवाँ सूत्र है सामंजस्य। कृष्ण ने सभी को साथ लेकर चलने का प्रयास किया। चाहे पांडव हों या उनके सहयोगी राजा, उन्होंने सबको एक सूत्र में बाँधने की कोशिश की। यही तो प्रबंधन की आत्मा है कि विविधता को एकता में बदलना।
कृष्ण यह बताते हैं कि जीवन-प्रबंधन केवल युक्तियों और नीतियों का नाम नहीं है। यह जीवन जीने की कला है। इसमें आनंद भी है, कर्तव्य भी है, करुणा भी है, शौर्य भी है। कृष्ण हमें यही सिखाते हैं कि जीवन को संतुलन, सामंजस्य और आनंद से जिया जाए। उनकी बाँसुरी का स्वर हमें बताता है कि प्रबंधन केवल बाहरी व्यवस्था का नहीं बल्कि भीतर की लय का भी है। जब मनुष्य अपने भीतर की लय को पहचान लेता है, तभी वह बाहरी संसार को भी सही ढंग से व्यवस्थित कर पाता है।
कृष्ण का पूरा जीवन एक प्रबंधन शास्त्र है—सुख-दुःख का, हार-जीत का, प्रेम और कर्तव्य का। वे हमें यह याद दिलाते हैं कि जीवन केवल संघर्ष नहीं केवल आनंद भी नहीं बल्कि दोनों का संतुलन है। यही संतुलन ही जीवन-प्रबंधन का अंतिम और चिरंतन सूत्र है।
।। चार ।।
कृष्ण की 64 कलाएँ जीवन की रसधारा में बिखरे हुए वे पुष्प हैं जिनसे मानव अस्तित्व सुवासित होता है। यह केवल ललित कलाओं की गणना भर नहीं अपितु जीवन को सुशोभित करने की संपूर्ण पद्धति है। इन कलाओं में संगीत है, नृत्य है, चित्रकला है, सुगंध है, काव्य है, वाणी है, शिल्प है, खेल है और साथ ही वह अद्भुत संतुलन भी है जो मनुष्य को सौंदर्य और उपयोगिता, गंभीरता और चपलता, शांति और उल्लास के संगम में ले आता है। श्रीकृष्ण का जीवन इस बात का उदाहरण है कि इन चौंसठ कलाओं का प्रयोग केवल मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि आत्मा के विस्तार और जीवन के संतुलन के लिए है। जब वे बांसुरी बजाते हैं तो उसमें केवल राग का मधुर संगीत ही नहीं, आत्मा का अमृत भी टपकता है। जब वे रास रचाते हैं तो उसमें केवल नृत्य का कौशल ही नहीं, आत्मा का ब्रह्मानंद भी प्रकट होता है।
कृष्ण की कलाएँ मात्र कौशल नहीं बल्कि साधना हैं। उनके माध्यम से जीवन का सौंदर्य व्यक्त होता है, और जीवन की गंभीरता भी सहज हो जाती है। जब वे ग्वाल-बालों के संग खेलते हैं तो खेल भी कला है, जब वे गोपियों से हँसकर वार्तालाप करते हैं तो वाणी भी कला है, जब वे कुरुक्षेत्र में अर्जुन को उपदेश देते हैं तो संवाद भी कला है। यही चौंसठ कलाएँ हैं—जो जीवन के प्रत्येक क्षण को पूर्णता देती हैं।
पहली कला है गीत। कृष्ण का जीवन गीतमय है। उनकी बांसुरी का हर स्वर गीत बनकर हृदय में उतरता है। गीत केवल सुरों का संयोग नहीं, बल्कि भावनाओं का विस्तार है। जब वे वन में ग्वाल-बालों के संग बांसुरी बजाते हैं तो उसमें गायों की घंटियों की झंकार मिलती है, प्रकृति के पवन स्वर मिलते हैं, और यही एक संपूर्ण जीवन का गीत बन जाता है।
दूसरी कला है वाद्य। कृष्ण ने बांसुरी से यह दिखाया कि एक साधारण-सा वाद्य भी आत्मा को झंकृत कर सकता है। उनकी बांसुरी सुनकर वृंदावन का प्रत्येक प्राणी सम्मोहित हो जाता था। इस कला का संदेश यही है कि वाद्य केवल ध्वनि उत्पन्न करने का साधन नहीं, आत्मा को झकझोरने का माध्यम है।
