विद्रोह व करुणा की लय : क़ाज़ी नजरुल इस्लाम

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Kazi Nazrul Islam

Parichay Das

— परिचय दास —

।। एक ।।

क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का व्यक्तित्व ऐसा था मानो अग्नि और चाँदनी एक ही देह में उतर आए हों। उनके काव्य में जो गर्जन है, वह “मैं चिर विद्रोही, मैं मानव-समुद्र का अविरल ज्वार” जैसी पुकार से जन्मी है। वे उस तूफ़ान की तरह थे जो सोई हुई मानवता को झकझोर दे और उस दीपक की तरह भी थे जो अंधकार में अकेला जलता रहे। उनका विद्रोह कोई विनाशकारी उन्माद नहीं था, वह जीवन के पुनर्निर्माण का संकल्प था।

जब वे कहते थे कि “मैं चिर विद्रोही” तो वह घोषणा किसी एक राष्ट्र या समय की नहीं थी, वह पूरी मानवता की धड़कन थी। उनकी कविता में बिजली की चमक है जो अन्याय की कालिमा को चीर देती है। उनके शब्द मानो रणभूमि के नगाड़े हों, जिनकी थाप से बंधुआ आत्माएँ जाग उठें। उनकी लेखनी तलवार की धार थी, पर तलवार के साथ उसमें फूल की पंखुड़ी का स्पर्श भी था।

नज़रुल का दूसरा स्वर उतना ही अद्भुत था—कोमल और सुरीला। “प्रेमिका का गीत” लिखते समय वे मानो बाँसुरी बन जाते थे, जिनमें से प्रेम की लहरियाँ बहती थीं। उनकी कविता का यह पक्ष हमें बताता है कि विद्रोही भी प्रेमी हो सकता है, और क्रांतिकारी हृदय में भी कोमलता के कमल खिल सकते हैं। उनके गीतों में प्रियतम की पुकार है, विरह की तड़प है और मिलन की आकांक्षा है। यही कारण है कि उनका साहित्य केवल राजनीति या संघर्ष का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि जीवन के संपूर्ण भावों का महाकाव्य है।

उनकी उपमाएँ और रूपक इतने सजीव हैं कि वे सीधे हृदय में उतरते हैं। वे कभी स्वयं को बिजली कहते हैं, कभी आँधी, कभी आग, और कभी चिरंतन प्रेम की धारा। वे कहते हैं कि कवि का काम केवल फूलों का हार गूँथना नहीं है, बल्कि बेड़ियों को काटना भी है। नज़रुल के लिए कविता सौंदर्य का खेल नहीं, सत्य की मशाल थी। और इसी मशाल की रोशनी में उन्होंने भक्ति और क्रांति, प्रेम और विद्रोह, सौंदर्य और संघर्ष—सबको एक सूत्र में बाँध दिया।

नज़रुल इस्लाम की सांस्कृतिक देन यह है कि उन्होंने मनुष्य को उसकी समग्रता में देखा। उनके लिए धर्म कोई विभाजन का नाम नहीं था, वह तो प्रेम और करुणा की सार्वभौम धारा थी। वे कभी कृष्ण की बंसी के गायक बने, कभी पैग़म्बर के गीतों के। उनके भीतर का कवि हर सीमारेखा तोड़ देता था—वह न हिंदू था, न मुसलमान, वह केवल इंसान था।

आज जब हम उनकी कविताएँ पढ़ते हैं तो लगता है कि वे अभी हमारे ही समय के कवि हैं। अन्याय, असमानता, विभाजन और युद्ध की छाया आज भी है, और ऐसे हर अँधेरे में नज़रुल की आवाज़ हमें पुकारती है। वे केवल अतीत का गौरव नहीं, वर्तमान की चेतना और भविष्य की आशा भी हैं।

