सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पुण्यतिथि पर विशेष

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Suryakant Tripathi Nirala

देश के इतिहास में गांधीजी का नाम उस प्रकाशस्तंभ की तरह है जो स्वतंत्रता, सत्य और अहिंसा के मार्ग को आलोकित करता रहा। हिंदी साहित्य के महान कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का गांधीजी से यह संवाद केवल दो व्यक्तियों की मुलाकात नहीं, बल्कि विचार, दृष्टि और स्वतंत्रता के दो आयामों का टकराव है—राजनीतिक स्वतंत्रता और बौद्धिक स्वतंत्रता।

हिंदी के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपने आत्मसम्मान और बौद्धिक स्वतंत्रता से गांधीजी से मुलाकात कर लंबी बहस की। यह घटना केवल एक मुलाकात नहीं थी, बल्कि विचार और नेतृत्व के दो ध्रुवों का संवाद थी — राजनीति बनाम साहित्य, सापेक्ष बनाम निरपेक्ष स्वतंत्रता।

निराला की गांधीजी के प्रति श्रद्धा

निराला गांधीजी की महानता को स्वीकारते हैं। वे कहते हैं कि “गुलामी को शिकस्त देने की आवाज़ देश में सबसे बुलंद गांधीजी की है।वे यह भी स्वीकार करते हैं कि गांधीजी बुद्ध और ईसा की कोटि के महानतम व्यक्ति हैं।” साथ ही वे यह भी कहते हैं कि गांधीजी की हर क्रिया “सापेक्ष” है — यानी जनभावना और नेतृत्व के दबाव से बंधी। साहित्य के लिए वे “निरपेक्षता” को आवश्यक मानते हैं — जहाँ न धर्म, न भाषा, न जाति की सीमाएँ बचें, केवल सत्य बचे।

हिंदी, हिंदुस्तानी और भाषा की राजनीति

गांधीजी ने पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा कहा, फिर “हिंदुस्तानी” का समर्थन किया। निराला को लगा — यह केवल भाषाई नहीं, राजनीतिक समझौता था। वे लिखते हैं “गांधीजी ने हिंदीभाषी पंद्रह करोड़ जनता की भावनाजन्य स्वतंत्रता बात ही बात में कह दी।” निराला के अनुसार गांधीजी का यह कदम नेतृत्व की मजबूरी थी, पर साहित्य को यह पराधीनता स्वीकार नहीं। साहित्य वहाँ जन्म लेता है जहाँ मन स्वतंत्र होता है।

लखनऊ में वह ऐतिहासिक मुलाकात

1935-36 में गांधीजी हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति बने और उन्होंने किसी संदर्भ में एक प्रश्न किया “हिंदी में रवींद्रनाथ ठाकुर कौन है?”

यह वाक्य निराला के भीतर बिजली-सा कौंधा।
उन्होंने ठान लिया कि गांधीजी से मिलकर यह पूछेंगे कि जो हिंदी को नहीं पढ़ते, वे उसकी आत्मा का मूल्यांकन कैसे कर सकते हैं?

लखनऊ में गांधीजी से मिलने का प्रयास हुआ। बहुत भीड़ थे पर अंततः महादेव देसाई की सहायता से मिलने की अनुमति मिली। शाम को प्रार्थना सभा के बाद निराला बापू के सामने थे।
कमरे में गांधीजी, महादेव देसाई, शिवप्रसाद गुप्त, अन्नपूर्णानंद जैसे नामचीन लोग बैठे थे।
निराला ने देखा “महात्मा की आँखों में दिव्यता थी, पर पुतलियों में एक चालाक चमक भी।”

संवाद जो इतिहास बन गया

गांधीजी ने निराला से पूछा “आप किस प्रांत के हैं?” निराला बोले “मैं उन्नाव का हूँ, पर बंगाल में जन्मा हूँ।”

