— परिचय दास —
।। एक ।।
बंगाल की मिट्टी, पानी और हवा से जन्मी ‘पथेर पांचाली’ केवल एक फिल्म नहीं है बल्कि एक गहन मानवीय महाकाव्य है जिसमें जीवन की आर्द्रता, दु:ख-सुख की सांध्यवेला और सपनों की क्षितिजरेखा एक साथ आकार लेती है। सत्यजीत राय ने इसे पर्दे पर रचा, परंतु यह किसी एक कलाकार का नहीं, पूरी सभ्यता का सामूहिक स्पंदन प्रतीत होती है। इसमें गाँव के पथरीले रास्ते पर चलती छोटी-सी अपू और उसकी बहन दुर्गा की मुस्कान उतनी ही अनमोल है जितना किसी शास्त्रीय राग का आरोह-अवरोह। यह फिल्म हमें यह महसूस कराती है कि सिनेमा केवल कथानक का अनुक्रम नहीं बल्कि एक अंतःसलिला है जो दृश्य और ध्वनि के माध्यम से हमारे हृदय को झकझोर देती है।
कथा का मूल स्वर साधारण है—गरीबी, संघर्ष, हताशा और छोटे-छोटे सपनों की यात्रा किंतु इसकी प्रस्तुति इतनी सहज और करुण है कि यह लोककथा-सी लगने लगती है। दुर्गा की मासूम चोरी, अपू की जिज्ञासु आँखें, माँ सरबजया का अंतर्द्वंद्व और पिता हरिहर का भोला आशावाद—ये सब मिलकर गाँव के एक साधारण ब्राह्मण परिवार की त्रासदी और आनंद का ऐसा चित्र उकेरते हैं, जिसमें हर भारतीय दर्शक अपना अंश खोज लेता है। सत्यजीत राय का कौशल यही है कि उन्होंने जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को इतनी आत्मीयता से बुना कि वे काव्य की पंक्तियों-सी लगने लगें।
फिल्म का हर फ्रेम एक कविता है। कैमरामैन सुब्रत मित्र ने बारिश की बूंदों, बांस के झुरमुट, तालाब की नीरवता और हवा में उड़ते पतों को इस तरह फिल्माया है कि वे केवल दृश्य नहीं रहते बल्कि हृदय में भावजगत रच देते हैं। अपू और दुर्गा का रेल देखने के लिए खेतों से दौड़ना किसी छायाचित्र नहीं बल्कि समय और स्थान की सीमाओं को लाँघती एक अनंत लालसा का प्रतीक बन जाता है। वह दृश्य दर्शकों की स्मृति में वैसे ही अंकित होता है जैसे किसी कवि की कालजयी पंक्तियाँ।
इस फिल्म की ध्वनि और मौन, दोनों समान रूप से अर्थपूर्ण हैं। रविशंकर का संगीत बाँसुरी और सितार की लय में जीवन की धड़कन भर देता है। संगीत कभी किसी खुशी को स्वर देता है तो कभी करुणा को शब्दहीन रुदन का रूप किन्तु कई क्षण ऐसे भी हैं, जब कोई संगीत नहीं बजता, केवल मौन रहता है—और वही मौन सबसे तीव्र प्रतीत होता है। जैसे माँ का अकेले रोना, दुर्गा का अचानक जाना, या गरीबी की विवशता से उपजा मौन—ये क्षण किसी भी शब्द या धुन से अधिक गहरे उतरते हैं।
‘पथेर पांचाली’ केवल गाँव की दरिद्रता का चित्रण नहीं है बल्कि यह मनुष्य की दृढ़ता और उसकी कल्पनाशक्ति की महिमा भी है। अपू और दुर्गा का स्वप्न देखना, भविष्य की ओर बढ़ना, यह दर्शाता है कि जीवन चाहे कितना भी कठोर क्यों न हो, उसमें रस और सौंदर्य के बीज मौजूद रहते हैं। यह फिल्म हमें सिखाती नहीं बल्कि धीरे-धीरे यह अहसास कराती है कि सौंदर्य हमेशा हमारे आसपास है—बांस के झुरमुट में, बहते जल में, रेल की सीटी में, बच्चों की हँसी में।
