डॉ. मेहता, जिन्होंने सबसे पहले गांधी में महात्मा को पहचाना

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डॉ प्राणजीवनदास मेहता

— सुज्ञान मोदी

दुनिया के इतिहास में समय-समय पर जितने महत्त्वपूर्ण कार्य होते रहे हैं उनमें अकसर कोई न कोई नेतृत्व, कोई संत, कोई आचार्य, कोई महान व्यक्तित्व सामने उभरता हुआ नजर आता है। लेकिन ऐसे महान व्यक्तियों के महान बनने में बहुत- से ऐसे व्यक्तियों का योगदान होता है, जो पृष्ठभूमि में ही रहते हैं। उनकी चर्चा प्रायः कम ही हो पाती है। ऐसे लोग बहुत जल्दी किसी व्यक्ति में छिपी महानता की संभावना को पहचान लेते हैं। इसके बाद उन्हें हर प्रकार का सहयोग देते हैं। उन्हें निश्चिन्त होकर सामाजिक और आध्यात्मिक कार्यों की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं और ऐसी निश्चिन्तता का अवसर भी प्रदान करते हैं।

भारत की आजादी और भारतीय समाज को नई दिशा देने में गांधीजी का वही स्थान है। मोहनदास गांधी को भी अपने जीवन में समय-समय पर ऐसे लोग मिलते गए। तभी वो इतना कुछ कर पाए। लेकिन आज भी बहुत कम लोग ही यह बात जानते हैं कि गांधीजी में छिपी संभावना को सबसे पहले पहचानने वाले और उन्हें हरसंभव मदद उपलब्ध करानेवाले प्रथम व्यक्ति कौन थे। आज तक उनके बारे में न बहुत कुछ विस्तार से लिखा गया है और न इसकी कहीं चर्चा ही देखने में आती है। इसलिए उस महान शख्सियत व्यक्तित्व के बारे में जानना हम सबके लिए बहुत जरूरी है।

प्राणजीवनदास ने अपने घर पर युवा गांधी की युवा ‌श्रीमद् राजचंद्र से पहली भेंट कराई। उस समय का चित्र।

महात्मा गांधी जिस व्यक्ति को अपना सबसे पुराना, अंतरंग, अनन्य और प्रिय मित्र मानते थे, उनका नाम था- डॉ. प्राणजीवनदास मेहता (1864-1932)। वे गांधी की ‘छाया’ भी थे, और गांधी का ‘साया’ भी। वे गांधी की ‘काया’ और ‘माया’ भी आजीवन बने रहे। गांधीजी से श्री मेहता की पहली भेंट 29 सितंबर, 1888 की शाम को लंदन में उसी दिन हुई, जिस दिन वे वहाँ पहुँचे थे। मेहता ही वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने गांधीजी को महात्मा और भारत के मुक्तिदाता के रूप में पहचाना था। गांधीजी ने कहा है कि अधिक से अधिक लोगों को डॉ. मेहता के व्यक्तित्व के बारे में जानना चाहिए।

गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में तो इनके बारे में लिखा ही है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा विस्तृत विवरण ‘संपूर्ण गांधी वांङ्मय’ के सौ खंडों में से पैंतालीस खंडों के दो सौ तीस पृष्ठों में उल्लिखित है। अपनी पुस्तक ‘महात्मा के महात्मा’ में मैंने एक पूरा अध्याय डॉ. प्राणजीवनदास मेहता जी को समर्पित किया है। मैं कोशिश करूंगा कि आपके सामने उन प्रसंगों को रख सकूँ जब गांधीजी देश-सेवा के व्रत में स्वयं को झोंक तो चुके थे, लेकिन जिस पैमाने पर संसाधनों की आवश्यकता थी उसमे डॉ. प्राणजीवनदासजी मेहता एक भाई, सखा और मित्र के रूप में अपना सर्वस्व लेकर प्रस्तुत हो गए और जीवनपर्यंत प्रस्तुत रहे। ऐसे आत्मीय प्रसंगों को पढ़कर आँखें छलछला जाती हैं।

