11 जून। हाल में गुजराती कवयित्री पारुल खक्खर की एक कविता ‘शववाहिनी गंगा’ सोशल मीडिया में काफी वायरल हुई। हिंदी समेत देश की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ और यह कोरोना की दूसरी लहर के दिनों के अत्यंत भयावह हालात और इस दौरान शासन की निष्क्रियता और निष्ठुरता तथा इसके खिलाफ पनपे आक्रोश का एक प्रतीक बन गई। इस कविता के असर का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि कवयित्री को कोसने वाला एक कोरस फौरन शुरू हो गया। कोसनेवाले और अभद्र टिप्पणियां करनेवाले कौन थे, यह किसी से छिपा नहीं था।
बहरहाल, और भी दुखद यह है कि अब गुजराती साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘शब्दसृष्टि’ ने अपने संपादकीय में पारुल खक्खर की कविता के संदर्भ में ‘लिटरेरी नक्सल’ विशेषण का इस्तेमाल करते हुए ऐसे लोगों पर अराजकता फैलाने और देश के खिलाफ काम करने का आरोप मढ़ा है। अर्बन नक्सल के बाद अब लिटरेरी नक्सल विशेषण का ईजाद यह बताता है आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किस कदर खतरे में है। हो सकता है आनेवाले दिनों में एकेडेमिक नक्सल और जर्नलिस्टिक नक्सल जैसे शब्द भी ईजाद कर लिये जाएं। यह सब दमन के लिए बहाने गढ़ने की मंशा को ही दर्शाता है।
इस वाकये पर लेखकों, बौद्धिकों, संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों का चिंतित होना स्वाभाविक है। जनवादी लेखक संघ ने गुजराती साहित्य अकादमी की पत्रिका के संपादकीय पर विरोध जताकर इसी चिंता का इजहार किया है। यहां पेश है इस मामले में जनवादी लेखक संघ का पूरा बयान –
जनवादी लेखक संघ गुजराती साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘शब्दसृष्टि’ में प्रकाशित संपादकीय में कथित ‘लिटरेरी नक्सल्स’ पर किये गए हमले की कठोर शब्दों में निंदा करता है।
पत्रिका के जून अंक के संपादकीय में पारुल खक्खर की बहुचर्चित कविता ‘शववाहिनी गंगा’ का नाम लिये बगैर उसे ‘अराजकता’ फैलाने वाली और ‘उत्तेजना में बेतुका आक्रोश’ व्यक्त करनेवाली कविता बताया गया है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी खबर के मुताबिक, यह संपादकीय कहता है कि ‘यह कविता उन लोगों द्वारा गोली दागने के लिए कंधे की तरह इस्तेमाल की गई है जो साजिश में मुब्तिला हैं, जो भारत से नहीं बल्कि कहीं और से प्रतिबद्ध हैं, जो वामपंथी या उदारवादी हैं जिन्हें कोई पूछता नहीं।… ये लोग भारत में अराजकता फैलाना चाहते हैं।… ये हर मोर्चे पर सक्रिय हैं और अपने गंदे इरादों के साथ साहित्य के क्षेत्र में भी कूद पड़े हैं। इन लिटरेरी नक्सल्स का मकसद जनता के उस हिस्से को प्रभावित करना है जो अपना दुख और अपनी खुशी इस [कविता] के साथ जोड़कर देख सकते हैं।’
यह बेहद शर्मनाक है कि वस्तुस्थिति का बयान करनेवाली एक कविता को एक साहित्यिक पत्रिका अराजकता फैलाने की साजिश से जोड़कर देख रही है। सरकारी लापरवाही के कारण होनेवाली बेहिसाब मौतें, इलाज और ऑक्सीजन की कमी से तड़पकर दम तोड़ते लोग, श्मशानों में शवदाह के लिए इंतजार करती कतारें, गंगा में तैरती अनगिनत लाशें, और इस पूरे परिदृश्य में अनुपस्थित केंद्र सरकार—जिसके लिए अराजकता यह नहीं है बल्कि इनका बयान करना अराजकता की निशानी है, वे साहित्य की दुनिया के लोग हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं। साहित्य का स्वभाव सत्ता के खिलाफ, लोगों के पक्ष में खड़ा रहना है। चर्चित कविता ने यही काम किया है जिसे उक्त संपादकीय ‘उत्तेजना में’ व्यक्त किया गया ‘बेतुका आक्रोश’ बता रहा है।
संपादकीय-लेखक को, जो गुजराती साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विष्णु पंड्या हैं, इस बात का इल्म ही नहीं कि इस कसौटी पर उक्त कविता को ही नहीं, साहित्य मात्र के उत्तमांश को खारिज किया जा सकता है। ऐसा लेखन करनेवालों को ‘लिटरेरी नक्सल्स’ बता कर उन्होंने अपनी राजनीति का ही निर्लज्ज प्रदर्शन नहीं किया है, अपनी साहित्यिक समझ के दिवालियेपन को भी उजागर कर दिया है।
जनवादी लेखक संघ एक लोकप्रिय कविता पर किये गए इस हमले की घोर भर्त्सना करता है और लेखकों-कवियों से अपील करता है कि ऐसे हमलावरों का हर स्तर पर पूर्ण बहिष्कार करें। गुजरात के लेखकों को गुजराती साहित्य अकादमी पर प्रदर्शन करके इस संपादकीय को वापस लेने की माँग करनी चाहिए।
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (महासचिव)
राजेश जोशी (संयुक्त महासचिव)
संजीव कुमार (संयुक्त महासचिव)