सत्यजीत राय की दृष्टि अद्भुत है। वे गरीबी को करुणा के साथ दिखाते हैं किंतु दया या दारिद्र्य-रोमानीकरण के बिना। उनका कैमरा कभी भी पात्रों का अपमान नहीं करता, न ही उन्हें दीन-हीन बनाता है। वे उनकी गरिमा को बनाये रखते हैं। यही कारण है कि सरबजया का दुख केवल एक गरीब स्त्री का दुख नहीं बल्कि संपूर्ण मातृत्व का दुख बन जाता है। दुर्गा की मृत्यु केवल एक लड़की की मृत्यु नहीं बल्कि बचपन की निर्मलता के खोने का शोक प्रतीत होती है और अपू का मौन, उसकी आँखों की उदासी, समूचे मनुष्य-समुदाय की अनकही पीड़ा का रूप ग्रहण कर लेती है।
फिल्म की गति भी किसी राग की तरह है। कभी यह धीमी आलाप-सी प्रतीत होती है, जब हम गाँव के वातावरण में डूबते हैं। कभी यह झंकार-सी तेज हो जाती है, जब बच्चे दौड़ते हैं, खेलते हैं। कभी यह बिल्कुल शून्य-सा हो जाता है, जब मृत्यु या विछोह के दृश्य आते हैं। इस लय में ही इसका काव्यत्व है। दर्शक इसे देखते-देखते एक कविता को जीता है—कभी रोमांचित होकर, कभी विषाद से भरकर, कभी आत्मविस्मृत होकर।
‘पथेर पांचाली’ का महत्त्व इस बात में भी है कि यह सिनेमा को वैश्विक मानचित्र पर ले गई। 1955 में बनी यह फिल्म उस समय के भारतीय सिनेमा से बिल्कुल भिन्न थी, जहाँ नृत्य, गीत और नाटकीय संवादों की भरमार होती थी। यहाँ जीवन स्वयं अपने नग्न रूप में था—बिना किसी आडंबर के, बिना किसी कृत्रिमता के। यह फिल्म न केवल भारतीय बल्कि विश्व सिनेमा में यथार्थवादी परंपरा की एक अद्वितीय उपलब्धि मानी गई किंतु इसके भीतर का काव्यत्व इसे मात्र ‘यथार्थवादी’ न बनाकर ‘काव्यात्मक यथार्थ’ में रूपांतरित करता है।
इस फिल्म को देखना मानो किसी उपन्यास का नहीं बल्कि किसी महाकाव्य का अनुभव करना है। यह छोटे-छोटे प्रसंगों में जीवन का विराट दर्शन कराती है। यह फिल्म हमें उस मानवीय धड़कन तक पहुँचाती है, जहाँ साहित्य, संगीत और दृश्य कला एकाकार हो जाते हैं।
‘पथेर पांचाली’ एक ऐसी रचना है, जिसे केवल फिल्म कह देना उसका अपमान होगा। यह जीवन की महागाथा है जो अपनी सादगी में ही गहन काव्य रचती है। यह फिल्म हमें यह स्मरण कराती है कि कला का उद्देश्य उपदेश देना नहीं बल्कि जीवन की गहराइयों को उभारना है। इसमें चित्रित गाँव, बच्चे, माँ, पिता—सब किसी एक काल या स्थान के पात्र नहीं, बल्कि समूचे मानव समाज के प्रतीक बन जाते हैं। यही कारण है कि यह फिल्म आज भी हमें उतनी ही गहराई से छूती है, जितनी अपने समय में।
।। दो ।।
‘पथेर पांचाली’ का दूसरा पाठ तब खुलता है, जब हम उसके भीतर छिपे प्रतीक और रूपकों की तहों में उतरते हैं। यह फिल्म केवल कथानक का अनुक्रम नहीं बल्कि संवेदनाओं की मूर्त-अमूर्त भाषा है। गाँव का पथरीला रास्ता, जो बार-बार कैमरे में आता है, केवल रास्ता नहीं है; वह जीवन का वह अनंत पथ है, जिस पर अपू और दुर्गा चल रहे हैं। यह वही पथ है जो बचपन से यौवन, यथार्थ से स्वप्न और अंततः जीवन से मृत्यु की ओर ले जाता है। उसकी धूल और कंकड़ किसी त्रासदी के द्योतक नहीं बल्कि उस यथार्थ की स्मृति हैं जिसमें मनुष्य जन्म लेता है और जीता है।
