कब आएगी इनकी आजादी

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— संजय कनौजिया —

दिल्ली कैंट क्षेत्र में नौ वर्षीय बच्ची के बलात्कार और निर्मम हत्या ने मुझ जैसे सामाजिक व राजनैतिक कार्यकर्ता को वैसे ही आहत किया है, जैसे कि आपको। अपराध तो अपराध ही होता है और किसी भी देश का समाज किसी भी तरह के अपराध को स्वीकार नहीं करता। लेकिन हमारे देश में एक घिनौनी मानसिकता का जघन्य अपराध हजारों-हजार वर्षों से आज तक होता आ रहा है। सोचिए निर्भया काण्ड के विरुद्ध पूरा समाज आंदोलित हो गया था। इससे एक आशा की लौ जगी थी, कि ऐसे घिनौने अपराध की पुनरावृत्ति हुई तो सर्वसमाज फिर आंदोलित होकर अपनी बहन-बेटी-माँ-बहू की सुरक्षा के लिए सरकार और प्रशासन से सवाल करेगा। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ क्या इसलिए कि वह बच्ची गरीब और कूड़ा बीननेवाले परिवार की थी?… गरीब तो निर्भया भी थी”..लेकिन दिल्ली कैंट क्षेत्र की ये बच्ची अछूत भी थी!

आज भी हमारे समाज में जाति और जन्म आधारित भेदभाव प्रचलित है…आज भी गाँवों और कस्बों में छुआछूत ऊंच-नीच का व्यवहार किया जाता है। आज के आधुनिक युग कहे जानेवाले युग में भी अनुसूचित जाति के लोगों को पनघटों और मंदिरों में जाने से रोका जाता है, उनके रहने के लिए जगह भी अलग से तय की जाती है। आखिर ये प्रथा अब तक क्यों बनी हुई है?.. ये बुराई खासकर हिन्दू कहे जानेवाले समाज में बहुत गहराई तक पैठी हुई है। इसी वजह से आजादी के इतने वर्षों बाद भी यह समस्या अलग-अलग तरह से समाज में बनी हुई है!

इस प्रथा के बने रहने के पीछे कुछ दशकों पहले तक यह समझा जाता था कि शायद शिक्षा का न होना इसका मूल कारण हो सकता है। परन्तु बाबासाहब भीमराव आंबेडकर के प्रयासों से सर्वसमाज को शिक्षा का जो अधिकार मिला है, इसी अधिकार की वजह से अछूत समाज में भी शिक्षा का प्रसार तेजी से हुआ है। लेकिन ऊंच-नीच का व्यवहार फिर भी बरकरार है। अनुसूचित जातियों के जो लोग शिक्षित हैं उन्हें राजनीतिक तंत्र में, न्यायिक व्यवस्था में, प्रशासनिक सेवाओं में, व्यापारिक क्षेत्र में, अन्य सरकारी गैर-सरकारी क्षेत्रों में, कला व साहित्यिक क्षेत्र में, क्रीड़ा के क्षेत्र में, शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में और अन्य क्षेत्रों में दाखिल होने का मौका तो मिल गया है पर उन्हें अछूत होने का दंश झेलना ही पड़ता हैअछूत नारी और अछूत छात्रों की दशा तो अधिक शोचनीय होती है..पूरे भारत में छुआ-छूत के सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक और सांस्कृतिक दुष्परिणाम दिखते हैं।

हमारे देश में गरीबी का एक मुख्य कारण छुआ-छूत भी हैजब तक अछूत माने गये लोगों को समाज की मुख्यधारा में स्थान नहीं मिल जाता तब तक देश का स्वस्थ व समुचित विकास नहीं हो सकता।

अछूत कहा जानेवाला समाज शिक्षित होकर देश के विकास व उत्थान के लिए और अपने मान-सम्मान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा है। इस वर्ग ने हमेशा समरसता, सौहार्द, एकता, एकजुटता और उदारता की नीति पर ही चलने पर बल दिया है। लेकिन वह वर्ग जो अपने को सभ्य-श्रेष्ठ-अति-समझदार मानता आ रहा है, वह अछूत वर्ग की माँ समान बूढ़ी औरत से लेकर बेटी समान मासूम बच्चियों के यौन-शोषण, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार को प्रश्रय देता है, ऐसे अपराधों पर चुप्पी साधे रहता है, और कई बार तो अपराधियों के बचाव में खड़ा नजर आता है।

