(लाड़ली मोहन निगम समाजवादी नेता रहें। लोहिया जी के सहयोगी और जॉर्ज के साथ बडौदा कांड के सह अभियुक्त भी रहे। उनका यह लेख जन पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। जिसे विवेक मेहता ने संपादित कर समता मार्ग को भेजा है। आज के संदर्भ में लेख बहुत प्रासंगिक है)
तानाशाही से गणतन्त्र का रास्ता अलग ही नहीं दूर भी है। सरकार और जनता के बीच साफ, शुद्ध सम्बन्ध स्थापित करने से ही जनतन्त्र की नींव मजबूत होती है। सरकार अपना कर्तव्य जिम्मेदारी के साथ पालन करती रहे और जन साधारण अपने अधिकारों के प्रति सचेत और सजग रहे, इसी को जनतन्त्र कहते हैं। इसके लिये प्रतिष्ठित सरकार को जनता की अविचल आस्था हासिल करनी चाहिये। जनता यदि समझे कि उसके मामूली से मामूली, छोटे छोटे अभियोग पर भी सरकार चञ्चल हो उठती हैं, उस इल्जाम की जरूरी जाँच पड़ताल जल्द से जल्द कराती है, और उचित अनुसन्धान के पश्चात, अपराधी अफसर को पूरी सजा फौरन देती है, तभी सरकार की जनता इज्जत करती है, और उसके प्रति श्रद्धा और भक्ति जाग्रत होती है।
जनसाधारण के सहयोग की मांग तो प्रधान मन्त्री से लेकर, अंचल अधिकारी और पटवारी तक करते रहते हैं, और दलील देते हैं कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को जनता का सहकारी समर्थन मिलना चाहिये । परन्तु वे खुद कभी जनतन्त्र की मर्यादाओं के अनुसार और अन्दर आचरण करना नहीं चाहते। सरकार द्वारा करों और कर्जों में वसूल किये हुए गरीब जनता के धन का, वे अपने आराम और शान-शौकत में इस बुरी तरह दुरुपयोग करते हैं, कि पुराने जनतन्त्री पश्चिमी योरोप और उत्तरी अमरीका के मुल्कों में तो सरकार को बहुमत तो अलग, एक वोट भी नहीं मिलता।
जनतन्त्री सरकार के चलाने वाले अफ़सरों और मन्त्रियों को स्वयं कानून के अन्दर व अनुकूल चलना चाहिये, अपने को कानून से ऊपर और परे नहीं समझना चाहिये। जहाँ मंत्री व अफसर कानून का अपने पक्ष में उपयोग करते हैं, अपने आप को कानूनों का मालिक समझने लगते हैं, और अपने विरोधियों के खिलाफ उनका इस्तेमाल करते हैं, वहाँ जनतंत्र की जड़ें गल-सड़ कर मुर्झा जाती है। न्याय विभाग को शासकीय विभाग के मातहत बना देना, जजों को मंत्रियों की मेहरबानी पर मुनहसर कर देना, न्यायाधीशों के मनों में ऐसी महत्वाकांक्षाएं पैदा कर देना, जो राजनेताओं की मदद से ही पूरी हो सकती हों इससे जनतंत्र के बुनियादी उसूलों की ही हत्या हो जाती है। जनतंत्र में न्याय और शासन प्रणाली दोनों पृथक-पृथक रूप में स्थापित होनी चाहिये, उनकी बिलकुल एक दम आजाद शक्लें होनी चाहिये, जजों का चुनाव व नियुक्ति भी शासकीय विभागों के ओहदेदारों द्वारा नहीं होनी चाहिये । कोई ऐसा नया तरीका निकालना चाहिये कि जजों व शासकीय महानुभावों का कोई ताल्लुक ही नहीं रहे। जजों की नियुक्ति, तरक्की व अदलाबदली सरकारी अफसरों व मंत्रियों के हाथों में ही नहीं रहे।
