जेपी की कारावास की कहानी – चौथी किस्त

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(26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुई तो जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर तत्कालीन सरकार ने जेल में डाल दिया। विपक्षी दलों के तमाम नेता भी कैद कर लिये गए। कारावास के दौरान जेपी को कुछ लिखने की प्रेरणा हुई तो 21 जुलाई 1975 से प्रायः हर दिन वह कुछ लिखते रहे। जेल डायरी का यह सिलसिला 4 नवंबर 1975 पर आकर रुक गया, वजह थी सेहत संबंधी परेशानी। इमरजेन्सी के दिनों में कारावास के दौरान लिखी उनकी टिप्पणियां उनकी मनःस्थिति, उनके नेतृत्व में चले जन आंदोलन, लोकतंत्र को लेकर उनकी चिंता, बुनियादी बदलाव के बारे में उनके चिंतन की दिशा और संपूर्ण क्रांति की अवधारणा आदि के बारे में सार-रूप में बहुत कुछ कहती हैं और ये ‘कारावास की कहानी’ नाम से पुस्तक-रूप में सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी से प्रकाशित हैं। आज जब लोकतंत्र को लेकर चिंता दिनोंदिन गहराती जा रही है, तो यह जानना और भी जरूरी हो जाता है कि जेपी उन भयावह दिनों में क्या महसूस करते थे और भविष्य के बारे में क्या सोचते थे। लिहाजा कारावास की कहानी के कुछ अंश हम किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। यहां पेश है चौथी किस्त।)

23 अगस्त

जादी के अब पूरे 28 वर्ष हो गये। इस बीच हमारे समाज के आर्थिक-सामाजिक एवं राजनीतिक ढाँचे में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं हुआ है। जमींदारी की प्रथा उठा दी गयी है, भूमि-सुधार के कानून भी पारित किय़े गये हैं और अस्पृश्यता पर कानूनी रोक लग गयी है। ऐसे अन्य कुछ काम भी हुए हैं। परन्तु भारत के अधिकांश भाग में गाँव पर अब भी ऊँची जातियों का, बड़े और मँझोले भूमिपतियों का कब्जा है। भारत के अधिकांश राज्यों के अधिकतर गाँवों में- जो शायद देश का नब्बे प्रतिशत भाग घेरते हैं- छोटे तथा मँझोले भूमिपतियों, भूमिहीनों, पिछड़े वर्गों तथा हरिजनों का ही बहुमत है। फिर भी उनकी स्थिति दयनीय है। हरिजनों को आज भी जिन्दा जला दिया जाता है। हरिजनों के अलावा आदिवासी ही सबसे पिछड़ा हुआ वर्ग है, और इन आदिवासियों को वे महाजन (जिनमें बहुत सारे भूमिवान और दुकानदार शामिल हैं) जो अपने-आप में सम्भवतः छोटे ही होते हैं, निर्दयतापूर्वक ठगते हैं और उनका शोषण करते हैं। ये आदिवासी मैदानी इलाकों के लोगों को ‘दिक्कू’ कहते हैं।

कुछ उद्योगों, बैंकों तथा जीवन-बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण हुआ है। रेलवे का तो राष्ट्रीयकरण बहुत पहले हो चुका था। सार्वजनिक क्षेत्र में कुछ नये और बड़े उद्योगों की स्थापना हुई है। लेकिन यह सब मिलकर राजकीय पूँजीवाद को जन्म देते हैं तथा अकुशलता, बरबादी और भ्रष्टाचार में वृद्धि करते हैं। राजकीय पूँजीवाद का अर्थ है राज्य की सत्ता, मुख्यतःराजकीय नौकरशाही की सत्ता में या जिसे गालब्रेथ ने सार्वजनिक नौकरशाही की संज्ञा दी है, वृद्धि होना। इस ढाँचे में समाजवाद का कोई तत्त्व या गुण नहीं है। श्रमिक वर्ग का, जनता का, या यों कहिए, आम लोगों का कोई स्थान इस ढाँचे में नहीं है, सिवा इसके कि वे मजदूर या उपभोक्ता मात्र हैं। उनमें न तो बहुचर्चित आर्थिक लोकतंत्र और न औद्योगिक लोकतंत्र ही है। इसका यह अर्थ नहीं कि मैं समाजवाद का विरोधी हूँ। चूँकि समाजवाद में मुझे गहरी दिलचस्पी है, इसलिए मैं इन सब बातों की ओर संकेत कर रहा हूँ। अफसोस यह है कि हमारे समाजवादी बन्धु राष्ट्रीयकरण को ही बहुत दूर तक समाजवाद के समकक्ष मान लेते हैं।

