हमारे सोच का दायरा सिकुड़ा है और इतना तंग हुआ है कि अब यह आत्मकेंद्रित होकर रह गया है , यहाँ तक कि हम अपने पड़ोस में घट रही घटनाओं से बे ख़बर होकर जीने के आदी होते जा रहे हैं । इंसानी सभ्यता के लिए यह अपसकुन है । भारतीय समाज में फैली यह बीमारी ठीक 77 के बाद आई और दिन ब दिन बढ़ती गई । काल निर्धारण को और सरल किया जाय तो इस काल का निर्धारण होता है ग़ैर कांग्रेसी सरकार के बाद । जब दशकों सत्ता में बैठी कांग्रेस अचानक प्रतिपक्ष में चली गई और जो विरोध पक्ष था वह सत्ता में गया । यहाँ से भारत का लोकतंत्र उत्तरोत्तर दुबला होना शुरू हुआ और आज वह बिस्तर पर जा पहुँचा है । इस हाल की जांचपड़ताल केवल एक सत्तर से कर सकते हैं कि 77 के पहले सड़कों की गर्माहट क्या थी और आज क्या है ? आज सड़क ठंढी है और संसद बीज गणित में उलझी, अपनी कुर्सी की मरम्मत कर रही है । राजनीति यह भूल गई कि अब तक के प्रचलित शासन तंत्र में सबसे बेहतर तंत्र लोकतंत्र ही माना गया है और स्वास्थ्य लोकतंत्र संसद और सड़क के तनाव पर ही जिंदा रहता है । ( जनशक्ति और राज शक्ति के बीच के तनाव पर )
आजादी के बाद कांग्रेस के आत्मबोध पर कभी खुल कर चर्चा नहीं हुई । इस विषय पर कभी खुल कर चर्चा होगी आज और यहाँ तो बस संक्षेप में कि आजादी के बाद कांग्रेस केवल सत्ता ही नहीं चला रही थी साथ साथ “लोकतंत्र भी मजबूत होता चले “ की गुप्त नीति भी साधे चली है । कांग्रेस की सोच में लोकतांत्रिक सत्ता का सफल संचालन बगैर “मजबूत प्रतिपक्ष “के पूरा हो ही नहीं सकता । इसके लिए कांग्रेसी सत्ता ने समाजवादियों और कुछ कुछ साम्यवादियों को संसद और सड़क पर उतरने के लिए मौका देती रही । परोक्ष रूप से । आंदोलनों काताँता लगा रहता था , यह संविधान प्रदत्त अधिकार है । सत्ता पक्ष ( कांग्रेस ) इसे रोकती थी , पुलिस बल का प्रयोग होता था , आँसू गैस , लाठी चार्ज जैम कर होता था लोग जेल जाते थे , लेकिन सत्ता पक्ष ने कभी भी किसी आंदोलन को संविधान विरोधी नहीं कहा , न ही उसने देशद्रोह या अन्य कोई अ राजनीतिक कहा , आंदोलनों को “ क़ानून व्यवस्था “ के हवाले से अपना पक्ष रखती थी ।
क्यों कि जंगे आजादी में कांग्रेस ख़ुद इस रास्ते से चल कर सत्ता तक पहुँची है । दो – आंदोलन कारियों को क्या सजा मिले इसे सत्ता के ओहदेदार नहीं तय करते थे यह काम न्यायपालिका करती थी और न्याय पालिका आज की तरह नहीं थी । बहरहाल कहना यह है कि समाजवादी आंदोलन इसी कार्यकाल में मजबूत हुआ । आंदोलन का मुद्दा केवल देश दायरे तक सीमित नहीं था बल्कि देश दुनिया में जहाँ भी अन्याय होता समाजवादी उठ खड़ा होता । उसका तर्क होता “ यह किसी देश विशेष का आंतरिक मामला नहीं है , यह समूची मानवता को मिले प्राकृतिक अधिकार के ख़िलाफ़ एक जुल्म है और हम इसका विरोध करते हैं । “ हमारे पड़ोस में बैठा नेपाल पहले राजशाही फिर राणाशाही की तानाशाही जकड़ा हुआ हाँफ रहा था । समाजवादी आंदोलन ने इस देश को कभी भारत