बचपन की दुनिया यहाँ फूल-पत्तों से बनी हुई नहीं है बल्कि उसमें अभाव, भूख और व्यथा की भी छाया है। फिर भी बच्चे उसमें रस खोज लेते हैं। जब दुर्गा पड़ोस के बगीचे से फल तोड़ लाती है, तो उसमें चोरी का पाप नहीं, बल्कि जीवन की भूख और इच्छाओं का प्रतीक छिपा है। वही दुर्गा जब अपू के साथ वर्षा में भीगती है, तो वह जीवन की नमी और चंचलता का रूप धारण कर लेती है। वर्षा यहाँ केवल प्राकृतिक घटना नहीं है, बल्कि जीवन का उत्सव है किन्तु यही वर्षा जब झोंपड़ी में रिसती है और माँ को परेशान करती है तो वह अभाव और दुख की भी स्मृति बन जाती है।
माँ सरबजया की आँखों में जो क्लांति है, वह एक स्त्री की व्यक्तिगत व्यथा नहीं बल्कि पूरे स्त्रीत्व का संघर्ष है। वह अपने बच्चों को पालने के लिए तिल-तिल जलती है परंतु उसकी कठोरता में भी करुणा है। जब वह दुर्गा को डाँटती है तो उसके पीछे चिंता की छाया है, न कि निष्ठुरता। उसकी थकी हुई देह और करुण आँखें एक मौन कविता हैं—जिसे पढ़ने के लिए दर्शक को केवल देखना भर है।
पिता हरिहर का चरित्र एक आशावादी कवि की तरह है। वह जीवन की कठोरता से जूझते हुए भी भविष्य का सपना देखता है। जब वह कहता है कि वह नया नाटक लिखेगा, नया काम करेगा तो उसमें उस भारतीय पुरुष की छवि दिखती है जो संकटों के बावजूद आशा नहीं छोड़ता। किंतु यह आशा कभी-कभी खोखली भी लगती है, क्योंकि वह अपनी व्यावहारिक जिम्मेदारियों से दूर भागता है। यही द्वंद्व फिल्म को और अधिक यथार्थपूर्ण बना देता है।
रेल का दृश्य, जिसे अक्सर इस फिल्म की आत्मा कहा जाता है, किसी चमत्कार से कम नहीं। बच्चे खेतों से दौड़ते हुए जब उस विशालकाय लोहे की जैसी रेल को देखते हैं तो वह केवल मशीन नहीं है, बल्कि आधुनिकता और भविष्य की ओर झाँकने का द्वार बन जाती है। गाँव के सन्नाटे में वह ध्वनि बच्चों के मन में किसी अज्ञात दुनिया का आह्वान करती है। यह दृश्य बाल-मन की अनंत जिज्ञासा और जीवन के क्षितिज को देखने की चाह का शाश्वत प्रतीक है।
फिल्म के भीतर मृत्यु भी उतनी ही स्वाभाविक है जितना जन्म। दुर्गा की मृत्यु किसी नाटकीयता के साथ नहीं आती। वह धीरे-धीरे, चुपचाप, मानो हवा में घुलती हुई, दर्शक के मन पर छा जाती है। यह मृत्यु किसी एक व्यक्ति की नहीं बल्कि बचपन और मासूमियत की मृत्यु प्रतीत होती है। अपू की आँखों में जो शून्यता है, वह हर मनुष्य की उस पीड़ा का प्रतिरूप है जो अपने किसी प्रिय के खो जाने पर भीतर तक टूट जाता है। यही वह क्षण है, जहाँ फिल्म अपने चरम काव्यत्व को छूती है।
‘पथेर पांचाली’ का सौंदर्य उसकी सादगी में है। यह सादगी ही उसका काव्य है। बांस के झुरमुट, तालाब का शांत जल, पत्तों पर गिरती बूँदें—ये सब मिलकर जीवन का गीत रचते हैं। फिल्म किसी बड़े कथानक या नाटकीय संवादों पर नहीं, बल्कि क्षणिक भावों और दृश्यात्मक संकेतों पर टिकी है। यही कारण है कि इसे देखने वाला दर्शक इसे किसी साहित्यिक रचना की तरह महसूस करता है।
इस फिल्म का काव्यत्व केवल बंगाल तक सीमित नहीं है। यह भारत के गाँवों की, बल्कि पूरे विश्व की मानवीय संवेदना का हिस्सा है। गरीबी और संघर्ष किसी एक भूगोल की सीमा में नहीं बँधते। इसलिए यह फिल्म अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी गहराई से समझी और सराही गई। इसमें जो करुणा है, वह सार्वभौमिक है। इसमें जो सौंदर्य है, वह किसी एक संस्कृति का नहीं, बल्कि मानव सभ्यता का है।
