इतिहास के पन्नों में दर्ज एक कड़वी, लेकिन ज़रूरी सच्चाई 1919 के कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन से निकलकर हमारे सामने आती है अमृतसर — वही शहर, जिसकी मिट्टी जलियांवाला बाग के शहीदों के ख़ून से लाल थी। जनरल डायर की क्रूरता ने पूरे हिंदुस्तान को झकझोर दिया था। देश का कोना-कोना शोक, अपमान और प्रतिशोध की आग में जल रहा था। जलियांवाला बाग हत्याकांड की जांच के लिए कांग्रेस ने नेहरू कमेटी बनाई थी, जिसके सदस्य महात्मा गांधी भी थे।
सन 1915 में जब गांधी भारत आए देश में कांग्रेस के बड़े बड़े चमकीले नेता मौजूद थे जो फर्राटे की अंग्रेजी बोलते हैं। जब गांधी बैरिस्टर बनकर लौटते हैं तो उनके दक्षिण अफ्रीका के अहिंसक संघर्ष के किस्से भी लोगों तक पहुंचते हैं। कांग्रेस के सभी बड़े और चमकीले नेता सोचते हैं कि एक नया आदमी और हमारे मंच पर आ रहा है। पर जब वे मंच से असहयोग व सत्याग्रह की बात रखते हैं तो कांग्रेस के बड़े नेताओं को वे बहुत रास नहीं आते। उनके गुरु गोपालकृष्ण गोखले जो नरम दल के नेता हैं उनको लगता है कि यह आदमी अराजकता की बात कर रहा है इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, विपिनचन्द्र पाल जैसे गरम मिजाज के धुरन्दर लोगों को यह लगता है यह जो बोल रहा है उससे आजादी के आंदोलन में कोई खास गरमी नहीं आएगी। इसलिए नव आगन्तुक गांधी कांग्रेस के दोनों धड़ों के नेताओं द्वारा अस्वीकृत होते दिखते हैं।
सन 1919 में जब कांग्रेस का अमृतसर अधिवेशन हुआ। सम्मेलन के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे। इस सम्मेलन में नेहरू कमेटी की जांच रिपोर्ट अधिवेशन के मंच पर रखी गई। मंच से पूछा गया—क्या इस रिपोर्ट में कोई संशोधन प्रस्तावित करना चाहता है? तभी गांधीजी ने अपना हाथ खड़ा किया। गांधीजी केवल एक सदस्य की हैसियत से नहीं, बल्कि अपनी स्वतंत्र टिप्पणी के साथ मंच पर आए। उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट में एक संशोधन जोड़ा जाना चाहिए कि “अंग्रेजों के अत्याचारों का निषेध करने वाली यह कांग्रेस, उन अत्याचारों का भी निषेध करती है जो हम हिंदुस्तानियों ने अपने दलित भाइयों पर किए हैं।”
यह एक तरह का आत्मनिंदा प्रस्ताव था। अमृतसर के मंच पर सन्नाटा छा गया। गांधी ने साफ शब्दों में कहा “जिन अपराधों के लिए मैं ब्रिटिश सरकार को शैतानी सरकार कहता हूँ, वही सारे अपराध हमने भी अपने अछूत भाइयों के साथ किए हैं।”
ध्यान देने की बात यह है कि यह 1919 का समय था। भारतीय राजनीति के मंच पर अभी अम्बेडकर नाम का धूमकेतु उभरा भी नहीं था। गांधी ने कहा “जनरल डायर के खिलाफ हम जितने आरोप लगाते हैं, वे सब के सब आरोप हमारे ऊपर भी लागू होते हैं। पंजाब के सारे अत्याचार अगर जोड़ भी दिए जाएँ, तो सदियों से चला आ रहा हमारा यह अपराध उससे कहीं बड़ा है। यह भी एक तरह का डायरवाद (डायरिज़्म) है।”
गांधीजी ने एक बेहद कठोर लेकिन ईमानदार तुलना रखी “ताकतवर अंग्रेजों के सामने हम बोल नहीं सकते और हमारे दलित भाई हमारे सामने बोल नहीं सकते। अंग्रेज हमें दुनिया में नहीं रहने देना चाहते और हम अपने अछूत भाइयों को समाज में नहीं रहने देना चाहते।” 1919 में कांग्रेस के इतने बड़े मंच से इससे बड़ी बात किसी ने नहीं कही थी।
यह एक वक्तव्य नहीं था यह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा बदल देने वाला क्षण था। गांधी ने साफ कर दिया कि आज़ादी का अर्थ केवल यूनियन जैक का उतरना और तिरंगे का चढ़ना नहीं है। असली आज़ादी तब है, जब हम अपने भीतर के अन्याय और भेदभाव से मुक्त होंगे। उन्होंने सवाल खड़ा किया जब तक भारतीय समाज में यह भेदभाव बना रहेगा,भारत दुनिया के सामने किस मुँह से आज़ादी की बात करेगा?
अमृतसर के मंच से उठी वह आवाज़ आज, सौ साल बाद भी उतनी ही प्रासंगिक है।आज जब हम अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं, तो हमें खुद से पूछना होगा क्या हम अन्याय का विरोध केवल तब करते हैं जब वह बाहर से आता है? या हमारे भीतर भी इतना नैतिक साहस है कि हम अपने समाज, अपने परिवार और अपने मन के भीतर छिपे ‘डायर’ को पहचान सकें?
इतिहास गवाह है लड़ाइयाँ केवल सरहदों पर नहीं लड़ी जातीं। सबसे कठिन लड़ाई वह होती है, जो हम अपनी ही बुराइयों के खिलाफ लड़ते हैं।
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