निष्पक्ष न्याय की मांग को पूर्णरूप से प्रतिष्ठित करने के लिये यह बात अति आवश्यक है। आज जगह-जगह यह अफवाह आम तौर पर प्रचलित हो गई है, कि जज लोग भी सरकारी संचालकों से प्रभावित है। इस गन्दे वातावरण को मिटाना निहायत जरूरी हो गया है। जब लोग यह कहते सुने जाते हैं कि अंग्रेजी राज के जमाने में जज इन्साफ करते थे, और आज उस रास्ते से भटक गये हैं, तो आजादी पसन्द हिन्दुस्तानी की आँखें और गर्दन शर्म से झुक जाती है। आजादी को गाली देने के बजाय, यदि आजादी काल में पनपी और बढ़ी बुराइयों का इलाज किया जाये, और नये हल निकाले जायें, तो शायद स्वतंत्र जनतंत्र के प्रति जनता की आस्था अधिक बढ़े। परन्तु मुल्क के मालिक, राजनीतिज्ञ इन आम अफवाहों को निराधार, विद्वेषमूलक, व्यक्तिगत स्वाथों द्वारा संचारित आदि कहकर, लोगों को चुप करना चाहते हैं।
लोग निराश और नाउम्मीद हो जाते हैं। परन्तु जब एक अफवाह पुरानी हो कर मर जाती है, तब दूसरी चल पड़ती है, और लोगों के मनों में शासन व न्याय विभाग दोनों के प्रति इज्जत घटती जाती है। शासकीय और न्याय विभाग के खिलाफ बढ़ती इस नफरत को कुशल अधिकारों का इस तरह हनन न सुहाया और इन्होंने भगवान् कहे जाने वाले बुद्ध से भी इन तीनों श्रेणियों के लिये भिक्षु बनकर मुक्ति प्राप्त करने के द्वार बन्द करवा दिये। आज भी महाराष्ट्र में अम्बेडकरके अनेक अनुयायी बुद्ध धर्म को अपना कर हिन्दू जाति प्रथा के कुटिल बन्धनों से मुक्त होना चाहते हैं, परन्तु धर्म परिवर्तन से व्यक्ति-विशेषों को जरूर कहीं कहीं लाभ हुआ है, बड़े-बड़े समुदायों व समूहों को, इस धर्मपरिवर्तन या पन्ध-परित्याग द्वारा, कोई सामाजिक या आर्थिक उन्नति कभी भी नहीं हुई। धर्म परिवर्तन को कभी कभी हारे हुए राजाओं ने अपनी सम्पत्ति, रियासत व मान प्रतिष्ठा को कायम रखने का साधन अवश्य बनाया है, हारी हुई जातियों या राष्ट्रों को तो विजेता के सामने इस तरह नतमस्तक होने से सिवाय अपमान के और कुछ नहीं मिला।
हिन्दुस्तान की जनता को जातिचक्र की चलती चक्की में इस तरह पीस दिया गया, कि उसको एकसूत्र में संगठित होकर, श्रीमानों के खिलाफ जनयुद्ध करने की न कभी प्रेरणा ही हुई और न अवसर ही मिला। सदियों तक धीरे २ लगातार अपने अधिकारों को विस्तृत करती हुई जनता के राजनैतिक संघषों के फलस्वरूप; जनतन्त्र, जनता द्वारा योरप में निरन्तर लड़कर लिया गया। हर नई माँग के पीछे एक नया आन्दोलन और संगठन खड़ा हुआ, तब कहीं जाकर विभिन्न दलों वाले वर्त्तमान जनतंत्र को आज की शानदार शक्ल प्राप्त हुई। भारतीय उच्चवर्ग के महानुभावों ने स्वराज्य मिलने की खुशी में, अपने मालिक और गुरु ब्रिटेन की नकल में विधान तो बना डाला, परन्तु विधान लागू होते ही इस जनतन्त्र को स्थापित करने वाले मालिकों के मन, इस जनतन्त्र के जरिये उन पर जनविद्रोह का आफतों का पहाड़ न टूट पड़े, इस आशंका से भयभीत और आतंकित हो उठे।