‘पथेर पांचाली’ हमें यह अनुभव कराती है कि कला का सबसे बड़ा धर्म जीवन को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करना है। इसमें करुणा है, उल्लास है, स्वप्न है, निराशा है—सब कुछ एक साथ। यह फिल्म जीवन की नदी की तरह है, जिसमें शांति भी है और वेग भी, सौंदर्य भी है और पीड़ा भी। इसे देखना मानो जीवन की ही कविता पढ़ना है—एक ऐसी कविता जिसमें शब्द नहीं बल्कि दृश्य, ध्वनि और मौन की तानें हैं।
।। तीन।।
‘पथेर पांचाली’ का तीसरा आयाम उसके शिल्प और उसकी सिनेमाई भाषा में खुलता है। यह भाषा किसी स्थापित परंपरा का अनुकरण नहीं करती बल्कि स्वयं एक नयी परंपरा का सृजन करती है। सत्यजीत राय ने किसी तकनीकी चमत्कार या आडंबरपूर्ण शॉट्स पर भरोसा नहीं किया; उनका कैमरा जीवन के पास जाकर उसे वैसे ही पकड़ता है जैसे कवि अपनी आँखों से दृश्य को ग्रहण करता है और शब्दों में उतार देता है। यहाँ कैमरा स्वयं एक कवि है जो हर क्षण को उसकी मौलिकता और सहजता में दर्ज करता है।
सुब्रत मित्र की सिनेमैटोग्राफी एक प्रकार का दृश्य-काव्य है। उन्होंने प्राकृतिक रोशनी और छाया के खेल को इस तरह साधा कि हर फ्रेम एक पेंटिंग-सा लगता है। जब दुर्गा और अपू खेतों से रेल देखने दौड़ते हैं तो धूप से चमकते खेत और बच्चों की छवियाँ मिलकर ऐसा लगता है मानो किसी चित्रकार ने कैनवास पर जीवन की गति को उकेर दिया हो। बारिश का दृश्य हो या हवा में हिलते बांस के झुरमुट, सबमें प्रकृति स्वयं एक जीवित पात्र की तरह उपस्थित रहती है।
संगीत का संसार भी यहाँ विशिष्ट है। रविशंकर ने केवल पृष्ठभूमि संगीत नहीं रचा, बल्कि जीवन की लय को स्वर दिया। सितार की मधुर तानें कभी अपू की आँखों की जिज्ञासा का रूप लेती हैं, तो कभी माँ के आँसुओं का मौन रुदन। कई बार संगीत अनुपस्थित रहता है, और केवल मौन सुनाई देता है। यह मौन ही संगीत से अधिक प्रभावी हो उठता है—क्योंकि उसमें जीवन की असहायता और व्यथा की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। इस मौन का सौंदर्य वही समझ सकता है, जो कविता में श्वेत रिक्तियों के महत्व को जानता हो।
फिल्म का संपादन भी किसी कविता की लय जैसा है। एक दृश्य से दूसरे दृश्य में संक्रमण अचानक नहीं बल्कि किसी काव्य-पंक्ति के दूसरे छंद में प्रवेश जैसा है। गति कभी धीमी पड़ती है, तो कभी तीव्र हो जाती है—ठीक उसी तरह जैसे कवि अपनी कविता में लय का उतार-चढ़ाव रचता है। यही कारण है कि दर्शक फिल्म को देखता नहीं, बल्कि जीता है।
यदि हम इसे विश्व-परिप्रेक्ष्य में देखें तो ‘पथेर पांचाली’ ने भारतीय सिनेमा को एक नई पहचान दी। यह फिल्म न केवल अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सवों में सराही गई बल्कि इसने विश्व के यथार्थवादी सिनेमा को भी प्रभावित किया। इटली के ‘नियोरियलिज़्म’ की परंपरा को यह भारतीय धरती पर एक नया रूप देती है। देसी मिट्टी की खुशबू, देसी दु:ख-सुख और देसी स्वप्न इसे विशिष्ट बनाते हैं। यह फिल्म यह प्रमाणित करती है कि कला तभी सार्वभौमिक बनती है जब वह अपनी जड़ों से जुड़ी रहती है।