गांधीजी से मेहता की पहली भेंट 29 सितंबर, 1888 की शाम को लंदन में उसी दिन हुई, जिस दिन वे वहाँ पहुँचे थे। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में इस बारे में लिखा है—

“मेरे पास केवल चार परिचय पत्र थे- डॉ. प्राणजीवन मेहता के नाम, प्रिंस रणजीत सिंह के नाम, दलपतराम शुक्ल के नाम और दादाभाई नौरोजी के नाम। उन सभी में से केवल डॉ. मेहता ही उसी शाम लगभग आठ बजे विक्टोरिया होटल लंदन में हमारे कमरे में मिलने आ पहुँचे। उन्होंने मेरा हार्दिक अभिवादन किया।”

गांधीजी को अपनी बैरिस्टरी की पढ़ाई के दौरान डॉ. मेहता का निरंतर सहयोग और परामर्श मिलता रहा।

गांधीजी की घनिष्ठता डॉ. प्राणजीवन जगजीवनदास के साथ 1891 की ग्रीष्म ऋतु में हुई। 5 जुलाई, 1891 को जब गांधी बैरिस्टरी की डिग्री लेकर भारत लौटे तो डॉ. मेहता के आग्रह पर कुछ समय तक बंबई में उनके घर पर रहे। गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है—

“जब नाव गोदी में पहुँची, तो मैंने अपने बड़े भाई साहब (लक्ष्मीदास) को वहाँ पाया। डॉ. मेहता का आग्रह था कि मैं उन्हीं के घर ठहरूँ, इसलिए वे मुझे वहाँ ले गए। इस प्रकार विलायत में जो संबंध स्थापित हुआ था, वह देश में भी कायम रहा। इतना ही नहीं उससे अधिक दृढ़ बनकर दोनों परिवारों को जोड़ दिया।”

गांधी ने अपनी आत्मकथा में आगे लिखा है –

“डॉ. मेहता ने अपने स्थान पर जिन लोगों से मेरा परिचय कराया, उनमें से एक का उल्लेख किए बिना मेरा काम नहीं चल सकता। उनके भाई रेवाशंकर जगजीवन तो मेरे आजन्म मित्र ही बन गए, किंतु मैं जिनकी चर्चा करना चाहता हूँ वे हैं कवि रायचंद अथवा राजचंद्र। वे ज. मेहता के बड़े भाई (पोपटलाल) के जमाता और रेवाशंकर जगजीवन (झावेरी) के नाम से चलनेवाली फर्म के साझेदार और कर्ता-धर्ता थे। इस समय उनकी अवस्था 25 साल अधिक नहीं थी। फिर भी पहली ही मुलाकात में मुझे ऐसा लगा कि वे चरित्रवान और ज्ञानी पुरुष हैं…।”

गांधीजी 1893 में दक्षिण अफ्रीका चले गए, लेकिन डॉ. मेहता के साथ उनका संबंध बना रहा। 1898 में प्राणजीवन मेहता यूरोप गए और वहाँ से लौटते हुए दक्षिण अफ्रीका पहुँचे जहाँ कुछ समय उन्होंने गांधीजी के साथ डरबन में बिताया। डॉ. मेहता ने रंगून में जवाहरात की एक दुकान खोल रखी थी। वे 1901 में रंगून पहुँचे। 1901 के अंत में गांधी दक्षिण अफ्रीका छोड़कर सपरिवार स्वदेश लौट आए। थोड़ा समय सौराष्ट्र में बिताकर मुंबई होते हुए कांग्रेस के सालाना अधिवेशन में भाग लेने कलकत्ता पहुँचे। गांधी ने डॉ. प्रफुल्लचंद्र राय के आग्रह पर 19 व 27 जनवरी, 1902 को कलकत्ते के एलबर्ट हॉल में अपने दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों के विषय में दो भाषण दिए।

