सिडनी के बाद : भय, संस्कृति और मनुष्य – परिचय दास

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After Sydney: Fear, Culture and Humans

Parichay Das

।। एक ।।

सिडनी में हुआ हालिया हमला केवल एक शहर, एक समुदाय या एक देश पर किया गया आक्रमण नहीं था; वह उस असुरक्षा की घोषणा थी जो आज के वैश्विक समय में मनुष्य के भीतर धीरे-धीरे बसती जा रही है। यह घटना किसी एक धर्म, नस्ल या विचारधारा के नाम पर नहीं घटित हुई—बल्कि उस मानसिकता का परिणाम थी जो भय को हथियार और हिंसा को भाषा बना लेती है। सिडनी जैसे शहर, जो बहुसांस्कृतिक सह-अस्तित्व, लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रता के प्रतीक माने जाते हैं, वहाँ ऐसी घटना का घटित होना इस बात का संकेत है कि आतंकवाद अब सीमाओं, परिधियों और भौगोलिक दूरी को नहीं मानता।

आधुनिक आतंकवाद किसी एक चेहरे, एक संगठन या एक घोषित एजेंडे तक सीमित नहीं रह गया है। वह कभी धार्मिक आवरण ओढ़ता है, कभी नस्लीय श्रेष्ठता की भाषा बोलता है, कभी राजनीतिक असंतोष के नाम पर निर्दोष लोगों को निशाना बनाता है। सिडनी की घटना ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया कि आतंकवाद का वास्तविक शत्रु कोई विशेष समुदाय नहीं बल्कि मानवीय जीवन, लोकतंत्र और सह-अस्तित्व की भावना है।

इस हमले की सबसे भयावह विशेषता यह थी कि वह रोजमर्रा के जीवन के बीच घटित हुआ। कोई युद्धक्षेत्र नहीं था, कोई घोषित संघर्ष नहीं था—बस सामान्य नागरिक, सामान्य समय और अचानक फैलता हुआ भय। यही आतंकवाद की रणनीति है। वह जीवन की सामान्य लय को तोड़ता है, भरोसे को क्षत-विक्षत करता है और यह संदेश देता है कि कोई भी स्थान पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। इस प्रकार आतंकवाद केवल शरीर पर नहीं, मन पर हमला करता है। उसका उद्देश्य मृत्यु से अधिक भय का प्रसार होता है।

सिडनी (बोंडी बीच) हमले की किसकी योजना थी और कौन लोग थे? पुलिस और मीडिया रिपोर्टों के अनुसार यह हमला दो व्यक्तियों द्वारा किया गया था —साजिद अकरम (50 वर्ष) और नवीद अकरम (24 वर्ष) — ये दोनों पिता-पुत्र बताए जा रहे हैं, जिन्होंने हनुक्का (यहूदी त्योहार) समारोह के दौरान भीड़ पर गोलीबारी की। दोनों के पास लाइसेंस प्राप्त आग्नेयास्त्र थे जिसका उपयोग उन्होंने किया था। साजिद को मौके पर ही पुलिस ने गोली मारकर ढेर कर दिया जबकि नवीद गंभीर घायल होकर हिरासत में लिया गया और बाद में अस्पताल में भर्ती है। पुलिस ने उनके पास से कई हथियार बरामद किए हैं।

हमले की योजना किसकी थी?

अभी तक पुलिस और अन्वेषण रिपोर्टों के आधार पर यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि यह हमला किसी संगठित अंतरराष्ट्रीय आतंकी समूह की योजनाबद्ध कार्रवाई थी या केवल स्थानीय रूप से प्रेरित हिंसा। पुलिस ने इस घटना को आतंकवादी हमला घोषित किया है।

हालांकि यह भी कहा गया है कि नवीद अकरम का नाम पहले 2019 में एक चरमपंथी समूह (Islamic State-संभवतः) से जुड़ने के संदेह में जांच में था, लेकिन उस समय कोई सक्रिय खतरा नहीं पाया गया था।

वर्तमान में कोई बड़ा आतंकी संगठन इस हमले की जिम्मेदारी नहीं उठा रहा है और यह भी नहीं पता चल पाया है कि किसी बड़े आतंकी नेटवर्क ने इसे नियोजित किया था या नहीं। अधिकारियों ने कहा है कि फिलहाल यहाँ तक कोई स्पष्ट सुबूत नहीं मिला है कि यह ISIS या किसी और अंतरराष्ट्रीय समूह द्वारा निर्देशित था।