वयस्क, मताधिकार और सीधे चुनाव, दोनों के अन्तर्गत उन्हें खरतनाक सम्भावनाएँ दिखलाई देने लगीं। इस प्रणाली के अनुसार कभी न कभी कोई ऐसा राजनैतिक दल अवश्य ही चुनाव जीत सकता है, जो उनकी सम्पति और प्रतिष्ठा दोनों को उनसे छीन कर जनता में वितरित न कर दे। उन्हें धराशायी कर नीचे वालों को ऊपर न बैठा दे। इसलिये फौरन ही जन्मते शिशु इस जनतन्त्री नाग के जहरोंली दाँतों को तोड़ने की साजिशें होने लगी। पराजित निराश समाजवादी नेताओं की हमेशा ही इतिहास में एक भूमिका रही है, प्रतिक्रियावादी तत्वों की पुनः स्थापना में अग्रणी होना। ऐसे ही मुसोलिनी ने फेसिस्ट संघिय सरकार की स्थापना के लिये समाजवाद को तिलांजलि दी। जनतन्त्र में जाग्रत जनता ही अपने अधिकारों की ट्रस्टी होती है, धनिक मित्र नहीं। वे तो जनतन्त्र के जन्मजात दुश्मन है। अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिये वे जनतन्त्र को फौजी या और किसी किस्म की दक्षिण पंथी तानाशाही में फौरन बदलने को सदैव ही उद्यत रहते हैं।
भारतीय जनतन्त्र को वामपंथी समाजवादियों से कोई डर नहीं।
निकट भविष्य में उसे उन दक्षिण पंथी सम्पत्ति सम्पन्न तबकों और उनके हिमायत्तियों से ज्यादा डर है, जिन्होंने कम्यूनिज्म के विरोध का बहाना बना कर वास्तव में जनतन्त्र को नष्ट करने की मंशाएं व इरादे मजबूत बना रखें हैं। लंका में स्थापित सरकार के भीतर ही ऐसे तत्व मौजूद हैं, जो विरोधी दलो को नाकाम करने के लिये चुनावों व विधान सभा में बहुमत के दोनों सिद्धान्तों को ताक पर रखना चाहते हैं। स्वर्गगत प्रधानमन्त्री भण्डार-नायक की हत्या कट्टर दक्षिण पंथी, बुद्ध धर्म व सिंहली भाषा के एकमात्र प्रभुत्व को चाहने वालों ने ही की हैं। किन्तु इसी हत्या को बहाना बना कर वामपंथी दलों के दाँत तोड़ने की ही चेष्टा की जा रही है। जिन्होंने भंडार नायक की हत्या की या करवाई, उनको समूल नष्ट करने के बजाय, लंका की वर्त्तमान सरकार इस मौके का स्वतन्त्र चुनावों को स्थगित करने के लिये इस्तेमाल करना चाहती है।
सर्वोदयवादियों ने बहुमत के सब जगह प्रचलित सिद्धान्त को त्याग, सर्वसम्मत एकमत निर्णयों के प्रथा की पुष्टि की है। ये सर्वसम्मत निर्णय ऊपर से देखने पर तो ये बड़े अच्छे लगते हैं। सतही तौर पर यह मालूम होता है जैसे इन निर्णयों पर पहुंचने में अल्पमतों की भी इज्जत रखी गई हो, और केवल बहुमत पर आधारित और जिम्मेवाराना हरकतें न की गई हो।
परन्तु वास्तव में ये सर्वसम्मत निर्णय इतने निर्जीव और निस्तेज होते कि उनसे अति आवश्यक परिवर्तनों की भी आशा नहीं होती। वही निर्णय लिये जाते हैं, जिनसे किसी को आपत्ति न हो। आपत्तिजनक को टालने की यह आदत इस तरह के गोलमटोल नतीजों पर पहुंचती है, कि कोई भी साहसी या हिम्मतवर कदम उठ ही नहीं सकता। सम्पत्ति रक्षक समृद्ध समाजों में भी इस तरह की बनावटी एकता से ज्यादा दिन काम सुचारु रूप से नहीं चल सकता, तो फिर पिछड़े हुए मुल्क की राजनीति और आर्थिक योजनाओं को इस तरह सर्वसम्मति की तलाश में गति विहीन बना देने से कब तक काम चलेगा। जनतन्त्र तो जागरूक आगे बढ़ते हुए समाज का ही अस्त्र हो सकता है।
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