तीसरी कला है नृत्य। कृष्ण का रास नृत्य केवल गति नहीं, बल्कि आत्मा की परमानंदमयी लय है। गोपियों के संग वृंदावन की रात्रियों में जब वे नृत्य करते थे तो वह केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि ब्रह्म और जीव के मिलन का प्रतीक था। उनकी गति में राग है, ताल है और एक अद्भुत अध्यात्मिक तन्मयता भी।
चौथी कला है चित्रांकन। कृष्ण स्वयं चित्रकला में दक्ष थे। उन्होंने अपने मन की भावनाओं को रंगों के माध्यम से प्रकट किया। जब वे माखन की चुराई हुई मटकी के टुकड़ों पर रंग भरते या गोपियों के आँगन की दीवारों पर अलंकरण करते तो उसमें भी उनकी कला झलकती। चित्रकला का संदेश यह है कि रंग केवल रूप सज्जा के लिए नहीं, जीवन के अंतःकरण को व्यक्त करने के लिए होते हैं।
पाँचवीं कला है रूपसज्जा। कृष्ण के अंग-प्रत्यंग का श्रृंगार उनके व्यक्तित्व को और भी आकर्षक बना देता था। मयूरपंख का मुकुट, वनमालाओं का हार और पीताम्बर उनकी रूप-सज्जा की कलात्मकता को प्रकट करता है। यह कला केवल बाहरी शृंगार नहीं बल्कि आत्मा की उज्ज्वलता को प्रकट करने का साधन है।
छठी कला है काव्य। कृष्ण के प्रत्येक वचन में काव्य की झंकार है। गीता के श्लोक केवल उपदेश नहीं, बल्कि काव्य की धारा हैं। उनकी वाणी में उपमा, रूपक और लय सब कुछ है। उनकी प्रत्येक बात रस, छंद और भाव से परिपूर्ण है।
सातवीं कला है वार्तालाप। कृष्ण जब भी बोलते थे, उनकी वाणी श्रोताओं के हृदय में उतर जाती थी। चाहे गोपियों के संग हंसी-ठिठोली हो या अर्जुन को दिया गया उपदेश, उनकी वाणी हर समय कला का रूप धारण कर लेती थी। संवाद का यही सौंदर्य है कि उसमें गंभीरता भी है और मधुरता भी।
आठवीं कला है वेशभूषा। कृष्ण के परिधान केवल वस्त्र नहीं बल्कि कलात्मक सौंदर्य का प्रतीक थे। उनका पीताम्बर, उनकी वनमालाएँ, उनका कंगन और मुकुट सब मिलकर उन्हें केवल आकर्षक नहीं बनाते थे बल्कि उनके व्यक्तित्व को आभा प्रदान करते थे।
नवमी कला है शिल्पकला। कृष्ण ने बचपन से ही शिल्प के प्रति रुचि दिखाई। वे मिट्टी से खिलौने बनाते, गायों के लिए छोटे-छोटे अलंकरण तैयार करते। शिल्पकला केवल वस्तु निर्माण नहीं बल्कि सृजन का आनंद है।
दसवीं कला है संगीत का ताल। कृष्ण जब बांसुरी बजाते, तब वृंदावन का हर प्राणी उनकी लय में बंध जाता। गायों की चाल, ग्वालों की हँसी और गोपियों का नृत्य—सब उसी ताल पर नाचते। यह ताल जीवन के संतुलन का प्रतीक है।
इसी प्रकार उनकी कलाओं में सुगंध बनाना, भोजन बनाना, जलक्रीड़ा करना, खेलों का आयोजन करना, पक्षियों की बोली समझना, पशुओं का पालन करना, युद्ध-कला में दक्षता, राजनीति में चतुराई, नीति में गहराई और संवाद में गहनता—सब कुछ आता है। प्रत्येक कला जीवन का एक आयाम है। कृष्ण ने इन चौंसठ कलाओं को केवल साधा ही नहीं, उनमें प्राण भी भर दिए।
इन कलाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं बल्कि जीवन को ललित और गहन बनाना है। उदाहरण के लिए जलक्रीड़ा केवल खेल नहीं बल्कि जीवन के प्रवाह को समझना है। सुगंध बनाना केवल इत्र तैयार करना नहीं बल्कि जीवन में सुखद अनुभवों को जाग्रत करना है। शयनकला केवल विश्राम का कौशल नहीं बल्कि जीवन की थकान को मिटाकर नई ऊर्जा प्राप्त करना है। प्रत्येक कला जीवन को गहराई और विस्तार देती है।