उनका काव्य हमें यह संदेश देता है कि जीवन में विद्रोह और प्रेम, दोनों का होना आवश्यक है। केवल विद्रोह होगा तो जीवन कठोर हो जाएगा, और केवल प्रेम होगा तो जीवन निष्प्राण। पर जब विद्रोह और प्रेम मिलते हैं, तो जीवन संगीत बन जाता है—वही संगीत, जिसे नज़रुल ने अपने शब्दों और सुरों में अमर कर दिया।

।। दो ।।

क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का स्मरण करना मानो उस अग्नि को स्मरण करना है जिसने अंधकार को चुनौती दी, और उस संगीत को पुकारना है जिसने करुणा की धार को जीवन के हर कोने तक पहुँचाया। उनका काव्य हमें यह विश्वास देता है कि मनुष्य की आत्मा कभी पराजित नहीं हो सकती। बेड़ियाँ चाहे कितनी भी कठोर हों, अन्याय चाहे कितना भी गहरा हो, पर मानव-मन का सूरज एक दिन अवश्य उगेगा।

वे कवि थे, पर उनके शब्दों में साधु की प्रार्थना भी थी और योद्धा की हुंकार भी। वे गाते थे—कभी प्रेमिका के लिए, कभी मातृभूमि के लिए, कभी समूची मानवता के लिए। उनके गीतों की ध्वनि अब भी हमारे भीतर बजती है, मानो किसी अदृश्य वीणा का स्वर।

उनकी स्मृति के सामने झुकते हुए ऐसा लगता है जैसे आत्मा स्वयं से एक प्रतिज्ञा कर रही हो—कि हम विद्रोह को नहीं भूलेंगे, और प्रेम को भी नहीं त्यागेंगे। अन्याय के विरुद्ध उठती हुई हर आवाज़ में नज़रुल का स्पंदन है, और हर कोमल करुणा में उनका स्पर्श।

वे हमें यह सिखाते हैं कि मनुष्य का धर्म केवल मनुष्य होना है, और जीवन का संगीत तभी पूर्ण है जब उसमें विद्रोह की ज्वाला और प्रेम की सरिता साथ-साथ बहती हों। यही उनका अमर संदेश है, यही उनकी चिरंतन उपस्थिति।

।। तीन ।।

क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के शिल्प विधान में आग और फूल, रणभेरी और बाँसुरी, विद्रोह और करुणा का अनोखा संगम है। उनकी लेखनी तलवार की चमक लिए आगे बढ़ती है और उसी क्षण किसी गुलाब की पंखुड़ी-सी कोमल हो जाती है। उनके शब्दों में कभी वज्र का आघात है, तो कभी शहद की मिठास। वे उपमाओं और प्रतीकों के सहारे ऐसे बिंब गढ़ते हैं, जो केवल आँखों से नहीं, आत्मा से देखे जा सकते हैं। कविता उनके लिए सौंदर्य का उत्सव मात्र नहीं थी, वह जीवन का घोष भी थी, और इसलिए उनके शिल्प में स्वप्न और संघर्ष, प्रेम और विद्रोह, दोनों का सम्मिलित स्वर गूँजता है। उनकी भाषा में लय है, जैसे हर वाक्य कोई गीत हो; उनकी पंक्तियों में उभार है, जैसे हर शब्द कोई बिगुल हो। नज़रुल के शिल्प का वैशिष्ट्य यही है कि उसमें कविता और क्रांति, संगीत और आस्था, लोक और शास्त्र—सब एक ही धारा बनकर बहते हैं। उनका गद्य और पद्य दोनों ही मानो मानव आत्मा के महासंगीत का वादन हैं, जिसमें हर सुर मनुष्य को जगाने, जोड़ने और ऊँचा उठाने के लिए बजता है।

