सनातन धर्म में ईश्वर के सामने सब बराबर है या सबकी हैसियत अलग-अलग है? चमार, दुसाध, भंगी आदि के ईश्वर और ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार के ईश्वर एक हैं या वे भी अलग अलग हैं? सनातन धर्म के ढोंगियों से यह सवाल है। एक आईपीएस अफसर पूरन कुमार आत्महत्या करते हैं, इसलिए कि राजनैतिक और जाति से मजबूत आईपीएस शत्रुजीत जाति के आधार पर प्रताड़ित करते हैं। पूरन कुमार दलित हैं। उनकी पत्नी आई ए एस अफसर हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री सैनी ने कार्रवाई के लिए पूरन कुमार की बेटियों से वादा किया था। कई दिन बीत गए। लाश रखी हुई है। राजनीति अपने तरीके से काम कर रही है। आईपीएस शत्रुजीत को गृहमंत्री अमित शाह और पूर्व मुख्यमंत्री खट्टर का आशीर्वाद प्राप्त है।
मुख्यमंत्री सैनी अब इतने लाचार हैं कि उन्होंने हथियार डाल दिया है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर इसलिए जूते फेंके जाते हैं, क्योंकि वे दलित हैं। इतने बड़े पद पर बैठे लोगों की हालत यह है तो अन्य दलितों की देश में क्या हालत होगी, इसका सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं। सनातनी लोग सत्ता में है। वे अपने को धर्म रक्षक कहते हैं। हिन्दुओं का एक बड़ा संगठन है आर एस एस जिस पर केरल में समलैंगिक संबंधों के लिए आरोप लगा है। अट्ठाईस वर्ष के एक युवक ने समलैंगिक संबंध से इतना परेशान हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली। उस संगठन के चीफ मोहन भागवत ने सीजेआई पर फेंके गए जूते की निंदा की, न आईपीएस पूरन की प्रताड़ना पर। वे सनातनी हैं। उन्हें सनातन धर्म का ठेकेदार बने रहना है, इसलिए आर एस एस का चीफ भी तथाकथित सवर्ण जातियों का ही होगा।
भारत को एक सांस्कृतिक जागरण की जरूरत है और राजनीतिक की सर्वोच्च सत्ता पर दलितों का वर्चस्व जरूरी है। दलित और पिछड़े सिर्फ वोट देने और प्रताड़ना सहने के लिए नहीं बने हैं। सनातन धर्म में जाति का नाश जरूरी है। जाति के रहते हिन्दू सबसे उदास समाज है। वह ठीक से हंस बोल भी नहीं पाता। कई बार आप परिस्थितियों का आकलन नहीं कर पाते और आप अपने में ग़ाफ़िल रहते हैं। आपको पता नहीं चलता कि परिस्थितियां कुछ और मांग रही थीं और आप कर कुछ और रहे थे। जब तूफान गुजर जाता है, तब अहसास होता है कि यह तो तूफान था और आप शुतुरमुर्ग बने बैठे थे। रेत में सिर गाड़ कर मान बैठे थे कि आपने आकाश थाम रखा है। आकाश तो गजब का शोर मचा रखा था।
उस शोर में आपका सबकुछ उखड़ रहा था। और तब आता है निराशा का दौर या गुस्से का दौर। ज्यादातर गुस्सा दूसरे के लिए नहीं होता है, वह खुद के लिए होता है। खुद की लाचारी से उपजता है गुस्सा। जब आप अपनी समस्याओं का निदान नहीं कर पाते, या आपको लगता है कि कोई और समस्याओं का निदान कर दे और वह नहीं कर पाता तो फिर गुस्सा आता है। आज लोगों के बर्दाश्त करने की क्षमता बहुत घटी हुई है। रास्ते में चलिए तो आपको भड़कता हुआ आदमी मिल जायेगा। गांव की गलियों में या शहर के नुक्कड़ों पर आप सहज ही यह दृश्य देख सकते हैं। जहां जाति जितनी कठोर है, वहां गुस्सा भी सबसे ज्यादा है। व्यक्ति और समाज अपनी समस्याओं को सुलझाने में अक्षम रहा है। यह भी उतना ही सही है कि बहुत वर्षों तक यह स्थिति नहीं रह सकती। बदलाव भी हो रहा है, लेकिन गति धीमी है। जाति ने मनुष्य रूपी नदी के बहाव को रोक रखा है। इस रोड़े पर आक्रमण जरूरी है।
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