रोजाना बलात्कार की खबरें पढ़िए और शर्मशार होते रहिए..क्योंकि अब आपके पास कोई चारा ही नहीं बचा है, सिवाय शर्मिंदगी के! हर आधे-आधे घंटे में एक बलात्कार हो रहा है और हर वक्त इंसानियत शर्मसार हो रही है.. इसपर प्रधानमंत्री मोदी, एक बार लंदन में “भारत की बात सबके साथ” करते हुए कह रहे थे कि किसी बेटी के साथ बलात्कार बड़ी शर्म की बात है और देखिए प्रधानमंत्री मोदी के पास भी शर्मिंदगी के अलावा कुछ और नहीं है!

उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर क्षेत्र में 6 वर्षीय बच्ची के रेप, बिजनौर में बच्ची से रेप, अलीगढ में रेप, उन्नाव रेप, हाथरस में रेप, मिर्चपुर रेप, कठुआ रेप, सासाराम रेप, सूरत रेप, दिल्ली में गीता चोपड़ा रेप, दिल्ली का निर्भया रेप, दिल्ली कैंट में 9 वर्षीय बच्ची से रेप, अभी 12 अगस्त को दिल्ली के त्रिलोकपुरी क्षेत्र में रेप की ताजा घटना.. हैरानी की बात है कि दिल्ली के गीता चोपड़ा तथा निर्भया एवं कठुआ रेप को छोड़कर बाकी सभी अछूत कन्याएं ही बलात्कार का शिकार हुईं हैं…गैर-दलित की बच्चियों के बलात्कार के मामले देश-दुनिया में गूंजे, बड़े-बड़े आंदोलन हुए..लेकिन दलित कन्याओं के बलात्कार में उन्हीं की बिरादरी चंद दिनों के लिए मुखर हो पाती है और फिर मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है।

दलित कन्याओं के खिलाफ हुए इन अपराधों पर समाज धिक्कारता तो है परन्तु आंदोलित होकर सरकार से सवाल नहीं करता और विशेष जातियों के वर्चस्व वाला मीडिया दलित कन्या से बलात्कार और उस कन्या की मौत को भी एक साधारण घटना की तरह दर्शाता है।

यही कारण है कि उस राज्य की सरकार मुआवजे की कीमत केवल 10 लाख लगाती है और यह कीमत वह सरकार लगाती है जो अन्य मृतकों के परिजनों को एक करोड़ रुपया मुआवजे में देकर अपनी पीठ थपथपाती है। यह उन्हीं लोगों की सरकार है जो लोकपाल के नाम पर आंदोलन में शामिल जनता को निर्भया रेप कांड पर पुनः आंदोलित कर आज दिल्ली की सत्ता पर काबिज हैं…लेकिन दलित कन्याओं के रेप पर खामोश हैं।

ये वे मामले हैं जो किसी ना किसी तरह सार्वजनिक हो जाते हैं..सोचने की बात तो यह भी है कि ऐसे कितने अनगिनत मामले हैं जो आधे-आधे घंटे पर होते रहते हैं, जिनके बारे में पता नहीं चल पाता और पीड़ित पक्ष गरीबी के कारण तथा अपराधियों के डर से बेबस होकर खामोश रहता है।
हकीकत यह है कि आजादी के लिए हुए संघर्ष के दौरान जो सामाजिक जागरूकता और आधुनिक चेतना पैदा हुई थी, आज उसकी चमक काफी कुछ फीकी पड़ चुकी है। संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार कागजों पर ही धरे रह गए हैं, उनपर अमल करने में ना तो समाज को कोई विशेष रुचि है और ना ही सरकारों को।