क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का शिल्प विधान उनकी रचनाओं की आत्मा है। उनके शब्दों में केवल विचार नहीं, एक आग है, एक धड़कन है, एक अटूट संगीत है। उनकी लेखनी पढ़ते हुए लगता है कि जैसे हम किसी साधारण कवि से नहीं, बल्कि एक ऐसी आत्मा से संवाद कर रहे हैं जो simultaneously आग का शोलों से भरा अग्निकुंड भी है और करुणा की निर्मल धारा भी। उनका शिल्प इस बात का प्रमाण है कि साहित्य केवल अलंकारों का खेल नहीं, बल्कि जीवन का जीवंत उत्सव और संघर्ष की आहुति भी हो सकता है।

नज़रुल के शिल्प में सबसे पहले ध्यान खींचता है उनका द्वंद्वात्मक सौंदर्य। वे विरोधी प्रतीत होने वाले तत्वों को एक ही काव्य-धारा में प्रवाहित कर देते हैं। तलवार और फूल, रणभेरी और बाँसुरी, आँधी और चाँदनी, बिजली और वीणा—ये सब उनकी रचनाओं में एक साथ गूंजते हैं। यह द्वंद्व किसी विरोध की तरह नहीं, बल्कि जीवन की संपूर्णता का संकेत है। मनुष्य केवल प्रेम से नहीं जी सकता और न केवल विद्रोह से; इन दोनों की संयुक्त उपस्थिति ही उसे पूर्णता देती है। यही कारण है कि नज़रुल का शिल्प हमें हर बार जीवन की गहराई तक खींच ले जाता है।

उनकी भाषा का गठन भी विलक्षण है। वह साधारण होते हुए भी असाधारण है। उसमें लोक की सहजता है और शास्त्र की गरिमा। वे अपने शब्दों में आम जन की बोली का रस भी भरते हैं और दार्शनिक गंभीरता का तेज भी। उनके शिल्प की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह किसी एक वर्ग, एक समाज, या एक भाषा-समूह तक सीमित नहीं। वह सर्वमानव की संपत्ति है। जैसे उनके भीतर हिंदू और मुस्लिम परंपरा का संगम था, वैसे ही उनकी भाषा में संस्कृत की छटा और फारसी-उर्दू की मिठास दोनों मिलते हैं। यह बहुसंस्कृति उनकी शैली को अद्वितीय बना देती है।

नज़रुल की कविता में लय और संगीतात्मकता का अपार महत्व है। वे केवल कवि नहीं, संगीतज्ञ भी थे। उनकी रचनाओं में संगीत की लहर हर पंक्ति में बहती है। उनके गीत पढ़ते ही लगता है कि वे गाने के लिए ही रचे गए हैं। उनकी पंक्तियों की संरचना ऐसी है मानो हर वाक्य में कोई छुपा हुआ आलाप है, हर शब्द में कोई ताल है। यही कारण है कि नज़रुल-गीति आज भी बंगाल की आत्मा में गूंजती है। उनका शिल्प शब्द और स्वर के अद्भुत संयोग का परिणाम है।

उनके शिल्प विधान में एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है—प्रतीकों और रूपकों का प्रयोग। वे कभी स्वयं को बिजली कहते हैं, कभी आँधी, कभी समुद्र की लहर, कभी प्रेम की अग्नि, कभी शमा के इर्द-गिर्द भटकता परवाना। उनके बिंब केवल अलंकरण नहीं, बल्कि उनके आत्मानुभव की तीव्रता हैं। उनकी कविताओं में आग जलती हुई दिखाई देती है और फूलों की गंध भी महसूस होती है। यही बिंबात्मकता उन्हें महान कवियों की श्रेणी में ले जाती है।

उनके शिल्प में क्रांति और प्रेम का संतुलन देखने योग्य है। वे क्रांतिकारी कवि थे, विद्रोही कवि थे, लेकिन केवल विद्रोह तक सीमित नहीं। उनके शिल्प का आधा हिस्सा प्रेम से बना है। उन्होंने जीवन के सबसे कोमल और सुकोमल क्षणों को भी उतनी ही गहराई से चित्रित किया, जितनी तीव्रता से उन्होंने अन्याय और अत्याचार को ललकारा। इस प्रकार उनका शिल्प केवल कठोर या केवल कोमल नहीं, बल्कि दोनों का समन्वय है।

