
लोकतंत्र की दुर्दशा से बेचैन भारतीय समाज एक ओर बिहार में चल रहे चुनाव की ओर उम्मीद से देख रहा है तो दूसरी ओर वह अमेरिका में चले ‘नो किंग्स’ जैसे प्रभावी आंदोलन से आशा बांधे हुए है। अपने मित्रों की एक टोली अमेरिका गई हुई थी गांधी विचार पर गोष्ठियां करने। प्रोफेसर अभय कुमार दुबे, पत्रकार आशुतोष, राकेश पाठक, आनंद वर्धन सिंह, राजकेश्वर सिंह और शीतल पी सिंह, जो देश के जाने माने पत्रकार, प्रोफेसर और बौद्धिक हैं और उन्हें आप तमाम चैनलों पर जोरदार बहसें करते हुए देख सकते हैं। उनकी बातों में न सिर्फ चिंताएं होती हैं बल्कि गहरा विवेक होता है। लगभग महीने भर तक अमेरिका में निवास करने के बाद वे अपने विचारों की तलवार पर अमेरिकी शान चढ़वा कर लौटे हैं। इसी बीच अपने तेजस्वी नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी भी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका का दौरा करके लौटे हैं। राहुल गांधी को तेजस्वी इसलिए कहना उचित है कि इस समय देश में शिद्दत के साथ लोकतंत्र की लड़ाई लड़ते हुए वे ही दिखते हैं। बाकी नेताओं की लड़ाइयां अपने अपने क्षेत्रीय सत्ता केंद्रों को वापस पाने की होड़ जैसी लगती है। लेकिन राहुल गांधी की यह आलोचना भी वैध लगती है कि वे अपनी लड़ाई को जमीन पर सांगठनिक स्वरूप प्रदान नहीं कर पाते और बीच बीच में लोकतंत्र की तलाश करने विदेश चले जाते हैं।
अमेरिका गए मित्रों ने अमेरिका के नो ‘किंग्स आंदोलन’ को नजदीक से देखने का दावा किया है। उनका कहना है कि वह आंदोलन एकदम गांधी के नक्शेकदम पर चल रहा है। उनका कहना है कि वह आंदोलन एकदम गांधी के नक्शेकदम पर चल रहा है। ‘नो किंग्स’ आंदोलन का मतलब है कि लोकतंत्र में कोई भी शासक मनमाने फैसले नहीं ले सकता। वह जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि है और उसे जनता की राय और उसके सुख दुख का ध्यान रखना चाहिए। अमेरिका वह देश है जहां लोकतंत्र की जड़ें गहरी बताई जाती हैं और वहां के चिंतक और विचारक पूरी दुनिया में प्रेस की स्वतंत्रता, अल्पसंख्यक समाज की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की स्थिति की समीक्षा करते रहते हैं और रिपोर्ट जारी करते रहते हैं। लेकिन आज उनके अपने यहां लोकतंत्र संकट में है।
विडंबना देखिए कि जिस समय अमेरिका के तमाम शहरों में लोकतंत्र के प्रति आस्था दर्शाते हुए प्रदर्शन हो रहे थे उसी समय वहां के राष्ट्रपति जेडी वैंस यूएस मैरीन कोर की परेड की सलामी लेते हुए शक्ति प्रदर्शन कर रहे थे। इस बात को कई अमेरिकी राज्यों के गवर्नरों ने बेहद अलोकतांत्रिक कदम बताया और ट्रंप प्रशासन की धमकाने वाली तानाशाही प्रवृत्ति माना। विडंबना देखिए कि अमेरिकी प्रशासन न सिर्फ अपने देश में अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहा है बल्कि वह युरोप में भी अनुदारवाद और फासीवाद का समर्थन कर रहा है। हाल में जेडी वैंस ने अपने दौरे में वहां की सरकारों को सलाह दी कि वे अपने देशों में प्रवासियों के लिए कठोर नीति का निर्माण करें। यह बात कई युरोपीय देशों को नागवार गुजरी है। लेकिन इस बीच इस तरह की खबरें भी आ रही हैं अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तीसरी बार राष्ट्रपति बनने की तैयारी कर सकते हैं। इसलिए दुनिया के तमाम देशों को अमेरिका में चल रहे ‘नो किंग्स’ आंदोलन से बहुत उम्मीदें हैं। उन्हें उम्मीदें हैं लातीन अमेरिकी देशों के उन आंदोलनों और सत्ताओं से भी जो अमेरिकी साजिशों के तहत कायम की जाने वाली तानाशाहियों और गलत तरीके से शांति का नोबेल हासिल करने वाली मारिया कोरिना मचादो की साजिशों से भी लड़ रहे हैं। शायद राहुल गांधी और उनके समर्थकों को इस तरह की प्रेरणाओं से बहुत उम्मीदें हैं।
लोकतंत्र की वापसी की अंतरराष्ट्रीय उम्मीद लगाए लोगों ने बिहार की तरफ उतना ध्यान नहीं दिया जितना देसी लोग उससे उम्मीद लगाए हैं। इस बार बिहार में एक ओर एनडीए सरकारों के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री गर्दा उड़ाए हुए हैं तो दूसरी ओर विभिन्न आंदोलनों के जुड़े और लोकतंत्र की चिंता करने वाले महात्मा गांधी के पड़पोते तुषार गांधी, योगेंद्र यादव, डॉ सुनीलम जैसे लोग भी जनता से लोकतंत्र को बचाने की अपील करते घूम रहे हैं। लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण के नेता प्रोफेसर आनंद कुमार ने भी बिहार के लोगों से सरकार बदलने की अपील की है। देसी लोगों का मानना है कि अगर बिहार में एनडीए गठबंधन हारता है तो एक नया सिलसिला शुरू होगा और अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के चुनावों में तीव्र लहर पैदा करेगा। उसके बाद भारतीय विपक्ष पूंजीवाद द्वारा पालित और पोषित तानाशाही, झूठ और लूट पर काबू करने में समर्थ होगा। हालांकि यह सिलसिला सफल तभी माना जाएगा जब इसकी पूर्णाहुति 2029 में दिल्ली विजय के रूप में हो या उससे पहले मध्यावधि चुनाव की स्थितियां निर्मित हों।
लेकिन अमेरिकी लोकतंत्र जितनी मृगमरीचिका में फंसा है बिहार का लोकतंत्र उससे कहीं अधिक है। एक ओर नीतीश कुमार जैसे समाजवादी और मंडल की पृष्ठभूमि से आए नेता हिंदुत्व का मुखौटा बने हुए हैं तो दूसरी ओर परिवारवाद के माध्यम से मंडल आयोग की क्रांतिकारी धार को कुंद करने वाले लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की आशा हैं। बिहार में लोगों की काफी उम्मीदें इस बात पर टिकी हैं कि लगातार धकियाए और हाशिए पर फेंके जा रहे नीतीश कुमार एकनाथ शिंदे बनने के बजाय उद्धव ठाकरे जैसी भूमिका अपनाएंगे। लेकिन बिहार में हाल में मोकामा में जिस तरह का खूनी संघर्ष हुआ और जनता दल(एकी) के उम्मीदवार और माफिया अनंत सिंह ने चुनौती देकर जन सुराज पार्टी के प्रचारक दुलार चंद यादव, जो कि खुद माफिया रहें हैं, की हत्या की या करवाई और फिर एनडीए की बिगड़ती छवि के कारण कुछ दिन तक नाटक चलने के बाद गिरफ्तार हुए, वह सब बहुत उम्मीद नहीं जगाता। बिहार में 20 साल के सुशासन के बाद भी हर पार्टी से चालीस प्रतिशत से अधिक अपराधी तो चुनाव लड़ ही रहे हैं। राजद के सर्वाधिक, उसके बाद जनता दल(एकी) और उसके बाद भाजपा है। इस चुनाव में कई बार तो लगता है कि बिहार में सारे मूल्य हारेंगे और अंत में जीतेगा पाखंड ही। क्योंकि बिहार अपने श्रेष्ठ इतिहास से इतना अधोपतित हो चुका है कि वहां से किसी तरह की नई उम्मीद लगाना व्यर्थ लगता है। अगर ऐसा न होता तो नीतीश कुमार इतने दिन तक करवट बदल बदल कर सरकार न चला पाते।