कृष्ण ने इन कलाओं को इस प्रकार साधा कि वे प्रत्येक क्षण में व्यक्त हो जाएँ। वे ग्वाल-बालों के साथ खेलते तो उसमें भी कला थी, वे राधा के साथ वार्तालाप करते तो उसमें भी कला थी, वे रणभूमि में रणनीति बनाते तो उसमें भी कला थी। यही कारण है कि उनका जीवन किसी एक पक्ष में सीमित नहीं हुआ। वे केवल नर्तक नहीं, केवल योद्धा नहीं, केवल दार्शनिक नहीं, केवल प्रेमी नहीं—वे संपूर्णता थे।
उनकी 64 कलाएँ जीवन के 64 आयाम हैं। वे सिखाती हैं कि मनुष्य को केवल कठोर परिश्रम ही नहीं करना चाहिए बल्कि जीवन को सुंदर भी बनाना चाहिए। कला केवल समय बिताने का साधन नहीं, बल्कि आत्मा को प्रसन्न करने का मार्ग है। जीवन का प्रबंधन तभी पूर्ण है जब उसमें कला और साधना दोनों का संतुलन हो।
यदि हम आधुनिक जीवन में देखें तो ये चौंसठ कलाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। संगीत आज भी मन को शांति देता है, नृत्य आज भी आनंद का माध्यम है, चित्रकला आज भी अभिव्यक्ति का साधन है, और संवाद आज भी संबंधों की डोर है। शिल्प आज भी सृजन का आधार है, भोजन कला आज भी जीवन की ऊर्जा है और रूपसज्जा आज भी आत्मविश्वास का माध्यम है।
कृष्ण का संदेश यही है कि जीवन को केवल एक ही दिशा में मत जीओ। उसे बहुआयामी बनाओ। कला केवल कलाकार के लिए नहीं, हर मनुष्य के लिए आवश्यक है। जीवन के प्रत्येक क्षण को कला से भर दो—भोजन को भी, वार्तालाप को भी, परिश्रम को भी, विश्राम को भी।
कृष्ण की 64 कलाएँ इस बात की घोषणा करती हैं कि जीवन को सुंदर बनाना ही सबसे बड़ा धर्म है। जब जीवन सुंदर होगा, संतुलित होगा, आनंदमय होगा, तभी उसमें अध्यात्म की ज्योति भी प्रज्वलित होगी। कला और अध्यात्म का यही संगम कृष्ण हैं। उनकी बांसुरी की ध्वनि, उनकी चाल की लय, उनके शब्दों की कविता, उनकी आँखों की करुणा—सब मिलकर यह सिखाते हैं कि कला ही जीवन का सर्वोत्तम प्रबंधन है।
कृष्ण ने इन कलाओं को साधकर मानव को यह दिखाया कि पूर्णता केवल ज्ञान से नहीं केवल बल से नहीं बल्कि सौंदर्य और आनंद से भी आती है। उनके जीवन का यही संदेश है कि जो भी करो, उसे कला बना दो। संवाद करो तो वह कला हो, श्रम करो तो वह कला हो, प्रेम करो तो वह कला हो, युद्ध करो तो वह भी कला हो। कला जीवन का सौंदर्य है, और सौंदर्य ही जीवन की पूर्णता।
कृष्ण की चौंसठ कलाएँ इसलिए चिरंतन हैं क्योंकि वे केवल एक युग की आवश्यकताएँ नहीं, बल्कि हर युग का मार्गदर्शन हैं। उनमें संगीत है तो विज्ञान भी है, उनमें रूप है तो रस भी है, उनमें खेल है तो नीति भी है। यही कारण है कि कृष्ण आज भी प्रत्येक कला के प्रेरणास्रोत माने जाते हैं।
उनकी बाँसुरी का स्वर हमें यह बताता है कि जीवन केवल शुष्क संघर्ष नहीं है, बल्कि उसमें संगीत होना चाहिए। उनका रास हमें यह बताता है कि जीवन केवल एकांत साधना नहीं, उसमें सामूहिक आनंद भी होना चाहिए। उनका गीता उपदेश यह बताता है कि जीवन केवल आनंद में डूबना नहीं बल्कि कर्तव्य निभाना भी है। उनकी 64 कलाएँ हमें यही सिखाती हैं कि जीवन को कला बनाकर जियो, तभी वह संपूर्ण होगा, तभी उसमें रस होगा, तभी उसमें सौंदर्य होगा, और तभी उसमें अध्यात्म होगा।
