— परिचय दास —
सच्चिदानंद सिन्हा उन विरल समाजवादी विचारकों में थे जिन्होंने भारतीय सामाजिक जीवन को केवल सिद्धांतों के आधार पर नहीं बल्कि जमीनी सामाजिक बदलाव की दीर्घकालिक प्रक्रिया के रूप में देखा। उनका चिंतन किसी राजनीतिक दल, किसी क्षणिक आंदोलन या किसी सत्ता के प्रतिष्ठान की देन नहीं था। वह बिहार की मिट्टी से उठे, मुजफ्फरपुर को अपना जीवन–केन्द्र बनाया और अपनी पूरी बौद्धिक ऊर्जा उन प्रश्नों पर केंद्रित की, जिनमें भारतीय समाज की भीतरी परतें छिपी थीं—वर्ग, जाति, ग्रामीण संरचना, शैक्षिक विषमता, सामाजिक न्याय, भूमि–सुधार और आधुनिक लोकतंत्र के भीतर उत्पन्न होने वाले अंतर्विरोध। उनका महागमन कुछ दिन पहले ही हुआ है पर उनकी बौद्धिक उपस्थिति आज भी उतनी ही तीखी और प्रखर है जितनी जीवनकाल में रही। वह उन विचारकों में थे जिन्हें पढ़ना एक तरह से भारतीय लोकतंत्र और समाज के गहरे अंतरालों को पढ़ना था। वह किसी छद्म क्रांतिकारिता से दूर, सामाजिक संरचना की जटिलताओं को विश्लेषित करते हुए समाजवादी दृष्टि की उस परंपरा को आगे बढ़ाते थे, जिसमें आचार्य नरेंद्र देव से लेकर लोहिया और जयप्रकाश नारायण तक एक संवाद की निरंतरता देखी जा सकती है।
सच्चिदानंद सिन्हा ने अपनी वैचारिक यात्रा किसी अचानक भावावेश में नहीं शुरू की। उन्होंने बिहार को देखा, उसकी राजनीतिक संस्कृति को समझा, उसके लोक–तर्क और लोक–अनुभव को परखा। बिहार के गाँवों में जो संघर्ष, द्वंद्व, विसंगतियाँ और बदलाव होते रहे, वे उनके विचार–कर्म के मूल स्त्रोत बने। मुजफ्फरपुर में रहते हुए उन्होंने न केवल बौद्धिक वर्ग से संवाद किया, बल्कि किसानों, छात्रों, संघर्षशील समुदायों और हाशिये के समूहों से भी लगातार जुड़े रहे। यही कारण है कि उनका समाजवाद केवल सैद्धांतिक नहीं था; वह रक्त–मांस से बना एक जीवंत समाजवाद था, जो जीवन की धड़कनों में शामिल था। उन्हें पढ़ते हुए यह अनुभव होता है कि वह भारतीय समाज के भीतर काम कर रही शक्तियों को केवल आदर्शवाद से नहीं, बल्कि विश्लेषणात्मक समाज–विज्ञान के कठोर औज़ारों से देखते हैं। इसलिए उनका विचार अकसर ‘पॉलिटिकल सोशियोलॉजी’ की तरह सामने आता है, जहाँ सिद्धांत और यथार्थ दोनों एक दूसरे के साथ संवाद करते हैं।
उनका एक मूल आग्रह यह था कि कोई भी परियोजना—चाहे वह आर्थिक न्याय की हो या सामाजिक समता की—भारतीय समाज की बहुस्तरीय वास्तविकताओं को समझे बिना सफल नहीं हो सकती। भारत में जाति की संरचना, सामंती अवशेष, राजनीतिक संरक्षणवाद और आर्थिक विषमता—ये सब एक–दूसरे में गुंथे हुए हैं। सिन्हा ने इस गुत्थी को कभी सरल नहीं माना। वे सीधे कहते थे कि यदि समाजवाद को यहाँ स्थापित होना है, तो उसे जाति–विच्छेदन और सामाजिक पुनर्निर्माण के अपने कार्यक्रम को बेहद ईमानदारी और कठोरता के साथ आगे बढ़ाना होगा। समाजवादी राजनीति की असफलताओं पर उनकी आलोचना भी इसी आधार पर थी—कि समाजवाद जब भी केवल राजनैतिक अवसरवाद बना, उसने अपने नैतिक–वैचारिक लक्ष्य खो दिए। वे मानते थे कि लोहिया की सामाजिक न्याय की अवधारणा को राजनीतिक दलों ने केवल नारे में बदल दिया; जबकि उसका मूल लक्ष्य समाज की संरचनात्मक बुनियादों को बदलना था।