हमले का संदर्भ क्या है? पुलिस और सरकारी अधिकारियों ने बताया है कि यह हमला सीधे यहूदी समुदाय और उनके समारोह को निशाना बनाकर किया गया था जो हनुक्का समारोह के पहले दिन पर आयोजित था। यहूदी समुदायों के खिलाफ सेन्टीसेमिटिक (यहूदी प्रतिकूल) हिंसा ऑस्ट्रेलिया में पहले से बढ़ती चिन्ता का विषय रही है, और इस घटना को इसी तरह के घृणा-प्रेरित हिंसा के रूप में देखा जा रहा है।

क्या यह एक व्यापक साजिश थी? आधिकारिक जांच अभी चल रही है। पुलिस संदिग्धों के घरों पर छापेमारी कर रही है। विस्फोटक उपकरणों के संदर्भ में जांच जारी है। सम्भव है कि आगे की जांच में और विवरण सामने आएँ—लेकिन अभी तक यह एक स्थानिक रूप से प्रेरित आतंकवादी हमला लगता है, न कि किसी अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन की स्पष्ट आधिकारिक योजना।

पुलिस और आधिकारिक खबरों के अनुसार साजिद अकरम और नवीद (या नावीद) अकरम वह पिता-पुत्र जो सिडनी के बॉन्डी बीच हमले के मुख्य संदिग्ध हैं, ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर के स्थानीय निवासी बताए जा रहे हैं। दोनों की पहचान सिडनी के दक्षिण-पश्चिम (South-West Sydney) के उपनगर बॉनीरिग (Bonnyrigg) से जुड़ी हुई बताई जा रही है, जहाँ से उनके घर पर पुलिस ने छापेमारी भी की। उनके बारे में यह सूचना देश की सुरक्षा एजेंसियों और पुलिस द्वारा साझा की गई है। नवीद अकरम (लगभग 24 वर्ष) के बारे में बताया गया है कि वह सिडनी की बॉनीरिग उपनगर का निवासी है और पुलिस उसके घर को भी तलाशी दे चुकी है। साजिद अक्रम (लगभग 50 वर्ष), जो नवीद का पिता है, भी उसी सिडनी क्षेत्र का बताया जा रहा है। पुलिस ने उसे स्थल पर गोली लगने के बाद मृत घोषित कर दिया।

सिडनी की घटना के बाद जिस तरह से अफवाहें, नफरत भरे संदेश और सामूहिक दोषारोपण सामने आए, वे भी आतंकवाद की ही परोक्ष विजय के संकेत थे। आतंकवाद तभी सफल होता है जब समाज प्रतिक्रिया में विवेक खो देता है, जब समुदाय एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं और जब अपराधी की पहचान को पूरे समुदाय पर थोप दिया जाता है। आतंकवाद व्यक्ति द्वारा किया गया अपराध होता है लेकिन उसका दंड यदि समाज के किसी वर्ग को भुगतना पड़े, तो वह हिंसा की दूसरी किस्म है।

आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई केवल सुरक्षा एजेंसियों या कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी नहीं है। यह एक गहरी वैचारिक लड़ाई है। जब तक हम यह नहीं समझते कि आतंकवाद किन सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों में जन्म लेता है, तब तक हम केवल उसके लक्षणों से लड़ते रहेंगे, उसकी जड़ों से नहीं। सिडनी की घटना ने यह प्रश्न फिर से खड़ा किया कि आधुनिक समाज में बढ़ता अकेलापन, हाशियाकरण, पहचान का संकट और डिजिटल कट्टरता किस तरह हिंसा को जन्म दे रहे हैं।

आज आतंकवाद का एक बड़ा मंच डिजिटल दुनिया है। सोशल मीडिया, ऑनलाइन मंच और एन्क्रिप्टेड नेटवर्क नफरत, झूठ और उग्र विचारों को तेजी से फैलाते हैं। सिडनी की घटना के संदर्भ में भी यह स्पष्ट हुआ कि कैसे आभासी दुनिया में पनपी कट्टरता वास्तविक दुनिया में जानलेवा रूप ले सकती है। आतंकवाद अब केवल बंदूक और बम का खेल नहीं रहा; वह विचारों का ज़हर भी है जो धीरे-धीरे चेतना को संक्रमित करता है।