शिक्षा-व्यवस्था बुनियादी रूप से वही रह गयी है जो अंग्रेजी शासन में थी; यानी शिखर पर पहुँचानेवाले सोपान तुल्य वर्ग-शिक्षा का रूप उसका रह गया है, बावजूद इसके कि उसके सुधार के लिए कई कमिटियाँ और आयोग बनाये गये। इस सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा सकता है, परन्तु उसके लिए यह स्थान नहीं है। यहाँ तो मैं केवल यह दिखाने कि कोशिश कर रहा हूँ कि आजादी के बाद इतने वर्षों में समाज का ढाँचा किस प्रकार अपरिवर्तित रह गया है।

रस्म-रिवाज, तौर-तरीके, विश्वास, अन्ध-विश्वास- ये सब आमलोगों के लिए बहुत कुछ वही रह गये हैं। उच्च वर्गों के लिए भी अधिकांशतः सतही परिवर्तन हुआ है।

आजादी के बाद राजनीतिक, सार्वजनिक एवं व्यावसायिक नैतिकता में लगातार पतन होता गया है।

यदि हम सामाजिक एवं आर्थिक विकास को लें तो बड़ी भयानक तस्वीर सामने आयेगी। जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। गरीबी भी बढ़ रही है; 40 प्रतिशत से भी अधिक लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। भोजन-वस्त्र के अलावा पेयजल, पशूपयोगी नहीं मनुष्य के रहने लायक मकान, चिकित्सा-सेवा आदि ऐसी निम्नतम आवश्यकताएँ भी उपलब्ध भी नहीं हैं। एक तो विद्यालयों की संख्या कम है, अगर विद्यालय हैं भी तो शिक्षा दूषित है। आज के समाचारपत्र बताते हैं कि खनिज पदार्थों के मामले में बिहार सबसे धनी राज्य है; बिहार में जमीन अच्छी और अजस्र-सलिला नदियाँ हैं। तब भी बिहार भारत का सबसे गरीब राज्य क्यों है? गरीबी के तथ्यों की यह सूची और भी लम्बी हो सकती है।

प्रश्न यह है कि सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया से यह तस्वीर बुनियादी रूप से बदल सकती है क्या? अगर विरोधी पक्ष जीत जाय तो भी तस्वीर बदलेगी क्या?  मुझे भय है कि नहीं बदलेगी। कानून पारित होते जायेंगे और लागू होते जायेंगे; रुपये भी खर्च किये जायेंगे। यह सारा होते हुए यदि भ्रष्टाचार का प्रवेश न हो तो भी क्या यह ढाँचा, व्यवस्था, यह समाज का यह रूप बदलेगा? मैं समझता हूँ कि नहीं बदलेगा। क्यों?

इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व कुछ उदाहरण देकर मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि मेरा तात्पर्य क्या है। वैवाहिक परम्पराओं को, विशेषकर तिलक-दहेज की प्रथा को लीजिए, जो बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में प्रचलित है। इस बुराई को कानून से दूर करने की कोशिश की गयी है, परन्तु कानून निष्प्राण अक्षर की तरह रह गया है। इस बीच रोग बढ़ता जा रहा है जिसके फलस्वरूप अनेक परिवार नष्ट हुए हैं और बहुत सी लड़कियों का जीवन बर्बाद हुआ है। कल तक जो जातियाँ इस अभिशाप से मुक्त थीं, वे भी तेजी से इस बुराई की शिकार हो रहीं हैं, क्योंकि यह सामाजिक बुराई उनकी नजर में कुलीनता की प्रतीक बन गयी है। इस बुराई का इलाज इसके विरुद्ध जोरदार सामाजिक आंदोलन, शान्तिपूर्ण संघर्ष छेड़ने के अलावा और कुछ नहीं है। इसी प्रकार भूमि-सुधार तथा वासभूमि काश्तकारी कानून की क्रियान्विति तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचार के निराकरण आदि की समस्याएँ हैं। यह सब करने के लिए जनजागरण और जनसंघर्ष होना चाहिए। स्वभावतः इस संघर्ष के अगले मोर्चे पर युवक होंगे जिनमें छात्र भी शामिल हैं।

प्रश्न इससे भी बड़ा है। वह यह कि समाज में व्यवस्थागत परिवर्तन कैसे लाया जाए? अर्थात् जिसे मैंने सम्पूर्ण क्रान्ति का नाम दिया है, वह कैसे हो? समाज के हर क्षेत्र में, हर पहलू में क्रांति कैसे हो? यह प्रश्न और कठिन हो जाता है, जब हम यह भी कहते हैं कि सम्पूर्ण क्रान्ति शान्तिपूर्ण तरीके से, समाज के लोकतांत्रिक ढाँचे को क्षतिग्रस्त किये बिना और जनता की लोकतांत्रिक जीवन-पद्धति को प्रभावित किय़े बिना करनी है। इस रूप में देखा जाय तो सर्वाधिक विधि–निष्ठ एवं संविधान–निष्ठ लोकतंत्रवादी भी यह स्वीकार करेगा कि यदि लोकतंत्र को निर्वाचन, विधायन, नियोजन तथा प्रशासनिक क्रियान्वयन तक ही सीमित रखना है तो यह सारा कुछ कभी नहीं होगा। इसलिए आवश्यक है जनता की सीधी कार्रवाई। इस प्रकार की कार्रवाई में, और बातों के अलावा सविनय अवज्ञा, शान्तिमय प्रतिकार तथा असहयोग- संक्षेप में कहें तो व्यापकतम अर्थ में सत्याग्रह का समावेश होगा ही। ऐसे सत्याग्रह का एक अव्यक्त गूढ़ार्थ होगा आत्म-परिवर्तन- अर्थात् परिवर्तन चाहनेवाले ऐसी कोई कार्रवाई शुरू करने के पूर्व अपने-आपको परिवर्तित कर लें।

मुझे स्मरण है, चन्द्रशेखर ने बार-बार मुझसे पूछा था कि बिहार आंदोलन या अन्य ऐसा कोई आन्दोलन यदि कांग्रेस का शासन हटाकर विरोधी पक्ष का शासन स्थापित करता है तो केवल इतने से वह क्या हासिल कर लेगा? क्या वह शासन वर्तमान शासन से अच्छा होगा? यह एक मौजूं सवाल था और इसपर विरोधी दलों को विचार करना चाहिए। विरोधी पक्षों ने 1967 में जो कुछ किया, उससे बड़ी निराशा हुई थी।

चन्द्रशेखर को मैं जो उत्तर देता था, वह यह है कि आन्दोलन का लक्ष्य बिहार में केवल शासन –परिवर्तन करना नहीं है; बल्कि इससे महत्तर लक्ष्य है जिसे मैंने सम्पूर्ण क्रान्ति के गागर में सागर की तरह भर दिया है। आन्दोलन जारी रहेगा और उसका जारी रहना इस बात का एक प्रबल आश्वासन होगा कि विरोध-पक्षीय सरकार सदैव सावधान रहेगी तथा आन्दोलन और भी तीव्रतर एवं सहजतर रूप से आगे बढ़ेगा, क्योंकि नयी सरकार उसे अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करेगी।

