रिटायर्ड न्यायाधीश की परेशानी – विवेक मेहता

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Retired judge's troubles

न्यायाधीश पिता ने उसके न्यायाधीश बनने पर सीख दी थी- ‘बेटा ऐसा कोई काम मत करना की लोगों का न्याय पर से विश्वास उठ जाए। न्याय होना चाहिए साथ ही न्याय हो रहा यह भी दिखना चाहिए।’

न्याय हो रहा यह तो वे दिखने की कोशिश करते परंतु न्याय करते वक्त तत्कालिक लाभ या डर के कारण फैसला कुछ और ही आता। फैसले से राजा का मतलब निकल जाता। अब मुड़कर, सम्पूर्ण चेतनता से अपने कार्यों की समीक्षा करते हैं तो बचपन में दी गई पिता की सीख और पढ़ी गई सुदर्शन की कहानी “हार-जीत” के बाबा भारती, खड़क सिंह डाकू के संवाद उनके दिमाग में हलचल मचा देते। वह परेशान हो उठते।

बाबा भारती को अपने घोड़े सुल्तान की चाल पर गर्व था। सुल्तान उनकी जिंदगी ही बन गया था। एक बार डाकू खड़क सिंह भी घोड़े की प्रशंसा सुन उसे देखने आया था। तब खड़क सिंह ने जो कहा था उसका सार यह था कि ऐसा घोड़ा तो बाबा के पास अच्छा नहीं लगता, डाकू के पास होना चाहिए। उसके बाद से बाबा भारती को हमेशा डर सा लगा रहता कि डाकू कहीं घोड़ा चुरा ना ले। समय बीतता गया डर कम होता गया। एक दिन रास्ते में दीन दुखी के रूप में डाकू खड़क सिंह आया और धोखे से घोड़े की लगाम संभाल ली। तब बाबा भारती ने आवाज देकर कहा- ‘आज से मुझे घोड़े से कोई मतलब नहीं। बस एक प्रार्थना है। इस घटना को किसी के सामने प्रकट मत करना।’

खड़क सिंह ने पूछा- ‘तुम्हें क्या डर?’

बाबा बोले- ‘लोगों को पता चल गया तो दीन दुखियों पर विश्वास करना बंद कर देंगे।’

इन दिनों उन्हें भी लगने लगा कि उनके कार्य कलापों से लोगों का न्याय पर से विश्वास उठ रहा हैं। परेशान हालत में वे इधर-उधर सब जगह अपने को सही साबित करने की कोशिश करते हैं। उनकी गलतियां उतनी ही ज्यादा उभर कर सामने आ जाती।


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