
चौदह नवंबर को जिस रहस्य से पर्दा उठने वाला है वह यह नहीं होगा कि बिहार के कश्मकश भरे चुनावों में जीत किसकी होने वाली है ! इस बात से उठेगा कि मोदी, ममता, केजरीवाल, आदि नेताओं को जिताकर सरकारें बनवाने वाले चुनावी कंसलटंट प्रशांत किशोर(पीके) अपने दावे के मुताबिक ख़ुद की पार्टी को 150 सीटें नहीं दिला पाते हैं तो फिर किस दल को हराने की उन्होंने ‘सुपारी’ ली थी ! प्रशांत किशोर दावे करते नहीं थकते कि उन्होंने 2014 में मोदीजी को, 2017 में अमरिंदर सिंह, 2019 में उद्धव और जगन, 2020 में केजरीवाल और 2022 में ममता को जितवाया था।
प्रशांत जानते हैं कि उनकी ‘जन सुराज पार्टी’ का अगर वही हश्र हुआ जो पिछले चुनाव में चिराग़ की ‘लोक जनशक्ति पार्टी’ का हुआ था तो न सिर्फ़ उनकी चुनावी कन्सल्टेंसी ख़तरे में पड़ जाएगी बिहार की राजनीति में भी वे हाशिए पर आ जाएँगे ! अतः मानकर चलना चाहिए कि वे इतना बड़ा जुआँ किसी बड़े दावँ के लिए खेल रहे हैं ! तो क्या नीतीश की नाराज़ी को दरकिनार कर चुनाव लड़ रही बीजेपी के अंदर पक रहा आत्मविश्वास प्रशांत किशोर के चमत्कार के भरोसे है ? साल 2015 में जेडी(यू) को जितवाकर नीतीश को मुख्यमंत्री बनवाने वाले पीके के इस कथन पर गौर किया जाना चाहिए कि जो पुरोहित विवाह संपन्न करवाता है वही श्राद्ध भी निपटाता है।
बिहार में विधानसभा चुनावों की सबसे ज़्यादा ज़मीनी तैयारी अगर किसी एक व्यक्ति ने की है तो वे प्रशांत किशोर हैं।पिछले साल पार्टी की स्थापना के भी पहले दो साल तक उन्होंने 665 दिनों तक 2,697 गाँवों की पैदल यात्रा की थी। विधानसभा के रिक्त स्थानों के लिए पिछले नवंबर हुए उपचुनावों में उनके द्वारा खड़े किए गए चार उम्मीदवारों ने पाँच से सैंतीस हज़ार वोट हासिल कर लिए थे। पिछली बार (2020) के चुनावों में 40 सीटें ऐसी थीं जिन पर फ़ैसला दो प्रतिशत के मार्जिन से हुआ था। सरकार बनाने में तेजस्वी के महागठबंधन की हार सिर्फ़ पंद्रह सीटों से हुई थी।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की रिपोर्ट के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा करोड़पति पीके की पार्टी में ही हैं ! प्रशांत किशोर घोषणा कर चुके हैं कि इस बार नीतीश सरकार की छुट्टी होने वाली है ! ‘किसकी सरकार बनेगी यह जनता तय कर करेगी’! पीके की भविष्यवाणी के पीछे निश्चित ही कोई ‘ठोस’ आधार होना चाहिए ! उनके घोषित गणित पर यक़ीन करना हो तो महागठबंधन और एनडीए दोनों के वोट शेयर लगभग बराबर हैं। दोनों के पास 36-36 प्रतिशत वोट शेयर है और 28 प्रतिशत की जगह उनकी पार्टी के लिए ख़ाली है।
क्या बीजेपी और प्रशांत दोनों के आत्मविश्वास एक ही डोर से बंधे नहीं हो सकते ? प्रशांत किशोर और चिराग़ दोनों द्वारा ही चुनाव न लड़ने की घोषणा को नतीजों के बाद ही डी-कोड किया जा सकेगा। दोनों ने पहले चुनावी मैदान में उतरने की घोषणा की थी। तो क्या फ़ैसला बीजेपी के दबाव में बदला गया ? ध्यान रखा जाना चाहिए कि तेजस्वी,चिराग़ और प्रशांत तीनों के बीच सिर्फ़ पाँच-पाँच साल का फ़र्क़ है। तीनों महत्वाकांक्षी हैं। चिराग़ ज़्यादा कुछ नहीं कर पाएँ तो भी इसलिए फ़र्क़ नहीं पड़ेगा कि वे केंद्र में मंत्री हैं।तेजस्वी को बिहार की राजनीति में ही रहना है। विपरीत नतीजों का सबसे ज़्यादा असर प्रशांत के प्रोफेशनल और पोलिटिकल करियर पर पड़ने वाला है।
मोदीजी को छोड़ दें तो अपनी कन्सल्टेंसी के ज़रिए जिन-जिन नेताओं को सत्ता में लाने का दावा प्रशांत किशोर करते हैं उनमें से अब सिर्फ़ दो बड़े ही बचे हैं: नीतीश और ममता। बीजेपी की मदद के लिए इस चुनाव में वे अगर नीतीश को सत्ता से बाहर करवा देते हैं तो हो सकता है अगले साल ममता का नंबर लगा दें। राहुल जानते हैं प्रशांत किशोर को उन्होंने भाव नहीं दिया था और वे कांग्रेस से नाराज़ हैं। कहीं तो नोट किया ही जा रहा होगा कि मोदी और शाह अपनी सभाओं में न तो प्रशांत पर हमला कर रहे हैं और न ओवैसी पर। दाल में कुछ तो काला होना ही चाहिए !
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