वस्तुतः मैं यहाँ इस बात पर जोर देकर कहना चाहूँगा- जैसा कि मैंने बिहार आन्दोलन के दौरान अकसर कहा था- कि यदि बिहार सरकार ने आरम्भ में ही छात्रों के साथ सहयोग किया होता और उनकी बारह-सूत्री माँगों में उठाये गये प्रश्नों का परीक्षण कर उन्हें गम्भीरतापूर्वक हल करने की कोशिश की होती, तो बिहार के छात्र–आन्दोलन द्वारा बिहार सरकार को हटाये जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अब जैसा कि सुविदित है, मंत्रिमण्डल को तथा विधानसभा को भंग करने की माँग बहुत बाद में तब उठी, जब तत्कालीन बिहार सरकार घोर हिंसा, दमन और झूठ का सहारा लेने लगी।

मैं जो कुछ कह रहा हूं उसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार के जनान्दोलन की मैं कल्पना करता हूं, वह संबंधित प्रकार के सहयोग से अथवा संघर्ष के आधार पर आगे बढ़ सकता है। सर्वप्रथम इस सिद्धांत का प्रतिपादन मैंने पूना में (23 जनवरी 1975 को) आयोजित नागरिक अभिनंदन समारोह में दिये गये अपने भाषण में किया था। परंतु यह विचार मुझे उक्त अभिनंदन समारोह में ही अचानक सूझा, ऐसी बात नहीं है। यह मेरे मन में हमेशा रहा है, और निश्चित रूप से पहले भी कई बार इसके बारे में मैंने चर्चा की थी। परंतु चूंकि पूना नगर निगम विरोधी पक्ष के एक समाजवादी मेयर के हाथ में था, तथा उक्त नगर निगम में सत्ताधारी कांग्रेस के भी सदस्य थे और उन्होंने भी मेरे अभिनंदन में भाग लिया था, इसलिए मैंने उस सिद्धांत की यथासंभव स्पष्ट व्याख्या करने की आवश्यकता समझी थी। पूना के समाचारपत्रों के लिए यह एक नयी बात थी। इसलिए उन्होंने उसको प्रमुखता दी और राष्ट्रीय समाचारपत्रों ने उसे बहुत अच्छे ढंग से प्रकाशित किया। इसी कारण उस समय लोगों ने यह समझा कि मैंने एक नया कदम उठाया है। वास्तव में, बिहार के कुछ विरोधी नेताओं ने भी उस समय ऐसा महसूस किया।

आंदोलन शुरू करने के लिए जो पद्धति निर्धारित की गयी, उसमें ही इस स्थिति की अव्यक्त स्वीकृति निहित थी। पहले तो ऐसी अनेक मांगें उठायी गयी थीं जो जनता के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण थीं और उन्हें मुख्यमंत्री के सामने प्रस्तुत किया गया था। इसपर यदि मुख्यमंत्री कहते कि अच्छी बात है, आइए हमलोग एकसाथ बैठें और प्रस्तुत समस्या पर विचार करें, और मैं इन समस्याओं को हल करने और मंत्रिमंडल में भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों को मिटाने में आपके साथ सहयोग करने के लिए तैयार हूं, तो यह संघर्ष (जो अब भी एक संघर्ष ही है, परंतु यह संघर्ष सरकार के विरुद्ध नहीं, बल्कि कुछेक बुराइयों के विरुद्ध और कुछ परिवर्तनों एवं लक्ष्यों की पूर्ति के लिए है) सहयोग का रास्ता अपना लेता। अभी तक तो किसी भी कांग्रेसी सरकार ने इस मार्ग का अनुसरण नहीं किया है। अकसर छात्रों की मांग का कोई उत्तर ही नहीं आता, या यदि आता भी है तो वह टालमटोल करनेवाला और विषयेतर होता है।

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