— इल्मा बदर —
ओ कन्हैया! लौटो फिर से
घृणा के इस काले वन में
संगीत के बदले संग्राम जहाँ है
साथी का संहार जहाँ है
स्वांग रचाता है प्रेम यहाँ
भीतर केवल छलना है,
मनुज का मन बिखर चुका है
मानवता बस सपना है!
रिश्ते अब व्यापार बने हैं
स्नेह हुआ है सौदे जैसा
कोई कृष्ण यहाँ
जन्मे भी तो कैसे
करुणा की आँखें सूख चुकी
दया का दीपक बुझता है
स्वार्थ की आंधी हर दिशा में
संवेदना जहाँ झुलसती है!
न राधा की अब प्यास रही
न गीता की अब बात रही!
स्पर्धा की भूख शेष है
लूट की अब व्यवस्था है!
मानवता चीत्कार रही
ओ कन्हैया, लौटो फिर से
इस तम में उजास किये
मानव को फिर मानव करने
सुन्दर सा संसार लिए!
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