से अलग नहीं माना ( रहन सहन , जीवन शैली , तमीज तहज़ीब वगैरह से भारत और नेपाल को दो अलग मुल्क होते हुए भी कभी उसे अलग थलग नहीं रखा ) आजादी की लड़ाई में यह निकटता और मजबूत हुई । नेपाल का सत्ता पक्ष अंग्रेजों का मददगार बना रहा , लेकिन जनता में अपनी आजादी की ललक बनी रही । आजादी के बाद भारत तो आजाद हो गया और देश बहुदलीय लोकतंत्र की नीव रखी गई लेकिन नेपाल सामंती व्यवस्था में उलझा रहा । इससे निजात पाने के लिए नेपाल में नेपाली कांग्रेस का उदय हुआ । वि पी कोइराला , गणेश मान सिंह वगैरह नेपाल में राणा शाही के ख़िलाफ़ बड़ा जनआंदोलन शुरू करने में सफल रहे । नेपाल की नेपाली कांग्रेस और भारत की समाजवादी पार्टी के बीच सैद्धांतिक समरसता थी । और भारत में समाजवादियों द्वारा नेपाल की राजशाही के ख़िलाफ़ आंदोलन चलता रहता ।
73 / 74 की बात है । एक दिन हम काशी विश्वविद्यालय के छात्र संघ भवन में बैठे थे । अचानक एक छोटी सी खबर देखने को मिली । दिल्ली में समाजवादी युवजन सभा के नेता प्रो राजकुमार जैन द्वारा जारी किया गया बयान था । अमुक तारीख को युवजन सभा नेपाली दूतावास पर राजशाही के खिलाफ प्रदर्शन करेगी । बनारस से भी इस आंदोलन में भाग लेने वालों की सूची बनाई गई , चंदा इकट्ठा हुआ और हम दिल्ली आ पहुंचे।
प्रोफेसर राज कुमार जैन अगली पक्ति के युवा नेता ही नहीं , हर जोड़ – जुल्म के ख़िलाफ़तन कर खड़े होने की अपार क़ूबत के मालिक हैं । हम और हमारे जैसे अनगिनत युवाओं के प्रेरणा स्रोत भी हैं । बनारस से दिल्ली के रास्ते में एक लंबी बहा चली । “ ख़बर में जगह” बहस का मुद्दा था ,।
– कितना भी चीखो – चिल्लाओ , लात डंडा खाओ , जेल जाओ , लेकिन अख़बार में आएँगे जैन साहब ही ।
– उतनी मेहनत तुम भी कर लो , तुम भी अख़बार में आओगे ।
– उतनी काबिलियत भी तो होनी चाहिए ।
संवाद की दिशा ने इतना मोहित किया कि हमने यह ठान लिया “ कुछ होना चाहिए , कुछ दमदार करना चाहिए । और वह कर दिया । नेपाली दूतावास के सामने हम प्रदर्शनकारियों के लिए पूरी फोर्स लगायी गई थी । गेट पर रस्सी खींच कर बैरिकेटिंग हुई थी । दुनिया भर के पत्रकारों का जमावड़ा था । प्रदर्श का रूख उधर था जिधर जैन साहब जमे खड़े नारा लगा रहे थे । हमने देखा कि गेट पर कुछ कम फोर्स है । हमने सोचा मौका अच्छा है उसी को फलांग कर अंदर घुस चले । और हम कूद गए । उधर अंदर नेपाल की पुलिस लगी थी । हमतो सड़क पर गिरे और नेपाल पुलिस ने हमपर बन्दूक तान ली । बस इतनी सी बात हुई । बाद में यह समझ में आया कि दूतावास के परिसर में भारत का कानून नहीं चलता वहाँ उस देश का क़ानून चलता है जिस देश का दूतावास होता है । भाग्यशाली था कि इतने में राजनारायण जी आ गए और किसी तरह हमे छुड़ा कर बाहर ले गए ।
दूसरे दिन सुबह के अखबारों में हमारी तस्वीर थी । तब युवाओं में जज्बा था -ओहदा नहीं , बहस के केंद्र में अपनी जगह बनाने की ललक थी ।
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