आतंकवाद के विरुद्ध सबसे प्रभावी प्रतिरोध केवल दमन नहीं बल्कि संवाद, शिक्षा और सामाजिक न्याय है। कट्टर विचारधाराएँ आसान शिकार बना लेती हैं। यह कहना आवश्यक है कि आतंकवाद किसी भी तरह की शिकायत का समाधान नहीं है। वह केवल विनाश की शृंखला को आगे बढ़ाता है। सिडनी की घटना में मारे गए या घायल हुए लोग किसी भी राजनीतिक या वैचारिक संघर्ष के पक्षकार नहीं थे—वे केवल जी रहे थे।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि आतंकवाद के बाद अक्सर राज्य की प्रतिक्रिया नागरिक स्वतंत्रताओं को सीमित करने की ओर जाती है। सुरक्षा के नाम पर निगरानी, संदेह और नियंत्रण बढ़ता है। यहाँ संतुलन अत्यंत आवश्यक है। यदि आतंकवाद के भय से लोकतांत्रिक मूल्य ही कमजोर हो जाएँ तो आतंकवाद अपने उद्देश्य में आंशिक रूप से सफल हो जाता है। सिडनी जैसे लोकतांत्रिक समाजों के सामने यह चुनौती और भी बड़ी है कि वे सुरक्षा और स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाए रखें।

आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता लेकिन वह अक्सर धर्म की भाषा बोलता है। यह सबसे बड़ा धोखा है। धर्म, संस्कृति या परंपरा को हिंसा का औज़ार बनाना स्वयं उन परंपराओं का अपमान है। सिडनी की घटना के बाद जिस तरह से विभिन्न समुदायों ने शांति, एकजुटता और सहानुभूति का प्रदर्शन किया, वह इस बात का प्रमाण था कि समाज आतंकवाद से बड़ा है। यही प्रतिरोध की वास्तविक शक्ति है।

इस घटना ने वैश्विक समुदाय को यह भी याद दिलाया कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई साझा है। कोई भी देश यह भ्रम नहीं पाल सकता कि वह पूरी तरह सुरक्षित है। सीमाएँ, पासपोर्ट और दूरी आतंकवाद को नहीं रोकते। इसलिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग, सूचना-साझाकरण और साझा मानवीय मूल्यों की रक्षा अनिवार्य है। आतंकवाद को केवल “दूसरों की समस्या” मानना आत्मघाती सोच है।

सिडनी की घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं। भय पर आधारित, संदेह से भरा हुआ समाज—या संवाद, करुणा और विवेक पर आधारित समाज। आतंकवाद का अंतिम उद्देश्य हमें डराना और बाँटना है। उसका सबसे बड़ा पराजय तब होती है जब समाज डर के बावजूद मानवता को नहीं छोड़ता।

आतंकवाद के विरुद्ध लेख लिखना केवल किसी घटना का वर्णन नहीं है; यह एक नैतिक हस्तक्षेप है। यह याद दिलाने का प्रयास है कि हिंसा कभी भी समाधान नहीं रही, न होगी। सिडनी की घटना एक चेतावनी है—लेकिन साथ ही एक अवसर भी, यह सोचने का कि हम अपने समय की हिंसा के विरुद्ध किस तरह की मानवीय भाषा गढ़ सकते हैं। यदि हम विवेक, सह-अस्तित्व और संवाद को चुनते हैं तो आतंकवाद चाहे जितना उग्र हो, वह अंततः पराजित ही होगा।

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इस हमले का सांस्कृतिक असर गहरा और बहुस्तरीय है—और वह असर केवल सिडनी या ऑस्ट्रेलिया तक सीमित नहीं रहता। आतंकवादी हिंसा का सबसे टिकाऊ प्रभाव संस्कृति पर ही पड़ता है क्योंकि संस्कृति ही वह धरातल है जहाँ भय, स्मृति, पहचान और व्यवहार लंबे समय तक टिकते हैं।