गांधीजी के प्रति धन्यवाद प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए गोपालकृष्ण गोखले ने कहा कि ‘वह (गांधी) उस धातु के बने हैं, जिससे शूरवीर और शहीद बनते हैं।’ इस दूसरे भाषण के बाद 28 जनवरी, 1902 को डॉ. प्राणजीवन मेहता से मिलने गांधीजी रंगून रवाना हो गए। रंगून में गांधी डॉ. मेहता के साथ कुछ दिन रहकर फरवरी 1902 के दूसरे सप्ताह में कलकत्ता लौट आए।

फिनिक्स आश्रम की स्थापना में आर्थिक सहायता

गांधीजी ने 1904 में दक्षिण अफ्रीका में फिनिक्स फार्म की स्थापना की। फिनिक्स के चार प्रमुख भाग थे : आवास, खेत, प्रेस और स्कूल। मेहता द्वारा दी गई आर्थिक सहायता से गांधी ने इन सबको सुव्यवस्थित करने और सुधारने का प्रयत्न किया।

दोनों के बीच संवाद से पड़ी ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक की नींव

सात वर्ष के लंबे अंतराल के बाद गांधी-मेहता मुलाकात तब हुई जब गांधी 1909 में दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों की समस्याओं के संबंध में इंग्लैंड गए। वहाँ वे अपने पुराने मित्र डॉ. प्राणजीवन मेहता के साथ एक ही होटल में ठहरे। यहीं 1909 के उत्तरार्ध में इन दोनों के बीच हुए संवाद ने ‘हिंद-स्वराज’ में प्रतिपादित सिद्धांतों का स्वरूप पाया।

जब ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक लिखी गई गांधी 40 वर्ष के और प्राणजीवन मेहता 45 वर्ष के थे। महात्मा गांधी ने 21 फरवरी, 1940 को बंगाल (अब बांग्लादेश) के मलिकांदा में ‘गांधी सेवा संघ’ के महाधिवेशन में ‘हिंद स्वराज’ के उद्भव के विषय में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथ्य उजागर करते हुए कहा—

“शायद आपको पता नहीं होगा कि मैंने हिंद स्वराज किसके लिए लिखा। अब वे मर गए हैं इसलिए उनका नाम बताने में हर्ज़ नहीं है। मैंने सारा हिंद स्वराज अपने प्रिय मित्र डॉ. प्राणजीवन मेहता के लिए लिखा। उनसे जो चर्चा हुई वही इसमें आई है। मैं एक महीना डॉ. मेहता के साथ रहा (लंदन के वेस्टमिंस्टर होटल में- 1909 के साल में जुलाई और सितंबर के बीच। वे मुझे प्यार करते थे लेकिन मेरी बुद्धि की उनके पास कोई कीमत नहीं थी। वे मुझे मूर्ख और भावुक मानते थे। लेकिन अनुभव से मुझमें कुछ हिम्मत आ गई थी। कुछ वाचा भी आ गई थी। डॉ. मेहता कितने बुद्धिशाली आदमी थे? उनसे बुद्धिवाद करने की शक्ति मुझमें कहाँ? लेकिन मैंने अपनी बात उनके सामने रखी। उनके हृदय पर असर कर गई, उनके विचार बदल गए। तो मैंने सोचा इसे लिख ही क्यों न डालूँ। उनसे जैसा संवाद हुआ वैसा ही उसमें लिखा है।”

सच्चा मित्र 

जैसा गांधीजी और मेहता के बीच तय हो चुका था, 1909 के अंत में इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका लौटने पर गांधीजी ने वकालत करना छोड़ दिया था और मेहता उनका खर्च देने लगे। दक्षिण अफ्रीका में गांधी-परिवार के सभी सदस्य- यद्यपि वे गरीबी में रहने की कसम खा चुके थे- आराम से अपना जीवन बसर कर सके।

