
बीता हफ्ता महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण और डा. राम मनोहर लोहिया के जीवन से जुड़ी घटनाओं के स्मरण का था। दो अक्तूबर महात्मा गांधी की जयंती थी तो आठ अक्तूबर जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि और 11 अक्तूबर उनकी जयंती थी। जबकि 12 अक्तूबर डॉ लोहिया की पुण्यतिथि थी। इन तिथियों पर देश में बचे खुचे समाजवादियों ने इन महापुरुषों को अपने-अपने ढंग से याद किया। ध्यान से देखें तो जयप्रकाश नारायण जिन्हें लोग प्यार से जेपी कहते थे उनके और डॉ लोहिया के विचार वास्तव मे गांधी के विचारों का नए रूप में विस्तार हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम किस प्रकार उनके विचारों के माध्यम से मौजूदा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का मुकाबला करें। पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से यह दुनिया और हमारा देश आर्थिक और राजनीतिक वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं से गुजर रहा था और तब यह कहा जा रहा था कि समाजवाद का मॉडल और देशी अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता और स्वदेशी का मॉडल विफल हो चुका है और आज आवश्यकता है वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की। यानी पूंजी और वस्तुओं का वैश्विक आदान प्रदान आसान हो, राष्ट्रीय परिधि में नौकरशाही की जकड़बंदी खुले और उत्पादन का काम सरकारी नियंत्रण से अलग निजी क्षेत्रों में जाए। इसी के साथ यह भी कहा जा रहा था कि अगर भारत ने अपनी राजनीतिक आजादी 1947 में प्राप्त की थी तो आर्थिक आजादी 1991 में तब हासिल की जब उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। लेकिन आज उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया इतनी बुरी तरह से विफल हो चुकी है कि जहां अमेरिका मागा यानी अमेरिका को फिर से महान बनाने की बात कर रहा है वहीं भारत मीगा यानी भारत को फिर से महान बनाने की बात कर रहा है।
अंतरराष्ट्रीय व्यापारों को बढ़ावा देने के बजाय उन पर रोक लगाने के लिए नए किस्म के कर लगाए जा रहे हैं। लोगों के दूसरे देशों में जाकर नौकरियां करने पर फिर से रोक लगाई जा रही है। जहां अमेरिका से भारतीयों को हथकड़ियां और बेड़ियां पहनाकर वापस भेजा जा रहा है वहीं आस्ट्रेलिया से यूरोप तक आव्रजनों के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे हैं। अब फिर से देशों के बीच के रिश्ते व्यापार के बजाय हथियारों से तय होने लगे हैं। उन तमाम देशों में लोकतंत्र संकट में हैं जहां पर लोकतंत्र फलते फूलते देखा जा रहा था और उम्मीद थी कि वे सारी दुनिया को लोकतंत्र के रंग में रंग देंगे। सभ्यताओं, संस्कृतियों और धर्मों के टकराव के नाम पर एक नफरती दुनिया का निर्माण हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र की संस्थाएं प्रभावहीन हो गई हैं। युद्ध एक नियम बनता जा रहा है और शांति एक अपवाद। यानी वैश्विक गांव बनने के बजाय टूटा हुआ और विखंडित विश्व बन रहा है। जिसे विश्लेषक बहुपक्षीयता कह रहे हैं। राष्ट्रीय राजनीति में पार्टियां एक दूसरे की पूरक होने के बजाय शत्रु हो गई हैं।
ऐसे समय में डॉ लोहिया और जेपी के विचारों की प्रासंगिकता फिर से बनती दिखाई दे रही है। जेपी के 1975 की संपूर्ण क्रांति के आह्वान की स्वर्ण जयंती के अवसर पर यह स्मरण किया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने उस विचार की किस प्रकार व्याख्या की थी। जेपी ने संपूर्ण क्रांति के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा था, “ इस समय हम एक दूरगामी असर वाली क्रांति की देहरी पर खड़े हैं। युग की जो भावना है वह समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्शों की पूर्ति के लिए शोर मचा रही है, वह चाहती है कि राज्यविहीन समाज बने और हर किसी को उसकी योग्यता और हर किसी को उसकी जरूरत के लिहाज से मिले। गांधीजी एक बात अक्सर कहा करते थे कि जहां क्रांतियों ने सामाजिक व्यवस्था के बाहरी ढांचे में बदलाव किया लेकिन वे जो क्रांति करना चाहते हैं वह दो स्तरों की होगी। यह एक ऐसी क्रांति होगी जो पहले लोगों के मानस में शुरू होगी और बाद में समाज के बाह्य रूप को बदलेगी। वह एक आध्यात्मिक क्रांति होगी। देश की आध्यात्मिक क्रांति आज ऐसी विरासत की मांग कर रही है।” इसके अतिरिक्त जेपी दलीय पद्धति पर सवाल उठाते हुए कहते हैं दलीय पद्धति को जितना मैंने देखा है वह लोगों को डरपोक और नपुंसक बना रही है। मैंने ऐसा अनुभव किया कि दलीय पद्धति लोगों को भेड़ों की स्थिति में ला देना चाहती है। जिसका काम नियत समय पर गड़रियों को चुन लेना है जो उनके कल्याण की चिंता करेंगे। मुझे इसमें स्वतंत्रता के दर्शन नहीं होते।