जिन सार्वजनिक स्थानों को लोग सहजता, आनंद और मेल-मिलाप से जोड़ते हैं—बाज़ार, उत्सव, सार्वजनिक परिवहन, सांस्कृतिक आयोजन—वे अचानक संदेह और सतर्कता के स्थल बन जाते हैं। सिडनी जैसे बहुसांस्कृतिक शहर में यह परिवर्तन और भी तीखा है क्योंकि वहाँ सार्वजनिक जीवन ही संस्कृति का मुख्य आधार है। जब लोग एक-दूसरे से दूरी बनाने लगते हैं तो संस्कृति का स्वाभाविक प्रवाह रुकने लगता है।

सिडनी की पहचान ही विभिन्न नस्लों, भाषाओं और धार्मिक समुदायों के सहजीवन से बनी है। हमला उस सहजीवन को सीधे चुनौती देता है। भले ही घटना किसी एक व्यक्ति या समूह द्वारा की गई हो लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर संदेह पूरे समुदायों पर फैलने लगता है। यह प्रक्रिया धीमी होती है, पर गहरी होती है—और यही आतंकवाद की सबसे खतरनाक जीत होती है।

कोई भी हिंसक घटना धीरे-धीरे सांस्कृतिक स्मृति का हिस्सा बन जाती है। सिडनी का हमला भविष्य में फिल्मों, साहित्य, मीडिया नैरेटिव और शैक्षिक चर्चाओं में एक संदर्भ की तरह उपस्थित रहेगा। प्रश्न यह नहीं है कि यह स्मृति बनेगी या नहीं बल्कि यह है कि किस तरह की स्मृति बनेगी—डर की, घृणा की या विवेक और प्रतिरोध की।

हमलों के बाद भाषा बदल जाती है—कुछ शब्द अधिक प्रयोग में आने लगते हैं, कुछ चुप्पियाँ गहरी हो जाती हैं। व्यंग्य, हास्य और खुले विमर्श पर अदृश्य दबाव पड़ता है। कलाकार, लेखक और बुद्धिजीवी स्वयं-सेंसरशिप करने लगते हैं क्योंकि “गलत समझे जाने” का डर बढ़ जाता है। यह सांस्कृतिक संकुचन आतंकवाद का दीर्घकालिक प्रभाव है।

जो युवा ऐसे वातावरण में बड़े होते हैं जहाँ हिंसा और भय बार-बार सुर्खियों में रहते हैं, उनकी सांस्कृतिक चेतना अलग ढंग से बनती है। उनके लिए “सुरक्षा” एक केंद्रीय मूल्य बन जाता है और “स्वतंत्रता” धीरे-धीरे सशर्त होती जाती है। सिडनी की घटना जैसे प्रसंग इस पीढ़ी की सामूहिक कल्पना को प्रभावित करते हैं।

हर बड़ी हिंसक घटना अपने पीछे एक नया रचनात्मक दबाव छोड़ जाती है। कुछ रचनाएँ प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया में जन्म लेती हैं, कुछ वर्षों बाद गहरे रूपकों में प्रकट होती हैं। सिडनी का हमला भी भविष्य में कविता, कथा, रंगमंच और सिनेमा में एक अनकहे संदर्भ की तरह उपस्थित रहेगा—जैसे 9/11, मुंबई हमले या पेरिस की घटनाएँ रही हैं।

इसका सबसे सूक्ष्म लेकिन निर्णायक असर विश्वास की संस्कृति पर पड़ता है। संस्कृति केवल परंपराओं का संग्रह नहीं है; वह विश्वास का अभ्यास है—एक-दूसरे पर, संस्थाओं पर और भविष्य पर। आतंकवादी हमला इस विश्वास को झकझोर देता है। सवाल उठता है—क्या हम सुरक्षित हैं? क्या हम एक-दूसरे पर भरोसा कर सकते हैं? इन सवालों का उत्तर समाज जिस तरह देता है, वही उसकी सांस्कृतिक दिशा तय करता है।

इस अर्थ में, सिडनी का हमला एक सांस्कृतिक घटना भी है—भले ही वह हिंसा के रूप में घटित हुआ हो। उसका वास्तविक असर तब दिखाई देगा जब समाज तय करेगा कि वह भय को अपनी संस्कृति बनने देता है या मानवता, संवाद और सह-अस्तित्व को। आतंकवाद संस्कृति को नष्ट करना चाहता है; संस्कृति यदि जीवित रहती है, तो वही उसका सबसे बड़ा प्रतिवाद है।


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