उनके निबंध, गीत और कविताओं में बार-बार मानवता का सार्वभौमिक स्वर प्रकट होता है। उनका शिल्प इस बात को स्पष्ट करता है कि वे किसी एक धर्म या जाति के कवि नहीं थे। वे कृष्ण की बंसी की गूँज में भी रमते हैं और पैग़म्बर की पुकार में भी। उनका शिल्प बहुलता का, समन्वय का, और उदार मानवता का शिल्प है। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ आज भी किसी सीमा में बंधकर नहीं रहतीं।

उनकी शैली का एक और अद्भुत गुण है—लालित्य और शक्ति का समन्वय। उनके गद्य और पद्य दोनों में काव्यात्मक गहराई है। शब्दों का चयन, वाक्य विन्यास और लयात्मक प्रवाह ऐसा है कि गद्य भी कविता का रूप ले लेता है। इसमें एक ओर शिल्प का सौंदर्य है और दूसरी ओर विचार का ओज। यह संतुलन बहुत कम कवियों में मिलता है।

उनके शिल्प विधान को देखते हुए हमें यह समझना चाहिए कि वे किसी एक परंपरा के कवि नहीं थे। उनकी शैली भारतीय संत कवियों की तरह लोकजीवन से जुड़ी है तो अंग्रेज़ी रोमांटिक कवियों की तरह भावनाओं की तीव्रता से भी ओतप्रोत है। उनकी कविता में टेनीसन की लय भी सुनाई देती है, वर्ड्सवर्थ की संवेदना भी और तुलसीदास-मीरा का भक्ति भाव भी। यह बहुरंगी प्रभाव उनके शिल्प को और समृद्ध करता है।

क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का शिल्प विधान अंततः हमें यही सिखाता है कि साहित्य केवल कला का प्रदर्शन नहीं, बल्कि आत्मा की आहुति है। उनका शिल्प हमें बार-बार याद दिलाता है कि कवि का काम है अन्याय से टकराना, प्रेम को फैलाना और मानवता को जोड़ना। उनके शब्द इसीलिए कालजयी बने क्योंकि वे केवल पन्नों पर नहीं, हृदय की धड़कनों पर लिखे गए थे।

आज जब हम उनकी रचनाएँ पढ़ते हैं, तो उनके शिल्प की वही ताजगी महसूस होती है जो उनके समय में थी। उनका शिल्प विधान हर युग को सम्बोधित करता है। वह हमें यह बताता है कि मनुष्य का जीवन केवल संघर्ष नहीं, केवल प्रेम भी नहीं; जीवन का सौंदर्य इसी द्वंद्वात्मक एकता में है। यही नज़रुल का शिल्प विधान है—अग्नि और फूल, आँधी और चाँदनी, तलवार और वीणा का अद्भुत संगम।

।। चार।।

भारतीय कविता के आकाश में क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का योगदान किसी टूटते तारे का क्षणिक प्रकाश नहीं, बल्कि ध्रुवतारा की स्थायी आभा है। उन्होंने केवल बंगला कविता को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय काव्य-संस्कृति को एक नया मोड़ दिया। उनके गीतों और कविताओं में ऐसा स्वर गूँजा जो पहले कभी सुनाई नहीं दिया था—यह स्वर विद्रोह का भी था और प्रेम का भी, करुणा का भी था और चेतावनी का भी। उनकी काव्य-धारा में धर्मों की दीवारें गल जाती हैं, जातियों के बंधन टूट जाते हैं, और इंसानियत का महासागर प्रवाहित होता है। यही उनकी सबसे बड़ी देन है कि उन्होंने भारतीय कविता को एक व्यापक, सर्वमानव दृष्टि दी।