20 जून, 1913 को गांधीजी ने गोखले को लिखा—‘मेरी कुछ व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ डॉक्टर मेहता पूरी कर रहे हैं।’ ये ‘व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ’ न केवल गांधीजी के साथ रह रहे दक्षिण अफ्रीका के कुटुंबियों की थीं, वरन काठियावाड़ में रह रहे उनके परिवार की कई विधवाओं की भी थीं। जब 9 मार्च, 1914 को गांधीजी के बड़े भाई लक्ष्मीदास गुजर गए तब गांधीजी ने एंड्र्यूज़ को 13 मार्च, 1914 को लिखा- ‘अब अपने पिता के परिवार की पाँच विधवाओं और उनके बाल-बच्चों की देख-रेख का भार मेरे कंधों पर आ पड़ा है।’

1 अप्रैल, 1914 को उन्होंने गोखले को बताया—

“मेरे भाई की मृत्यु से पाँच विधवाओं और उनके बच्चों की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। डॉ. मेहता अन्य लोगों का खर्च दे रहे हैं। मुझे इसमें संदेह नहीं कि इसमें वे मेरे भाई की विधवा का भी खर्च जोड़ देंगे।”

डॉ. प्राणजीवन मेहता ने 24 मार्च, 1915 को अपने पागोड़ा स्ट्रीट, रंगून के भव्य निवास पर एक गार्डन पार्टी आयोजित की। इसमें बर्मा (म्यांमार) के काठियावाड़ी आमंत्रित थे।

चंपारण सत्याग्रह के दौरान भी मदद 

गांधीजी ने 1917 में ऐतिहासिक चंपारण सत्याग्रह के बारे में लिखते हुए अपनी आत्मकथा में लिखा—

“स्थिति ऐसी नहीं थी कि हम बिल्कुल बिना धन के अपना काम चला सकें।… निश्चय यह हुआ कि बिहार के ही ख़ुशहाल लोगों से जितनी मदद ले सकें लें और कम पड़ने वाली रकम मैं डॉ. मेहता से प्राप्त कर लूँ। डॉ. मेहता ने लिखा है कि जितने रुपयों की जरूरत हो, मंगा लीजिए।”

कोचरब का ‘सत्याग्रह आश्रम’ और साबरमती आश्रम 

सन 1917 में अहमदाबाद के कोचरब नामक स्थान पर साबरमती नदी के किनारे गांधीजी ने इस आश्रम की स्थापना की। गांधी ने ‘सत्याग्रह आश्रम’ को अपनी महानतम कृति बताया। उन्होंने यह भी कहा कि मेहता सत्याग्रह आश्रम के मात्र स्तंभ ही नहीं थे, उनके बिना तो आश्रम का जन्म ही नहीं होता। 16 मार्च, 1921 को गांधीजी ने अपने भतीजे मगनलाल को लिखा—

“डॉ. मेहता ने आश्रम को डेढ़ लाख रुपए दिए हैं। इनमें से बीस हजार रुपए रेवाशंकर भाई से तुरंत ले सकते हो। ये डेढ़ लाख रुपए अंतरात्मा से की गई ईश्वर की प्रार्थना के उत्तर में प्राप्त हुए हैं, ऐसा समझना।”

चंपारण सत्याग्रह (1917), असहयोग आंदोलन (1920) व दांडी मार्च—नमक सत्याग्रह (1930) में इस आश्रम की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। आश्रम का जीवन गांधीजी के सत्य, अहिंसा, आत्मसंयम, विराग और समानता के सिद्धांतों पर आधारित महान प्रयोग था, और सहजीवन अब सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्रांति का- जो गांधीजी के मस्तिष्क में थी- प्रतीक था। बापू ने आश्रम में 1918 से 1930 तक निवास किया।