जबकि डॉ लोहिया कहते थे कि आज का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विचार है सम्मानजनक जीवन स्तर के बजाय सतत समृद्धि का। उनके लिहाज से आधुनिक औजार इतने जटिल हो गए हैं कि लोकतंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध हो गए हैं। दो तिहाई दुनिया पर इन्हें जबरदस्ती लादा जा रहा है। इसलिए डॉ लोहिया का कहना था कि अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन किया जाए और आवश्यकताएं सीमित रखी जाएं। विभिन्न आयों में अपेक्षाकृत समानता और संपत्ति पर सामाजिक स्वामित्व हो। उनके इन विचारों को सात सूत्रों में देखा जा सकता है। वे अधिकतम प्राप्य समानता, शक्ति का अधिकतम वितरण, सामाजिक स्वामित्व, छोटी मशीन की प्रौद्योगिकी, राष्ट्रीय सीमाओं में बढ़ते रहने के स्थान पर सारी मानव जाति के लिए सम्मानजनक जीवन स्तर, सभी सामूहिक अतिक्रमणों से व्यक्ति की निजता की रक्षा, विश्व सरकार और विश्व संस्कार।
डॉ लोहिया संपूर्ण दक्षता की बात करते हैं और कहते हैं कि आज के युग में मनुष्य इतिहास के उस बिंदु पर आ गया है जहां पर वह उत्थान और पतन के चक्र से मुक्त हो सकता है। यह संपूर्ण दक्षता क्या है उस पर समाजवादी अर्थशास्त्रियों को काम करना चाहिए। मनुष्य ने अगर अट्ठरहवीं और उन्नीसवीं सदी में मुक्त व्यापार के विचार को अपनाया और माना कि अधिकतम दक्षता निजी क्षेत्र में हासिल की जा सकती है तो बीसवीं सदी में सरकारी नियंत्रण और स्वामित्व से चीजों को चलाने की कोशिश की। सदी के बीतते बीतते उसे इसी प्रणाली की सीमाएं स्पष्ट होने लगीं और सरकार द्वारा नियंत्रित अर्थव्यवस्थाएं टूटने लगीं। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप की समाजवादी सरकारें गिरने लगीं और चीन बाजार के रास्ते पर आ गया। अब फिर से बाजार की सीमाएं स्पष्ट होने लगी हैं और बाजार के बजाय सामुदायिक स्वामित्व का सवाल उठने लगा है।
लेकिन यह सब काम तब तक नहीं हो सकता जब तक समाज में विभाजनकारी राजनीति चलेगी। विभाजनकारी राजनीति के विरुद्ध गांधी, जेपी औऱ लोहिया के विचार बेहद प्रासंगिक हैं बशर्तें उन्हें नए रूप में परिभाषित किया जाए। डॉ लोहिया कहते थे कि हमारे पुरखे दूर दूर तक गए और उन्होंने मानव समाज की तमाम सभ्यताओं के साथ ऐक्य कायम किया लेकिन वे साम्राज्यवादी नहीं थे। यही बात प्रसिद्ध मानवशास्त्री लेवी स्ट्रास कहते हैं कि सभी संस्कृतियों का मूल्य समान है। गांधी सभी संस्कृतियों के मूल्य को सत्य से निसृत मानते थे। उसे ही वे प्रेम की संज्ञा देते थे। भारतीय संदर्भों में डॉ लोहिया इसे राम और कृष्ण जैसे प्रतीकों के ऐक्य संबंधी उद्देश्यों से जोड़ते थे।
उनका कहना था कि राम हिंदुस्तान की उत्तर दक्षिण एकता के प्रतीक थे तो कृष्ण पूरब पश्चिम की एकता के। उनमें बहुत गुण हैं लेकिन एकीकरण उनका सबसे बड़ा गुण है। उनका ऐक्य का यह दर्शन भारत समेत पूरी दुनिया पर लागू किया जा सकता है और वे उसे करते भी थे। वे अगर विश्व संसद और विश्व सरकार की बात करते थे तो अरब इजराइल विवाद के लिए फिलस्तीन और इजराइल के महासंघ की बात भी करते थे। भारत और पाकिस्तान के झगड़े के निपटारे के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के महासंघ की बात करते थे। वे हथियारों से मुक्त अहिंसक विश्व के निर्माण की बात भी करते थे। जो कि इस दौर की सबसे बड़ी चुनौती है।
आज सवाल यह है कि क्या हम समाजवाद के विचारों के सहारे इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं, वे विचार जिनमें समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्य हैं जिसमें मानव सामीप्य का मूल्य है। यह कहना कठिन है कि सारा देश और सारी दुनिया इन विचारों को इसी रूप में अपना लेगी। लेकिन एक बात तय है कि पूंजीवादी उत्पादन और वितरण पद्धति की सीमाओं को दुनिया फिर पहचान रही है। अगर 1991 का वर्ष सरकार नियंत्रित समाजवाद के संकट का साल था तो 2024-25 का वर्ष बाजार नियंत्रित पूंजीवाद के संकट का साल है। इसलिए यह सोचने का समय है कि क्या गांधी, जयप्रकाश नारायण और लोहिया के विचारों के माध्यम से हम इसका समाधान देख सकते हैं?
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