सच्चिदानंद सिन्हा ने भूमि–सुधार और कृषि–संरचना पर भी गहरी टिप्पणियाँ कीं। बिहार की जमीन, उसकी बँटवारे की परंपरा, उसके ज़मींदारी अवशेष, और उसके सामाजिक रिश्तों की जटिलताओं को उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव से समझा। वे कहते थे कि भारत में कृषि–संकट सिर्फ आर्थिक संकट नहीं है; यह सामाजिक और राजनीतिक रूप से निर्मित संकट है। भूमि–सुधार के अधूरेपन ने समाज में असमानता को स्थायी बना दिया। सीमांत किसान, भूमिहीन मजदूर और दलित–वंचित समूह इस असमानता के सबसे अधिक शिकार रहे। उनका विश्लेषण बताता है कि ग्रामीण भारत में जब तक भूमि–संबंधों में संरचनात्मक बदलाव नहीं होंगे, तब तक आर्थिक समता का कोई भी कार्यक्रम केवल कल्पना भर रहेगा। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उनका चिंतन केवल राजनीतिक परिवर्तन तक सीमित नहीं था; उसमें समाजशास्त्रीय दृष्टि और आर्थिक पुनर्गठन का स्पष्ट आग्रह भी शामिल था।
भारतीय लोकतंत्र में बढ़ते सांप्रदायिक तनावों और सामाजिक विभाजनों पर उनकी चिंता भी गहरी थी। वे हमेशा कहते थे कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती बाहरी आक्रमण या किसी अधिनायकवादी सत्ता से नहीं बल्कि समाज के भीतर फैलती असहिष्णुता और द्वेष से आती है। जब समाज का आंतरिक नैतिक संसार नष्ट होता है, तब लोकतंत्र कमजोर पड़ता है। उनमें एक ऐसी लोकतांत्रिक चेतना थी जो नागरिक–समाज की भूमिका, स्वतंत्र संस्थाओं के महत्त्व और सार्वजनिक विमर्श की गरिमा पर लगातार बल देती थी। वे मानते थे कि लोकतंत्र केवल वोट तक सीमित नहीं है; यह विचार की स्वतंत्रता, मतभेद की स्वीकृति और सामाजिक अनुकूलन की सतत प्रक्रिया है। इसीलिए वे किसी भी प्रकार के राजनीतिक ध्रुवीकरण, मीडिया–निर्मित नफ़रत, या बहुसंख्यकवादी दबावों की आलोचना करते थे। उनका तर्क यह था कि समाजवाद का वास्तविक आधार समानता और स्वतंत्रता दोनों हैं; कोई भी विचारधारा यदि इन दोनों को संतुलित नहीं रखती तो वह प्रतिसंस्कृति बन जाती है, समाज–निर्माण की शक्ति नहीं।
उनके लेखन में शिक्षा, भाषा–नीति और सांस्कृतिक प्रश्नों पर भी विशेष ध्यान मिलता है। उनका मानना था कि भारतीय शिक्षा–प्रणाली ने समाज में असमानता को और अधिक गहरा कर दिया है। अंग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं के बीच जो तीव्र द्वंद्व है, उसने ज्ञान को वर्ग–विशेष का अधिकार बना दिया है। वे भारतीय भाषाओं में उच्च–ज्ञान के विकास के पक्षधर थे, ताकि लोकतांत्रिक ज्ञान–वितरण संभव हो सके। भाषा और संस्कृति के प्रश्न उनसे केवल सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का मामला नहीं थे; वे उन्हें सामाजिक न्याय के बड़े ढांचे में देखते थे। भारतीय भाषाओं का अवमूल्यन केवल सांस्कृतिक हीनता का प्रश्न नहीं है बल्कि यह ज्ञान के लोकतंत्रीकरण के विरुद्ध खड़ी संरचना का हिस्सा है। इस दृष्टि से वे भारतीय भाषाई राष्ट्रवाद के पक्ष में नहीं बल्कि भाषाई समानता और ज्ञान–लोकतंत्रीकरण के पक्ष में खड़े विचारक थे।