।। पाँच ।।
कृष्ण पर चिंतन करना मानो जीवन के महासागर में डुबकी लगाना है, जहाँ हर लहर नया रस, नया अर्थ और नया अनुभव लेकर आती है। वे केवल एक ऐतिहासिक चरित्र नहीं, केवल एक दैवीय अवतार नहीं, बल्कि मानव जीवन के हर पहलू का जीता-जागता प्रतिरूप हैं। उनका व्यक्तित्व इतना विराट और बहुआयामी है कि उसे किसी एक परिभाषा में बाँधना संभव नहीं। वे कहीं बाल-चपलता में लीन ग्वालबाल हैं तो कहीं प्रेयसी के हृदय में समाए हुए प्रेमी। वे कहीं रणभूमि में विराट रूप धारण किए हुए परमेश्वर हैं तो कहीं अरण्य में बाँसुरी बजाते हुए एक साधारण ग्वाला। वे जीवन के समग्र रूप हैं—जहाँ खेल है, जहाँ प्रेम है, जहाँ नीति है, जहाँ युद्ध है, जहाँ संगीत है और जहाँ अध्यात्म है।
कृष्ण का जीवन हमें यह सिखाता है कि मनुष्य को किसी एक छोर पर ठहरना नहीं चाहिए। न केवल गंभीरता, न केवल हास्य, न केवल नीति, न केवल प्रेम—बल्कि इन सबका संतुलन ही जीवन का सार है। यही कारण है कि वे बाल्यकाल से ही जीवन के हर रंग को जीते हैं। जब वे माखन चुराते हैं तो वह चोरी केवल एक शरारत नहीं, बल्कि आनंद का संदेश है कि जीवन में मधुरता और मुस्कान आवश्यक है। जब वे रास रचाते हैं तो वह केवल नृत्य नहीं बल्कि आत्मा का ब्रह्म के साथ मिलन है और जब वे कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हैं तो वह केवल दर्शन नहीं बल्कि जीवन का शाश्वत मार्गदर्शन है।
कृष्ण का सौंदर्य केवल उनके रूप में नहीं बल्कि उनकी दृष्टि में है। उनकी आँखों में करुणा है, पर साथ ही उनमें शरारत की चमक भी है। उनकी वाणी में ममता है पर साथ ही नीति की कठोरता भी है। उनका जीवन इस सत्य को प्रतिपादित करता है कि मनुष्य का पूर्णत्व विरोधाभासों के संगम से ही प्रकट होता है। जिस प्रकार वे प्रेम में असीमित हैं, उसी प्रकार वे न्याय में अडिग हैं। जिस प्रकार वे कला में रसमय हैं, उसी प्रकार वे धर्म में दृढ़ हैं।
यदि हम उनके जीवन को देखें तो हमें हर युग और हर परिस्थिति के लिए प्रेरणा मिलती है। जब जीवन थकान से भरा हो तो उनकी बाँसुरी की ध्वनि हमें शांति देती है। जब हृदय उदासी से घिरा हो तो उनकी चपलता हमें मुस्कुराना सिखाती है। जब मन मोह और भ्रम में उलझा हो तो उनकी गीता का संदेश हमें मार्ग दिखाता है। जब जीवन में निर्णय कठिन हो जाए तो उनकी नीति और व्यवहार कुशलता हमें समाधान देती है। वे हर क्षण साथ हैं—कभी बालसखा बनकर, कभी प्रेमी बनकर, कभी मार्गदर्शक बनकर, और कभी ईश्वर बनकर।
कृष्ण के बिना जीवन का संगीत अधूरा है। वे सुर हैं, वे ताल हैं, वे लय हैं। वे वह स्वर हैं जो ब्रह्मांड को गति देता है और वह मौन भी हैं जो आत्मा को स्थिर करता है। वे वह रस हैं जो प्रेम में छलकता है और वह गाम्भीर्य भी हैं जो युद्धभूमि में खड़ा रहता है। वे ग्वालों के बीच सखा हैं और देवताओं के बीच देवाधिदेव। वे नंदलाल भी हैं और जगत्पाल भी।