स्वतंत्र पर्यवेक्षकों को आशा नहीं है कि बिहार चुनाव निष्पक्ष तरीके से हो पाएगा। क्योंकि चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है। उसने एसआईआर से लेकर आचार संहिता संबंधी कार्रवाइयां यही देखकर की हैं कि कैसे एनडीए गठबंधन का हित सधे। वरना ठीक चुनाव के दौरान लोगों के खातों में धन का हस्तांतरण तो कम से कम रोक देता। बंदूकें और हथियार लेकर चुनाव प्रचार करने वालों को जेल भेज देता। वास्तव में लोकतंत्र और उसे स्थापित करने वाली चुनाव जैसी सबसे अहम प्रक्रिया झूठ, लूट और बेशर्मी पर इतनी आधारित हो चली है कि उससे संवेदनशील होने, नैतिक होने, लोकलाज रखने की आशा की ही नहीं जा सकती। न तो समाज ऐसा चाहता है और न ही लोकतांत्रिक संस्थाएं। इसलिए कई तटस्थ पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि अगर बिहार चुनाव में इंडिया समूह जीत भी गया तो आगे का रास्ता बहुत कठिन होने वाला है। क्योंकि चुनाव आयोग ने पूरे देश में एसआईआर की प्रक्रिया चला रखी है और इसका एक प्रमुख उद्देश्य मौजूदा सत्ताधीशों के पक्ष में वोटबंदी ही करना है।
इस बीच एक अमेरिकी अखबार ने यह खबर भी दी है कि भारत में जीवन बीमा निगम की तकरीबन चालीस हजार करोड़ रुपए की राशि अडानी समूह में निवेश करवाई गई है। उधर विडंबना यह है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन के बाद गठित लोकपाल के सदस्यों को भ्रष्टाचार मिटाने से अधिक चिंता इस बात की है कि उन्हें बीएमडब्लू कार कब मिलती है। ऐसे लोभी लोग अडानी की लूट पर किसी प्रकार की निगरानी या कार्रवाई कैसे कर सकते हैं? न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका तक लाचार लोकतांत्रिक संस्थाएं बार-बार यही संदेश देती हैं कि लोकतंत्र को अपने लिए जनता ही बचाएगी हम तो अपने को बचा लें यही बड़ी बात है।
अब सवाल यह उठता है कि पूंजीपतियों और तानाशाहों की तिजोरियों और तालों में लगातार बंद होते लोकतंत्र को मुक्त कराने की चाभी किसके पास है? कुछ चिंतकों का मानना है कि लोकतंत्र तभी बचेगा जब राज्य की संस्थाओं पर लोकतांत्रिक शक्तियों का कब्जा होगा। जबकि दूसरी ओर के कुछ विचारकों का कहना है कि लोकतंत्र एक तरह की संस्कृति है, समाज में उसे कायम किए बिना वह बचने वाला नहीं है। लेकिन अब जिस तरह की दुनिया बन गई उसमें तो लोकतंत्र और पूंजीवाद की ठन गई लगती है। अब यह ऐसी तलवारें हैं जिन्हें एक म्यान में रख पाना संभव नहीं है। अब पूंजीवादी तलवार को लोकतंत्र की मूठ नहीं चाहिए। उसे तानाशाही की मूंठ ही चाहिए। इसी तरह लोकतंत्र की तलवार भी अब पूंजीवाद की मूंठ के सहारे नहीं चलाई जा सकती। क्योंकि वह झूठ, लूट और अन्याय पर वार नहीं करती बल्कि उन पर वार करती है जो सच्चे और न्यायप्रिय लोग हैं। ऐसे में यही लगता है कि लोकतंत्र की लड़ाई न सिर्फ अमेरिका से जीती जा सकेगी और न ही बिहार से। वह लड़ाई पूंजीवाद को पराजित करने और मानव मन और मस्तिष्क और उसकी कल्पना से निर्मित समाज को बदलने से ही जीती जा सकेगी।
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