सच्चिदानंद सिन्हा की सबसे विशेष बात यह थी कि वे परंपरा और आधुनिकता के बीच कृत्रिम विभाजन को स्वीकार नहीं करते थे। वे भारतीय परंपरा को न तो पूर्णतः अस्वीकार करते थे और न ही उसे आदर्श बनाकर प्रस्तुत करते थे। वे परंपराओं में छिपी सामाजिक शक्ति–संरचनाओं को देखते थे, और यह भी देखते थे कि परंपरा कैसे समय–समय पर जनता के अनुभवों का भंडार भी बनती है। इसी संतुलन के कारण वे आधुनिकता को भी बिना आलोचना नहीं स्वीकारते थे। वे कहते थे कि आधुनिकता का अर्थ केवल औद्योगिकीकरण या वैश्वीकरण नहीं, बल्कि व्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक संवेदनशीलता और वैज्ञानिक दृष्टि से है। इस प्रकार उनका चिंतन भारतीय समाज को परंपरा और आधुनिकता के बीच एक संवादात्मक धरातल पर खड़ा करने की कोशिश करता है।
वे कभी भी विचार–गत दंभ में नहीं रहते थे। उनका स्वभाव विनम्र, शांत, किंतु अत्यंत दृढ़ था। वे मानते थे कि विचारों की दुनिया में अहंकार सबसे बड़ा शत्रु है। यही कारण था कि युवा छात्रों, शोधार्थियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों तक—हर वर्ग से उनका आत्मीय संबंध रहा। वे सुनते अधिक थे, बोलते कम। यह गुण उन्हें उस परंपरा से जोड़ता है जिसमें विचारक अपने अनुभव की बजाय सामाजिक यथार्थ को प्राथमिकता देता है। उनका विचार किसी ऊँचे मीनार से दिया गया आदेश नहीं था; वह जनता के संघर्षों से उपजा था, इसलिए उसमें नैतिकता, गहराई और सादगी—तीनों उपस्थित रहती थीं।
उनके महाप्रयाण ने एक ऐसे समय में भारतीय चिंतन–जगत को व्यथित किया है जब समाज में संवाद की जगह निरंतर सिकुड़ रही है, विमर्श की जगह नारे ले रहे हैं, और विचारों पर हावी हो रही है शोर की राजनीति। उनकी अनुपस्थिति इसीलिए एक बड़ी क्षति है क्योंकि वे उस आवाज़ का प्रतिनिधित्व करते थे जो स्पष्ट, तार्किक, विवेकपूर्ण और मानवीय थी। वे मानते थे कि यदि समाज निरंतर विभाजित होता जाएगा तो कोई भी राजनीतिक विचारधारा, चाहे वह समाजवाद हो या उदारवाद, कुछ भी सार्थक नहीं कर सकेगी। उन्होंने अपने अंतिम वर्षों में भी यह आग्रह दोहराया कि भारतीय समाज को संवाद, समता और न्याय पर आधारित नई सामूहिक चेतना विकसित करनी होगी। यही समाजवाद का वास्तविक अर्थ है।
आज जब उनके विचारों को पढ़ा जाता है, तो यह साफ दिखता है कि सच्चिदानंद सिन्हा किसी एक समय–काल के विचारक नहीं थे। वे भारतीय लोकतंत्र के दीर्घकालिक भविष्य को देखने वाले चिंतक थे। उनकी बौद्धिक विरासत हमें यह सिखाती है कि समाज–निर्माण की लड़ाई राजनीतिक नारों से नहीं, बल्कि सामाजिक संरचनाओं की गहरी समझ से लड़ी जाती है। उनका जीवन और चिंतन इस बात का प्रमाण है कि विचारशीलता किसी विशेष पद या प्रतिष्ठा की मोहताज नहीं होती। मुजफ्फरपुर की धरती पर बैठे एक शांत, सरल, परंतु वैचारिक रूप से अत्यंत गहन व्यक्ति ने भारतीय समाज के लिए जो विमर्श खड़ा किया, वह आने वाले समय में और भी महत्वपूर्ण होगा।
सच्चिदानंद सिन्हा का जाना एक विचारक का जाना भर नहीं है; यह भारतीय समाजवाद के गंभीर वैचारिक पक्ष का एक स्तंभ गिरने जैसा है। उनकी स्मृति हमें यह स्मरण कराती है कि समाज का वास्तविक उत्थान केवल राजनीतिक घोषणाओं से नहीं, बल्कि उस वैचारिक परंपरा से आता है जो यथार्थ के सबसे कठिन प्रश्नों को सत्य और साहस के साथ उठा सके। उनके लेख, उनके व्याख्यान, उनका सामाजिक संवाद—सब मिलकर आने वाले समय के लिए एक ऐसी वैचारिक धरोहर बनाते हैं जिसे समझे बिना भारतीय समाज की यात्रा को समझना कठिन होगा। उनके विचार आने वाले वर्षों में भी सामाजिक न्याय, लोकतंत्र, और मानवीय समानता की चर्चा में लगातार जीवित रहेंगे।
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