नज़रुल का काव्य उस समय फूटा जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था और समाज साम्प्रदायिक विभाजन तथा रूढ़ियों में उलझा हुआ था। उन्होंने अपने गीतों में ऐसी बिजली भरी कि वह सोए हुए समाज को झकझोरने लगी। उनकी कविता ने यह उद्घोष किया कि अन्याय को स्वीकार करना सबसे बड़ा अपराध है और मनुष्य को अपनी स्वतंत्रता के लिए स्वयं खड़ा होना चाहिए। उनके शिल्प ने कविता को केवल कोमल भावनाओं का क्षेत्र न रहने देकर उसे रणक्षेत्र बना दिया। कविता उनके हाथों में वीणा भी रही और तलवार भी। यही कारण है कि उन्हें ‘विद्रोही कवि’ कहा गया।

भारतीय कविता में नज़रुल का योगदान केवल विद्रोह तक सीमित नहीं। उन्होंने प्रेम को भी उतनी ही ऊँचाई दी। उनकी कविताओं में प्रेम किसी संकीर्ण परिभाषा में नहीं, बल्कि व्यापक मानवता के आलोक में चमकता है। वे स्त्री-पुरुष के रिश्ते को भी आदर्श और पवित्र बनाते हैं, और माँ, बहन, बेटी के लिए भी असीम करुणा का स्वर रचते हैं। उनका प्रेम केवल सांसारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी है। वे कृष्ण की बंसी के स्वर को भी उतना ही आत्मसात करते हैं जितना पैग़म्बर की करुण पुकार को। इस प्रकार उनकी कविता भारत की बहुसांस्कृतिक परंपरा की मूर्त अभिव्यक्ति बन जाती है।

भारतीय काव्यधारा में नज़रुल का सबसे अनोखा योगदान है—उनकी लय और संगीतात्मकता। उन्होंने कविता को गाने योग्य बना दिया। उनका हर गीत मानो आत्मा का आलाप हो, हर पंक्ति में एक अदृश्य रागिनी हो। यही कारण है कि ‘नज़रुल-गीति’ आज भी बंगाल की आत्मा में बसी हुई है और भारत की सांगीतिक चेतना में गूँजती है। उनकी संगीतात्मक शैली ने कविता और गीत के बीच की दीवार को मिटा दिया। कविता अब केवल पढ़ने की वस्तु नहीं रही, बल्कि गाने और जीने की ध्वनि बन गई।

उनकी कविता में प्रतीकों और बिंबों का संसार भी विलक्षण है। वे आग, बिजली, आँधी, तलवार, फूल, चाँदनी और वीणा जैसे प्रतीकों से ऐसी रचनाएँ गढ़ते हैं, जो तुरंत पाठक के मन को झकझोर देती हैं। यह बिंबात्मकता भारतीय कविता को एक नया रूप देती है—जहाँ सौंदर्य और शक्ति, दोनों का संगम होता है। उन्होंने यह दिखाया कि कविता केवल कोमलता नहीं, बल्कि प्रचंडता का भी रूप हो सकती है। इस प्रचंड सौंदर्य ने भारतीय काव्यधारा को एक नया आयाम दिया।

नज़रुल की एक और बड़ी देन है—धार्मिक समन्वय। उन्होंने अपनी कविताओं में कभी कृष्ण को गाया, कभी अल्लाह को पुकारा। उनके गीतों में मंदिर की घंटी भी बजती है और मस्जिद की अज़ान भी। उन्होंने स्पष्ट किया कि कविता का धर्म केवल मानवता है। यह दृष्टि भारतीय कविता में नई चेतना भरती है और हमें हमारी साझा सांस्कृतिक धरोहर की याद दिलाती है। विभाजन की राजनीति और सांप्रदायिकता की आग के बीच नज़रुल का काव्य शीतल जल की तरह शांति और भाईचारे का संदेश देता रहा।

