— राकेश अचल —
भारत सनातन देश है और शुरू से उसकी विदेश नीति बहुत स्पष्ट रही है. भारत ने हमेशा से शरणागति और निबल का बल होने के मूल्यों की रक्षा की है लेकिन फिलिस्तीन को मान्यता देने के मामले में भारत सरकार की चुप्पी शर्मनाक है. भारत वो देश है जिसने एक जमाने में सबसे पहले फिलिस्तीन की बांह थामकर उसे मान्यता प्रदान की थी.
ये मुद्दा घरेलू अदावत की राजनीति का नहीं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा है. नेहरू युग से वाया वाजपेयी और मनमोहन युग तक भारत फिलिस्तीन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खडे रहे हैं लेकिन मोदी युग में भारत फिलिस्तीन को मान्यता देने में कतराता नजर आ रहा है जबकि ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और यूके द्वारा फिलिस्तीन को आधिकारिक रूप से मान्यता दे चुके हैं.
हम भारतीय पहले हैं कांग्रेसी या भाजपाई बाद में इसीलिए हमारा मानना है कि पिछले 20 महीनों से फिलिस्तीन पर भारत की नीति “शर्मनाक और नैतिक कायरता” वाली रही है.
इस मसले पर हमें कांग्रेस का रुख गलत नहीं लगता.कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि जब यूके, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश फिलिस्तीन को मान्यता दे रहे हैं, तब भारत की चुप्पी समझ से परे है. उन्होंने याद दिलाया कि भारत ने तो 18 नवंबर 1988 को ही फिलिस्तीन को एक देश के रूप में औपचारिक रूप से मान्यता दे दी थी.रमेश की यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता देने की पुष्टि की है. इससे पहले कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने भी यही फैसला लिया.
मुझे याद है कि कांग्रेस ने पिछले महीने भी मोदी सरकार की “इजरायल के अस्वीकार्य कदमों पर पूरी तरह से चुप्पी” की निंदा की थी. इससे पहले, अगस्त में, कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी इजरायल पर “नरसंहार” का आरोप लगाते हुए, भारत सरकार को इजरायल की कार्रवाई पर “चुप रहने” के लिए लताड़ा था.वे संसद में भी फिलिस्तीन का झंडा छपा थैला लेकर पहुंची थीं. तब उनका मजाक भी उडाया गया था.
आपको बता दूं कि गत जुलाई में राज्यसभा में विदेश राज्य मंत्री कीर्तिवर्धन सिंह ने एक लिखित जवाब में कहा था कि भारत की फिलिस्तीन नीति लंबे समय से “दो-राष्ट्र समाधान” का समर्थन करती रही है, जिसमें एक संप्रभु, स्वतंत्र और व्यवहार्य फिलिस्तीन राज्य की स्थापना की बात है, जो इजरायल के साथ शांति से रहे.भारत ने 7 अक्टूबर 2023 को हुए आतंकवादी हमलों की कड़ी निंदा की थी और नागरिकों की मौत पर चिंता जताई थी. साथ ही, भारत ने युद्धविराम, बंधकों की रिहाई और बातचीत के जरिए समाधान का आह्वान भी किया था. लेकिन फिलिस्तीन को मान्यता देने में पता नही क्यों भारत सरकार संकोच कर रही है?
हमारे प्रधानमंत्री जी शायद भूल जाते हैं कि भारत की फिलिस्तीन नीति ऐतिहासिक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही एक स्पष्ट झुकाव लिए रही है। भारत ने लंबे समय तक फिलिस्तीन की आज़ादी और अधिकारों का समर्थन किया और इज़राइल के साथ संबंधों को सीमित रखा।औपनिवेशिक दौर और स्वतंत्रता से पहले महात्मा गांधी ने फिलिस्तीन में यहूदी राष्ट्र (इज़राइल) की स्थापना का विरोध किया था।उनका कहना था कि यूरोप में यहूदियों के साथ हुए अत्याचार का समाधान फिलिस्तीनियों की ज़मीन पर कब्ज़ा करके नहीं हो सकता।
आजादी के फौरन बाद भी भारत ने 1947 में संयुक्त राष्ट्र में इज़राइल के गठन के विभाजन प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया।1948 में इज़राइल की स्थापना के बाद भी भारत ने उसे लंबे समय तक औपचारिक मान्यता नहीं दी।भारत फिलिस्तीन मुक्ति संगठन को फिलिस्तीनियों का वैध प्रतिनिधि मानता था और 1975 में नई दिल्ली में पीएलओ का दफ़्तर खुलवाया गया।1988 में जब फिलिस्तीन ने खुद को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया, भारत ने इसे औपचारिक मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक था।
हमारी मौजूदा सरकार भूल रही है कि भारत ने गुटनिरपेक्ष देशों और अरब जगत के साथ मिलकर हमेशा फिलिस्तीन की स्वतंत्रता, यरूशलम पर उनके अधिकार और इज़राइल द्वारा कब्ज़े के विरोध का समर्थन किया।भारत की ऊर्जा ज़रूरतें (तेल आयात) और खाड़ी देशों में भारतीय कामगारों की बड़ी संख्या भी इस नीति के पीछे कारण रहे.1992 तक भारत और इज़राइल के बीच पूर्ण कूटनीतिक संबंध स्थापित नहीं हुए।उससे पहले तक दोनों देशों के बीच केवल वाणिज्य दूतावास स्तर का संपर्क था, और भारत की आधिकारिक नीति हमेशा फिलिस्तीन समर्थक रही।
मुझे लगता है कि भारत को बिना देर किए फिलिस्तीन को मान्यता दे देना चाहिए. अन्यथा भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि एक दब्बू देश की बन जाएगी.आपको पता होगा कि फिलिस्तीन एक ऐसा राष्ट्र है जो अस्तित्व में भी है और अस्तित्वहीन भी। दुनिया के नक्शे पर फिलिस्तीन नाम का कोई देश ही नहीं है। इसके बावजूद इसे व्यापक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है, इसके विदेशों में राजनयिक मिशन हैं। यह ओलंपिक सहित वैश्विक खेल आयोजनों में अपनी टीमें उतारता है। लेकिन, इसकी कोई स्वीकार्य सीमाएं नहीं हैं। कोई राजधानी भी नहीं है और ना ही कोई सेना है। फिलिस्तीनी प्राधिकरण का अपने क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण भी नहीं है। एक विनाशकारी युद्ध का सामना कर रहा फिलिस्तीन का एक हिस्सा गाजा अभी भी इजरायली कब्जे में है। इसलिए आज इसकी मान्यता काफी हद तक प्रतीकात्मक मानी जा रही है।
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