गुजरात विद्यापीठ

महात्मा गांधी ने 18 अक्टूबर, 1920 को अहमदाबाद में इस राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना की। गांधीजी इसके आजीवन कुलाधिपति रहे। गांधीजी के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद व मोरारजी भाई देसाई आदि ने कुलाधिपति पद को सुशोभित किया।  डॉ. प्राणजीवन मेहता ने गुजरात विद्यापीठ को 1922 में दो लाख पचास हजार रुपयों से सहायता की। गुजरात विद्यापीठ परिसर में प्राणजीवन विद्यार्थी भवन के मुख्य द्वार पर गुजराती में शिलालेख पर अंकित है। “14 जनवरी, 1925 को गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति के रूप में महात्मा गांधी द्वारा इसका अनावरण किया गया। इसके बनाने में डॉ. प्राणजीवन जगजीवन दास ने रुपए एक लाख पचहत्तर हजार का अर्थ सहयोग किया।” प्राणजीवन विद्यार्धी भवन, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद की नींव की ईंटों पर चरखा का प्रतीक है।

नमक सत्याग्रह

डॉ. प्राणजीवन मेहता ने गांधीजी को 1920 में नमक कानून के खिलाफ एक आंदोलन शुरू करने का सुझाव दिया। डॉ. मेहता ने सत्याग्रह में शामिल होने की अनुमति भी प्राप्त की और इस उद्देश्य से भारत आने की योजना भी बनाई।12 मार्च, 1930 को महात्मा गांधी ने साबरमती आश्रम के अन्य 78 व्यक्तियों के साथ नमक कानून भंग करने के लिए ऐतिहासिक दांडी यात्रा की। गांधीजी ने दांडी मार्च प्रारंभ करते समय शपथ ली थी कि जब तक भारत पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं होगा, वे इस आश्रम में कदम नहीं रखेंगे।

मुंबई के मणि भवन का ऐतिहासिक महत्त्व

मणि भवन, मुंबई

गांधीजी प्राय: यहाँ पर निवास करते थे। 1934 तक यह गांधीजी का आवास था। इस भवन का स्वामित्व डॉ. प्राणजीवन के भाई रेवाशंकर जगजीवनदास जौहरी का था। इसी भवन में गांधीजी के चिंतन में असहयोग आंदोलन, स्वदेशी व खिलाफत आंदोलन के विचार आए और उनका क्रियान्वयन किया। मणि भवन से ही भारतीय स्वाधीनता संग्राम के चिह्न चरखे का प्रादुर्भाव हुआ।

1917 से 1934 तक इसी भवन में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के ऐतिहासिक निर्णय लिये गए। 4 जनवरी, 1932 को इस भवन के टैरेस में बने टेंट में गांधीजी गहरी निद्रा में थे। प्रात: तीन बजे उनके पुत्र देवदास ने जगाया और अंग्रेजों की पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर यरवदा जेल ले गई। गिरफ्तारी के साथ गांधीजी ने प्रसिद्ध दार्शनिक-कर्मयोगी थोरो के बोल को उद्धृत किया- ‘एक अन्यायी सरकार के शासन के समय सम्मानीय नागरिक के निवास का स्थान जेल ही होता है।’ 1955 से यह ऐतिहासिक भवन गांधी स्मारक निधि, मुंबई के प्रबंधन में है और ‘गांधी संग्रहालय’ के रूप में प्रसिद्ध है।

डॉ. मेहता का दुखद अवसान

नवंबर 1932 में गांधीजी के आंदोलन में भाग लेने के लिए डॉ. मेहता ने भारत आने का कार्यक्रम बनाया और तैयारी करने लगे। लेकिन नियति को यह मंजूर नहीं था। 1932 की जुलाई के अंत में एक दिन शाम को डॉ. मेहता लैंप हाथ में लेकर एक किताब ढूंढ़ रहे थे। लैंप उनके हाथ से गिर गया और उसके शीशे ने उनके पाँव को जख्मी कर दिया। डॉ. मेहता निरंतर कई दिनों तक काम करते रहे और इन घावों पर ध्यान नहीं दिया। इससे जख्म में अधिक मवाद पड़ गया। यह काम तो ठीक से हो गया, लेकिन अस्पताल में ही उन्हें उग्र न्यूमोनिया हो गया और एक सप्ताह के भीतर 3 अगस्त, 1932 की रात्रि लगभग 10 बजे उनका देहावसान हो गया।