भारतीय कविता की परंपरा में जब हम तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, टैगोर जैसे नामों का स्मरण करते हैं तो नज़रुल भी उसी शृंखला में जुड़ते हैं। वे कबीर की तरह अन्याय पर चोट करते हैं, मीरा की तरह प्रेम में डूब जाते हैं और टैगोर की तरह सार्वभौमिक मानवता का गीत गाते हैं परंतु उनकी विशेषता यह है कि वे सबको एक साथ साध लेते हैं। उनकी कविता में क्रांति भी है, भक्ति भी है और मानवीय संवेदना का महासंगीत भी।

भारतीय कविता के इतिहास में नज़रुल का योगदान यह भी है कि उन्होंने कविता को जनसामान्य के संघर्ष से जोड़ा। उनकी रचनाएँ किसी उच्चवर्गीय सौंदर्य के लिए नहीं, बल्कि किसानों, मजदूरों और वंचितों के लिए थीं। उन्होंने उनके दुख-दर्द को स्वर दिया और उनकी पीड़ा को कविता की शक्ति बना दिया। यह लोकतांत्रिक स्वर भारतीय कविता की धारा में नया आयाम जोड़ता है।

आख़िरकार, नज़रुल का योगदान केवल उनके समय तक सीमित नहीं रहा। उनकी कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। जब भी अन्याय बढ़ता है, उनकी पंक्तियाँ याद आती हैं; जब भी प्रेम और भाईचारे की ज़रूरत होती है, उनके गीत गूंज उठते हैं। भारतीय कविता का इतिहास बिना नज़रुल के अधूरा है, क्योंकि उन्होंने उसे क्रांति का साहस, प्रेम का विस्तार और मानवता की ध्वनि दी।

क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम भारतीय कविता की उस धारा का प्रतीक हैं, जिसमें विद्रोह की ज्वाला और करुणा की धारा एक साथ बहती है। उनका योगदान इस बात का प्रमाण है कि कविता केवल शब्दों का शिल्प नहीं, बल्कि आत्मा का संगीत है। यही कारण है कि भारतीय कविता की परंपरा में उनका नाम सदैव अमिट रहेगा, जैसे किसी मंदिर में दीपक की लौ—जो अंधकार को चीरती है और हर दिशा में उजाला फैलाती है।

।। पाँच ।।

क़ाज़ी नज़रुल की ‘विद्रोही’ कविता का अंश
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“বিদ্রোহী” (विद्रोही)
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आमि रुद्रेर हुंकार
आमि परशुरामेर कुठार।
आमि प्रलय, आमि संहार
आमि दिगंत व्यापी भयंकर।

आमि अग्नि, आमि यज्ञाग्नि
आमि ध्वंसाग्नि, आमि प्रलयाग्नि।
आमि कण-कण, आमि धूल-कण
आमि नभ-जल-थल-व्याप्त जीवन।

आमि झड़, आमि बडबानल
आमि धूमकेतु, आमि प्रचंड काल।
आमि चिरविनाशेर दूत
आमि महाकालेर शंखध्वनि।

आमि बिप्लब, आमि विद्रोही
आमि अनन्त ध्वनि।
आमि महा-भयानक महा-आनंद
आमि विषधर, आमि अमृत-मंथन।

आमि दुर्गा, आमि चंडी
आमि त्रिशूलधारी कालि।
आमि शक्ति, आमि भक्ति
आमि दया, आमि ज्वाला ज्वलि।

आमि ब्रह्माण्डेर ध्वंस-ध्वनि
आमि सृष्टिर शुभारम्भ।
आमि बिनाशेर नर्तक
आमि अनंत जीवनर संग्राम।

आमि अगाध, आमि दुर्दम
आमि दुर्निवार प्रचंड।
आमि महाभारत युद्धेर
अपराजेय अर्जुन।

आमि चित्कार, आमि हुंकार
आमि महाशक्ति उद्गार।
आमि विप्लवेर महाज्वाला
आमि महानन्देर सागर।


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