उनका जीवन यह कहता है कि धर्म का अर्थ केवल कठोर नियमों का पालन नहीं बल्कि प्रेम और आनंद के साथ जीना भी है। कृष्ण का धर्म हृदय को बाँधने वाला धर्म है, जिसमें नीति भी है और करुणा भी। उन्होंने यह दिखाया कि धर्म केवल शास्त्रों का विषय नहीं बल्कि व्यवहार का विषय है। जब उन्होंने युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया, तब उन्होंने यही कहा कि धर्म वही है जो कर्तव्य है और कर्तव्य वही है जो न्याय और संतुलन को स्थापित करता है।
कृष्ण का प्रेम भी अद्वितीय है। राधा के प्रति उनका प्रेम केवल लौकिक प्रेम नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक है। उनकी रासलीला केवल मनोरंजन नहीं बल्कि यह संदेश है कि जीवन का परम आनंद आत्मा के भीतर ही है और जब वह परम तत्त्व से मिलती है तो वही आनंद अनन्त हो जाता है। कृष्ण का प्रेम किसी बंधन में नहीं बँधा। वह सबके लिए है—गोपियों के लिए, ग्वालों के लिए, सखा-सखियों के लिए और यहाँ तक कि शत्रुओं के लिए भी। उनके प्रेम में सीमाएँ नहीं, उसमें केवल समर्पण है।
उनका व्यक्तित्व आधुनिक जीवन के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। आज जब मनुष्य जीवन की भागदौड़ में खो गया है, जब आनंद और शांति दोनों उससे दूर हो गए हैं, तब कृष्ण का संदेश यह है कि जीवन को कला बनाओ, संगीत बनाओ, नृत्य बनाओ। केवल परिश्रम ही नहीं, केवल सफलता ही नहीं बल्कि जीवन के हर क्षण में आनंद खोजो। वे कहते हैं कि जीवन का उद्देश्य केवल प्राप्त करना नहीं, बल्कि बाँटना भी है। प्रेम बाँटो, आनंद बाँटो, शांति बाँटो और यही सबसे बड़ा धर्म है।
कृष्ण पर विचार करना वास्तव में अपने ही जीवन को देखना है। क्योंकि वे हमारे भीतर ही हैं—हमारे हृदय की गहराई में, हमारी आत्मा की धड़कन में। वे तब हँसते हैं जब हम हँसते हैं, वे तब रोते हैं जब हम रोते हैं, वे तब मार्ग दिखाते हैं जब हम भ्रम में पड़ते हैं। वे सदा हमारे साथ हैं—कभी मित्र की तरह कंधा थामते हुए, कभी गुरु की तरह उपदेश देते हुए और कभी प्रेमी की तरह हृदय में निवास करते हुए।
कृष्ण का संदेश यही है कि जीवन का सार न तो केवल ज्ञान में है, न केवल भक्ति में, न केवल कर्म में—बल्कि इन सबके संतुलन में है। वे जीवन को जीना सिखाते हैं—पूर्ण रूप से, रस के साथ, सौंदर्य के साथ, आनंद के साथ और धर्म के साथ। वे बताते हैं कि यदि जीवन में कला है तो वह मधुर है, यदि जीवन में धर्म है तो वह गम्भीर है और यदि जीवन में प्रेम है तो वह अनन्त है।
इसलिए कृष्ण केवल द्वापर युग के नहीं, वे हर युग के हैं। वे हर हृदय के हैं। उनका नाम स्मरण करते ही जीवन का बोझ हल्का हो जाता है, हृदय में आशा का प्रकाश जग जाता है। वे वही अनन्त संगीत हैं जो कभी थमता नहीं, वही नृत्य हैं जो कभी रुकता नहीं, वही प्रेम हैं जो कभी सूखता नहीं। वे जीवन का अमृत हैं, और वही अमृत सदा बहता रहता है।
कृष्ण का चिंतन करते-करते हृदय यह अनुभव करता है कि वे कहीं बाहर नहीं, वे भीतर ही हैं। उनका उपसंहार यही है कि जीवन को सुंदर बनाओ, आनंदमय बनाओ और उसे धर्म और प्रेम की धारा में प्रवाहित करो। जब जीवन ऐसा होगा, तभी वह कृष्णमय होगा और जब जीवन कृष्णमय होगा, तभी उसमें न तो भय रहेगा, न दुःख, न शून्यता—वहाँ केवल रस होगा, केवल आनंद होगा, केवल प्रेम होगा।
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