गांधीजी उस समय यरवदा जेल में थे। उन्हें यह समाचार पाकर अत्यंत शोक हुआ। 4 अगस्त, 1932 को उन्होंने मेहता के बड़े पुत्र छगनलाल, छगनलाल के श्वसुर रतिलाल शेठ, मेहता के दूसरे पुत्र रतिलाल, मेहता के बहनोई नानालाल कालिदास जसानी, मेहता के मुंबई में रह रहे भतीजे (रेवाशंकर झावेरी के पुत्र मणिलाल) और रेवाशंकर झवेरी को एकसाथ पत्र लिखे।

गांधीजी ने इस संबंध में 7 अगस्त, 1932 को नारणदास गांधी को भी पत्र लिखा—

“यदि मैं आश्रम में होता तो इस पुण्यात्मा के बारे में अवश्य कुछ कहता। डॉक्टर मेहता मेरे सबसे पुराने साथी थे। मैं जब पहली बार इंग्लैंड गया तब मेरी उनके साथ मित्रता हुई थी जो दिन-प्रतिदिन परिपक्व होती चली गई। इंग्लैंड में सबसे पहले मेरी मुलाकात उन्हीं से हुई और तभी से वह मेरा पथ-प्रदर्शन करने लगे। लेकन यह तो ‘आत्मकथा’ में दिया है। यहाँ मैं अपने निकट संबंध के विषय में नहीं लिखना चाहता। डॉक्टर में ऐसे कौन से गुण थे जिनके लिए मैं उन्हें पुण्यात्मा मानता हूँ, उन गुणों को जान लेने पर हम उनका अनुकरण कर सकें और वे जो कर सकें सो हम भी कर सकते हैं, ऐसा मन में विश्वास और श्रद्धा रख सकें।

…डॉक्टर को ग्रांट मेडिकल कॉलेज से स्वर्ण-पदक मिला था। बाद में उन्होंने इंग्लैंड में अनेक परीक्षाएँ पास कीं और वे बैरिस्टर बने। लेकिन यह सब मैं छोड़ देता हूँ। सब कोई विद्वान नहीं बन सकते। उसके लिए बाह्य संयोग होने चाहिए। व्यक्ति अपने अक्षर-ज्ञान के लिए नहीं अपितु अपने गुणों के कारण पूजे जाते हैं। डॉक्टर में मैंने दृढ़ता, वीरता, उदारता, पवित्रता, सत्यप्रियता, अहिंसा, सादगी आदि गुणों को उत्तरोत्तर बढ़ते देखा। अमुक निश्चय करने के बाद वे अपने निश्चय से कभी पीछे नहीं हटते थे। इसी से उनके वचन पर आसपास के लोगों में विश्वास था। डॉक्टर सदैव निर्भय थे। इंग्लैंड लौटने पर उन्होंने देखा कि उनके स्वाभिमान की रक्षा नहीं हो सकती। इसलिए उन्होंने अपना वतन मोरवी हमेशा के लिए छोड़ दिया। उनकी उदारता की कोई सीमा ही नहीं थी। उनका घर धर्मशाला था। कोई भी योग्य गरीब व्यक्ति उनके घर से खाली हाथ नहीं लौटता था। उन्होंने अनेक लोगों का निर्वाह किया था। डॉक्टर द्वारा की जानेवाली सहायता में कोई दंभ न था। अपनी उदारता का डॉक्टर ने कभी ढिंढोरा नहीं पीटा। उनकी इस उदारता में न्याति-जाति का अथवा प्रांत का कोई बंधन न था। सब प्रांत के लोगों को, समस्त जाति के लोगों को और समस्त धर्मावलंबियों को उनकी इस उदारता का लाभ मिला था। डॉक्टर के पास विपुल धन था, लेकिन उन्हें इसका गर्व न था। डॉक्टर ने अपने उपभोग के लिए धन से बहुत कम खर्च किया था। और यह कहा जा सकता है कि अपने विशाल बंगले में स्वयं अपने लिए उन्होंने छोटी-से-छोटी जगह रखी थी। अपने सुखोपभोग के लिए उन्होंने कोई पैसा खर्च किया हो, इसकी मुझे याद नहीं आती।