निराला ने गांधीजी से कहा “देश की स्वतंत्रता से पहले विचार की स्वतंत्रता जरूरी है। हिंदी वाले रूप देखते हैं, तत्त्व नहीं। मैंने गीता पर लिखी आपकी टीका देखी है। आप बहुत गहरे जाते हैं और दूर की पकड़ आपको मालूम है। आपने उसमें समझाने की कोशिश की है।”

गांधीजी ने कहा, “मैं तो बहुत उथला आदमी हूँ।”

निराला ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया “हम उथले में रहे हुए व्यक्ति की गहराई देखने की ताकत रखते हैं। जब आप हिंदी नहीं जानते, तो यह कैसे कह सकते हैं कि हिंदी में रवींद्रनाथ ठाकुर कौन है?”

पूरा कमरा सन्न रह गया। गांधीजी बोले मैने उस संदर्भ में नहीं कहा था जैसा आप समझ रहे हैं।

निराला बोले “मैं आपको आधा घंटा सुनाना चाहता हूँ — रवींद्रनाथ की कविता और अपनी रचना, फिर आप निर्णय कीजिए।”
गांधीजी ने कहा “मेरे पास समय नहीं है।”

निराला के शब्दों में “हिंदी साहित्य सम्मेलन का सभापति, जो प्रार्थना में मीरा के भजन सुन सकते हैं, चरखा कात सकते हैं, हिंदी कवि के लिए आधा घंटा नहीं निकाल सकते!

गांधीजी ने कहा, “आप अपनी किताबें भेज दीजिए।”

निराला हँस पड़े “आपके पास हिंदी के कौन से जानकार हैं जो राय देंगे? एक हैं पं. बनारसीदास चतुर्वेदी, विशाल भारत के संपादक जो कुछ दिन आपके पास और कुछ दिन रवींद्रनाथ के यहाँ रुकते हैं। विशाल भारत के संपादक के लिए यही सबसे बड़ी योग्यता ठहरी!”

गांधीजी भी मुस्कुराए, पर निराला का व्यंग्य स्पष्ट था। यह संवाद समाप्त हुआ, पर निराला के मन में एक लोकोक्ति गूँजती रही

किसी महाजन के एक घोड़ा था। वह उसकी बड़ी देख-भाल करते थे। एक दिन उनके किसी पड़ोसी को कहीं जाना था। वे महाजन के यहाँ गए और कहा, सवारी के लिए मुझे आप अपना घोड़ा दे दीजिए। महाजन ने कहा, घोड़ा नहीं है। पड़ोसी को विश्वास न हुआ, वे वहीं खड़े रहे। कुछ देर बाद घोड़ा हिनहिनाया। पड़ोसी ने कहा, आप कहते थे, घोड़ा नहीं है, घोड़ा तो है। महाजन ने कहा, तुम हमारी आवाज नहीं समझे घोड़े की आवाज समझे।

इस लोकोक्ति को सोचकर मैने किताब नहीं भेजीं क्योंकि मैं महात्मा जी की आवाज पहचान गया था। किताब भेजकर उनके घोड़े की आवाज नहीं पहचानना चाहता था।

सारांश रूप में निराला ने गांधीजी दोनों में आदर और आलोचना का संतुलन बना रहा। निराला गांधीजी की महत्ता स्वीकार करते हैं पर उनकी सीमाएँ भी स्पष्ट रूप से दिखाते हैं — खासकर जहाँ साहित्य की स्वतन्त्रता और सूक्ष्मताएँ दब रही हों। यह मतभेद व्यक्तिगत वैमनस्य नहीं, बल्कि साहित्यिक-दार्शनिक बहस का हिस्सा था — जो आज भी भाषा, नेतृत्व और कला के रिश्ते पर सोचने के लिए उपयोगी है। गांधीजी केवल सत्य बोलते ही नहीं, उनमें सुनने की हिम्मत भी थी।

महाकवि निराला को उनकी पुण्यतिथि पर नमन।


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