समाजशास्त्री आई.पी. देसाई और सेंटर फॉर सोशल स्टडीज (सूरत)

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I.P. Desai

Dr. Shubhnit Kaushik

— डॉ शुभनीत कौशिक —

भारत में जिन समाजवैज्ञानिकों ने समाज के अध्ययन के साथ-साथ समाजविज्ञान को समर्पित संस्थाओं के निर्माण का काम किया, उनमें रजनी कोठारी, आई.पी. देसाई जैसे समाजशास्त्रियों का नाम अग्रणी है। इस साल मार्च महीने में इतिहासकार सदन झा द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भाग लेने के क्रम में सूरत स्थित सेंटर फॉर सोशल स्टडीज जाना हुआ।

जहां दो दिन रहते हुए समाजशास्त्री आईपी देसाई के योगदान से परिचित हुआ। बडौदा यूनिवर्सिटी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद आईपी देसाई ने अपनी बचत और प्रॉविडेंट फंड के पैसों से वर्ष 1969 में सेंटर फॉर रीजनल डेवलपमेंट स्टडीज की स्थापना की। जो आगे चलकर ‘सेंटर फॉर सोशल स्टडीज’ के नाम से जाना गया, जब इसे भारतीय समाजविज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा मान्यता मिली।

सूरत के नजदीक स्थित एक गांव में 1911 में पैदा हुए आईपी देसाई ने कभी दिनकर मेहता के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया था। आगे चलकर वे बम्बई यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र विभाग में छात्र बने, जहां से उन्होंने समाजशास्त्री जीएस घुर्ये के निर्देशन में पीएचडी की। उनके शोध ग्रंथ का शीर्षक था ‘सोशल बेसिस ऑफ़ क्राइम’।

1952 में बड़ौदा स्थित एम.एस. यूनिवर्सिटी में उनकी नियुक्ति हुई, जहां उनके विभागीय सहयोगी दिग्गज समाजशास्त्रीय एमएन श्रीनिवास थे। विद्युत जोशी ने आईपी देसाई की स्मृति में दिए गए एक व्याख्यान में बताया है कि ‘वह दौर एस यूनिवर्सिटी के स्वर्णिम दौर में से एक था। जब वहां एक साथ भीखू पारेख, रजनी कोठारी धीरूभाई शेठ, प्रकाश देसाई, घनश्याम शाह, मकरंद मेहता सरीखे विद्वान मौजूद थे।

संवादधर्मी समाजशास्त्री आईपी देसाई की सृजनात्मकता को उस दौर में इन विचारकों के साथ हुई बहसों और वाद-विवाद-संवाद की प्रक्रिया से दिशा मिली और उन्होंने साठ और सत्तर के दशक में गुजरात के समाज को समझने का महत्वपूर्ण काम किया। गुजरात के देहातों में अस्पृश्यता की समस्या हो या फिर आदिवासियों द्वारा स्वायत्त राज्य की मांग हो, सामाजिक आंदोलन हो, जातिगत हिंसा के प्रश्न हो, शिक्षा और समाज से जुड़े सवाल हों – इन सारे मुद्दों पर आईपी देसाई ने बहुत ही अंतर्दृष्टिपूर्ण लेखन किया।

1985 में आईपी देसाई के निधन के बाद सेंटर फॉर सोशल स्टडीज ने उनकी स्मृति में एक व्याख्यानमाला शुरू की, जिसमें रामकृष्ण मुखर्जी, एआर देसाई, योगेंद्र सिंह, एमएस गोरे, रजनी कोठारी, कृष्ण कुमार, धीरूभाई शेठ, डीएन धनागरे, उपेंद्र बक्शी, सुखदेव थोराट, दीपांकर गुप्ता, सुधीर चंद्र, डेविड हर्डीमान, भीखू पारेख, सुजाता पटेल, गोपाल गुरु जैसे विद्वानों ने व्याख्यान दिए हैं।

यह दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसी शानदार संस्था में केवल दो फैकल्टी ही बचे हैं एक तो इतिहासकाए सदन झा और दूसरे अर्थशास्त्री गगन बिहारी साहू। प्रख्यात वास्तुकार लॉरी बेकर द्वारा बनाई गई सेंटर की पुरानी लाइब्रेरी बिल्डिंग भी बुरी स्थिति में पहुँच गई है। कारण कि सेंटर को गुजरात सरकार और आईसीएसएसआर द्वारा दिए जाने वाले अनुदानों में साल-दर-साल कटौती हो रही है। कहना न होगा कि कभी संस्थाओं के निर्माण और विकास का दौर था, वह सपने देखने और उन्हें चरितार्थ करने का युग था। आज का दौर उन सपनों को कुचल डालने का दौर है। हमारा समय संसाधनों के अभाव में राज्य और समाज द्वारा गौरवशाली संस्थाओं को धीमी मौत मरने के लिए अभिशप्त छोड़ देने का समय है।


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