…डॉक्टर ने अत्यंत दृढ़ता के साथ एकपत्नी व्रत का पालन किया था, ऐसी मेरी मान्यता है। अनेक वर्षों से उन्हें ब्रह्मचर्य बहुत प्रिय था। अपने प्रारंभिक जीवन में डॉक्टर को कदाचित् ही पुस्तक पढ़ने का शौक था। लेकिन बाद में यह शौक बढ़ गया था। मुझे वे यहाँ जो पत्र लिखा करते थे उनमें अपनी पढ़ी हुई पुस्तकों का उल्लेख किया करते थे। वे सब धार्मिक पुस्तकें ही थीं। डॉक्टर ने अपने व्यापार में और वकालत में जहाँ तक मैं जानता हूँ, सत्य व्रत का पालन ही किया था। मैं यह जानता हूँ कि असत्य और दंभ के प्रति उन्हें बड़ी घृणा थी। उनकी अहिंसा उनके चेहरे से लक्षित होती थी, उनकी आँखों में उसे पढ़ा जा सकता था और उसमें दिन-ब-दिन वृद्धि होती जाती थी। ऐसे तो व्यक्ति की आत्मा कभी नहीं मरती, लेकिन डॉक्टर जैसे व्यक्ति तो अपने गुणों से विशेष रूप से अमर हो जाते हैं। आश्रम के साथ उनका निकट संपर्क आश्रम की धर्म-वृत्ति का पोषक था। हमें चाहिए कि हम इस पुण्यात्मा के जीवन से यथाशक्ति शिक्षा ग्रहण करें।”

यह अद्भुत संयोग ही है कि डॉ. प्राणजीवन मेहता की पौत्री श्रीमती सरला मेहता 30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की अंतिम प्रार्थना सभा में उपस्थित थीं। उल्लेखनीय है, डॉ. प्राणजीवन मेहता स्वयं 9 अप्रैल, 1901 को गांधीजी के आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक श्रीमद् राजचंद्रजी के देहविलय के समय उनके पास राजकोट में उपस्थित थे।

महात्मा गांधी और डॉ. प्राणजीवन मेहता की इस अद्भुत मैत्री की गहराई और व्यापकता को कुछ शब्दों में बता पाना मुश्किल है।  लेकिन यह निष्कर्ष सहज ही उभरता है कि 1888 में गांधीजी के विद्यार्थी के रूप में लंदन पहुँचने से शुरू और 1932 में डॉ. मेहता के देहांत तक के 44 लम्बे बरसों के दौरान इस मित्रता ने गांधीजी के महात्मा बनने के सभी निर्णायक मोड़ों पर अमूल्य भूमिका निभाई। यह भी स्पष्ट है कि डॉ. प्राणजीवन मेहता पहले व्यक्ति थे जिन्होंने गांधीजी को महात्मा के रूप में देखा-समझा। उनको भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के निर्णायक मार्गदर्शक और महानायक के रूप में पहचाना और अपने अंतिम दिनों तक तन-मन-धन से उन्मुक्त सहयोग दिया।

गांधीजी के लिए डॉ. प्राणजीवनदास मेहता एक दुर्लभ पुण्यात्मा थे। उनके जीवन में दृढ़ता, वीरता, उदारता, पवित्रता, सत्य-प्रियता, अहिंसा और सादगी की उत्तरोत्तर बढ़ोतरी हुई। यह अकारण नहीं था कि डॉ. मेहता ने गांधीजी को युगपुरुष के रूप में चार दशकों तक सम्मान और सहयोग दिया और गांधीजी अपने भरोसेमंद मित्र डॉ. मेहता की आदर्शवादिता और उदारता को अनुकरणीय मानते थे।

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