समाज सुधार के आंदलनों की गति धीमी और ठंडी पड़ चुकी है। शायद यही कारण है कि पारम्परिक रूढ़िग्रस्त मानसिकता की वापसी हो रही है। वर्तमान या इससे पूर्व जो आंदोलन होते रहे हैं वो केवल वोट की खातिर, केवल सत्ता प्राप्ति के लिए होते रहे हैं इनसे किसी भी तरह का सामाजिक जागरण नहीं होता। यही कारण है कि आजादी के बाद हमें नेता तो कई अच्छे-अच्छे मिले..लेकिन राजा राममोहन राय, अहिल्याबाई, विवेकानंद, ज्योतिराव फुले, सावित्री फुले, पेरियार जैसे महान समाज सुधारक हम नहीं देख पाये।

वैसे दो राजनीतिक नेता आजादी के बाद समाज को मिले जिनमें समाज सुधारक होने की तस्वीर भी दिखती थी एक थे डॉ. भीमराव आंबेडकर, दूसरे डॉ. राममनोहर लोहिय। लेकिन यह समाज का दुर्भाग्य रहा कि जाति तोड़ो के लिए जो “रोटी और बेटी” के सम्बन्ध का सिद्धांत इन दोनों महान नेताओं का अगले आंदोलन का विजन था वह डॉ. आंबेडकर के असमय परिनिर्वाण की वजह से पूरा ना हो सका..जिससे डॉ. लोहिया बहुत व्यथित हुए थे और 57 वर्ष की उम्र में डॉ. लोहिया भी सबको अलविदा कह गए। उस काल-खंड में कुछ विद्वानों को उम्मीद थी कि शायद आंबेडकरवादी और लोहियावादी अपने-अपने नेताओं के मिशन को मिलकर बढ़ाएंगे, लेकिन ऐसा हो ना सका और दोनों समान धाराएं अपने-अपने झंडे लेकर, अपने-अपने तरीके से जय भीम और जय समाजवाद का नारा लेकर, सामाजिक चेतना जगाने के बजाय, अपनी-अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को साधने में लग गयीं।

किसी की बेटी, बहू, बहन, पत्नी के साथ कोई अनाचार होता है, तो उसके माँ-बाप और परिजनों पर क्या गुजरती है यह कड़वी सच्चाई किसी से छुपी नहीं है बलात्कार का सबसे दुखद पहलू है कि पीड़िता को शारारिक और मानसिक कष्ट ही नहीं, सामाजिक लांछन भी सहना पड़ता है, यह भयानक प्रताड़ना है। वहीं छुआ-छूत, ऊंच-नीच के आधार पर दी जानेवाली प्रताड़नाओं से एक बड़ा वर्ग सदा मानसिक रूप से कुंठित होता आ रहा है..ये दिमाग में असर डालनेवाली बीमारी को मात्र कानून बना देने या किसी को जेल में भेज देने भर से दूर नहीं किया जा सकता।

ऐसा नहीं कि कानून कठोर नहीं है, ऐसा भी नहीं कि नारी अपनी सुरक्षा में निर्बल है..आज की शिक्षित नारी इन कृत्यों के खिलाफ बोलने लगी है, अपने को सतर्क भी रखती है..लेकिन पिछले छह-सात वर्षों में एक खास वर्ग में दूसरों को अत्यधिक प्रताड़ित कर देने की नयी ऊर्जा का संचार हुआ है..यह वर्ग ना तो कानून की परवाह करता है ना ही संविधान की..यह अपनी मनुवादी नियमावली के अनुसार नए-नए हथकंडे अपना रहा है। यह वर्ग इसलिए भी कामयाब हो रहा है कि दलित जातियों में भी मनुवादी डीएनए घुसा चला आ रहा है। दरअसल, दलितों में आपस में जातिवाद कूट-कूट कर भरा हुआ है…जिन्हें वर्तमान में बहुजन के नाम से जाना तो जाता है उनमें बहुजन होने की चेतना ठीक से आयी नहीं है। बहुजन होने की जागरूकता तो तब मानी जाएगी जब दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक सामाजिक न्याय और समता के सिद्धांत को मानते हुए एकता कायम करें, अपने अंदर फैले जातिवाद को खत्म करें और मिलकर अपने अधिकारों व मौलिक अधिकारों के लिए संघर्ष करें और अपने बीच से बड़े समाज सुधारक भी पैदा करें।

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