इसका वैश्विक महत्त्व केवल तकनीक या कथा में नहीं बल्कि उसके काव्यत्व में है। जिस तरह यह फिल्म हमें जीवन के छोटे-छोटे क्षणों में अनंत सौंदर्य खोजने की दृष्टि देती है, वह किसी भी संस्कृति या समय की सीमा में नहीं बँधती। गाँव का तालाब, पत्तों की सरसराहट, बच्चों की हँसी—ये सब वैश्विक मानवीय अनुभव का हिस्सा हैं। यही कारण है कि इस फिल्म को देख कर जापानी दर्शक भी उतना ही प्रभावित होते हैं जितना कोई भारतीय।
शिल्प और विषय के इस सम्मिलन से ‘पथेर पांचाली’ किसी साधारण कहानी से उठकर मानवीय करुणा का महाकाव्य बन जाती है। यह महाकाव्य शब्दों में नहीं बल्कि दृश्यों और ध्वनियों में रचा गया है। सत्यजीत राय ने यहाँ जो भाषा गढ़ी है, वह केवल सिनेमा की भाषा नहीं बल्कि जीवन की भाषा है। उसमें मौन भी बोलता है, प्रकृति भी बोलती है और बच्चे भी।
फिल्म का अंतिम प्रभाव यही है कि यह दर्शक को भीतर तक बदल देती है। इसे देखकर हम जीवन की उन परतों तक पहुँच जाते हैं, जहाँ हम अपने बचपन, अपनी माँ की थकान, अपने पिता की आशा और अपनी ही मासूमियत को पहचान लेते हैं। यही ‘पथेर पांचाली’ का काव्य है—यह केवल अपू और दुर्गा की कथा नहीं बल्कि हर मनुष्य की कथा है।
।। चार ।।
‘पथेर पांचाली’ की निष्पत्ति किसी साधारण निष्कर्ष की तरह नहीं बल्कि जीवन के दीर्घ श्वास की तरह है। यह फिल्म हमें यह बताती है कि कला का असली सामर्थ्य उपदेश देने में नहीं बल्कि जीवन के उन क्षणों को दिखाने में है, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। सत्यजीत राय ने गरीबी और संघर्ष की कथा को करुणा और गरिमा के साथ चित्रित किया, जिससे वह सार्वभौमिक मानवीय अनुभव बन गया। अपू और दुर्गा की मासूम दुनिया, माँ की थकी आँखें, पिता की भोली आशाएँ और गाँव की नीरव प्रकृति—ये सब मिलकर उस कविता का रूप लेते हैं जो शब्दों से परे जाकर दृश्य और मौन में रची जाती है।
यह फिल्म हमें भीतर से छूकर बदल देती है। हम पथरीले रास्ते को देखकर केवल गाँव का दृश्य नहीं देखते बल्कि जीवन की अनिश्चितताओं और हमारी अपनी यात्रा का बिंब पहचानते हैं। रेल की सीटी केवल बच्चों की जिज्ञासा नहीं जगाती, बल्कि हमारे भीतर भी उस अनंत भविष्य की पुकार बन जाती है, जिसकी ओर हर मनुष्य आकृष्ट होता है। दुर्गा की मृत्यु केवल एक बालिका का अंत नहीं बल्कि मासूमियत के बिखर जाने का शोक है। और अपू की उदासी हर मनुष्य की आँखों की उदासी बन जाती है।
‘पथेर पांचाली’ फिल्म एक प्रश्न की तरह खुली रहती है—क्या जीवन केवल दु:ख और अभाव है या उसमें सौंदर्य और आशा के बीज भी हैं? यह प्रश्न ही उसका शाश्वत उत्तर है। यही कारण है कि इसे देखकर हम न केवल सिनेमा का आनंद लेते हैं बल्कि जीवन के सत्य से भी साक्षात्कार करते हैं। और यही इस फिल्म का सबसे बड़ा लालित्य है—यह हमें जीवन की उस कविता से जोड़ देती है जो हम सबके भीतर निहित है।
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