बिहार प्रशासन का एक अनुभव

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— अरमान अंसारी —

माजवादी चिंतक किशन पटनायक अपने लेख प्रशासनिक सुधार की चुनौतीमें मध्यकालीन राजा-प्रजा संबंध का उदाहरण देते हुए लिखते हैं : किवदंती के अनुसार सम्राट जहाँगीर के अंतःपुर में एक घंटी होती थी जिसकी जंजीर महल के बाहर सड़क पर टँगी होती थी। कोई भी खींचकर सम्राट को खिड़की पर बुला सकता था।किशन जी पूछते हैं यदि राज्य-प्रजा संबंध की यह मध्ययुगीन कसौटी थी, तो आधुनिक विकासशील लोकतंत्र में क्यों नहीं हो सकती?” किशन जी का यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण और सामयिक है कि आधुनिक युग में प्रशासकों ने क्या तरीका विकसित किया है जिससे आम आदमी अपनी बात सरकार तक पहुँचा सके। उनकी मूल चिंता यह है कि व्यवस्था साधारण नागरिकों की समस्याओं, उनके सरोकारों के प्रति किस हद तक संवेदनशीलता दिखाती है, उनका कितना सुनती है।

आजादी के बाद  शासन की संवेदना आम आदमी के प्रति लगातार खत्म होती जा रही है। किशन जी का ही आकलन है कि अंग्रेजों के समय प्रशासन के अधिकारियों को अपने गोरे साहबों का डर था। आजादी के बाद यह डर खत्म हो गया। किशन जी इसके कारणों की पड़ताल करते हुए लिखते हैं, आजाद भारत में नौकरशाही ने अपने लिए नियम-कानून खुद बनाये, उसमें अपने उत्तरदायित्व के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी। ऐसी स्थिति में किसी नौकरशाह से उत्तरदायित्व की उम्मीद करना अपने आप में बेईमानी होगा। भारत का  व्यक्ति राज्य और उसकी व्यवस्था के साथ जुड़ी अपनी समस्याओं, उलझनों से स्वयं जूझता रहता है, व्यवस्था उसे अपने चक्कर कटवाती रहती है। इस प्रक्रिया में सामान्य नागरिक को झुंझलाहट भी होती है। उसे लगता है व्यवस्था ने उसे अपने जाल में फंसा दिया है। अपनी समस्याओं से निजात पाने के लिए वह भ्रष्ट तरीकों को अपनाता है या अन्तोगत्वा वह थक-हार कर अपना रास्ता बदल लेता है या अतिवादी कदम की दिशा में मुड़ जाता है।

बिहार का प्रशासन भयंकर रूप से  संवेदनहीन हुआ है। बहुत छोटे-छोटे कामों के लिए भी अधिकारियों को घूस देनी पड़ती है, जो लोग घूस नहीं दे सकते वे कार्यालयों के चक्कर लगाते रह जाते हैं।

इस मामले में इन पंक्तियों के लेखक के कड़वे अनुभव हैं जो स्वयं बिहार का निवासी है। ग़ैरमजरूवा जमीन संबंधी मामले में उसका सामना बिहार प्रशासन से हुआ। बात 2005 की है जब लेखक के पड़ोसियों ने उसके द्वार-दरवाजे को यह कहते हुए कब्जा कर लिया कि उक्त सरकारी जमीन उनके नाम 1970-71 में बंदोबस्त हुई थी। जबकि लेखक के परिवार वाले  पीढ़ियों से उस जमीन पर रह रहे हैं। उनका मानना है कि उक्त जमीन दूसरे के नाम से कैसे बंदोबस्त हो सकती है? यदि उक्त जमीन बंदोबस्त हुई है तो यह ग़लती भूमि प्रशासन की है जो अपनी गलती को ठीक करे। पूर्व में हुई बंदोबस्ती को रद्द कर, नये सिरे से वर्तमान दखल कब्जे के आधार पर बंदोबस्त करे। इस समस्या के समाधान हेतु मैं नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल में आयोजित जनता दरबार में दो बार गया था। मुख्यमंत्री से मुलाकात कर उनसे अपनी बात बतायी और आवेदन दिया।

जिलाधिकारी, अनुमंडलाधिकारी, अंचलाधिकारी समेत तमाम अधिकारियों के दरवाजे खटखटाये। उन तमाम अधिकारियों को लिखित और मौखिक रूप से अपनी समस्या से अवगत कराया। इस प्रक्रिया में लेखक को न्याय दिलाने के लिए तब के ही एक राज्यसभा सांसद ने जिलाधिकारी से बात की और पत्र लिखा। सांसद के पत्र के आलोक में जिला कलक्टर ने पूर्व में हुई बंदोबस्ती को रद्द करने का आदेश दिया। बावजूद इसके, ढाक के तीन पात ही हुए।

पंद्रह साल बाद भी अंचल से रिपोर्ट जिलाधिकारी तक नहीं पहुँची। पूर्व में हुई बंदोबस्ती रद्द नहीं हुई। वर्तमान स्थिति के आधार पर बंदोबस्ती हेतु नया प्रस्ताव अंचल ने नहीं बनाया। लेखक के घर-द्वार को उजाड़ने की कोशिश पहले का बंदोबस्तीदार कर रहा है। अब वह कहाँ जाए? क्या करे? किसका दरवाजा खटखटाए? है आपके पास कोई जवाब? यह बिहार का प्रशासन है।

अंत में थके-हारे लेखक को उसके साथियों ने मदद की। बिहार प्रशासन में एक आला अधिकारी के हस्तक्षेप के बाद कलक्टर के निर्देश पर स्थानीय प्रशासन हरकत में आया। पैमाइश कराकर नया नक्शा और और वर्तमान दखल कब्जे के आधार पर बंदोबस्ती हेतु नया प्रस्ताव यह लेख लिखे जाने तक बनना जारी है। ऐसा पंद्रह साल पहले भी हो चुका है। इस बार क्या होगा पता नहीं।

इन पंक्तियों के लेखक का यह काम बहुत छोटा है। इसका समाधान स्थानीय प्रशासन के स्तर पर ही हो जाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यदि प्रशासन अपना सामान्य काम सहज तरीके से करता, जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनशील होता, तो ऐसी स्थिति नहीं आती। इससे जनता के अंदर, सरकार और प्रशासन के प्रति गुस्सा बढ़ा है। बिहार सरकार ने जनता के बीच बढ़ रहे इस आक्रोश को कम करने के लिए थाना से लेकर मुख्यमंत्री तक जनता दरबार की अवधारणा लेकर आई है। इन जनता दरबारों में भीड़ दिखाई पड़ रही है। इसका मतलब है कि बिहार का प्रशासन अपना रूटीन काम भी नहीं कर रहा है। सामान्य आदमी जिसकी पहुँच इन महकमों और उनके अधिकारियों तक नहीं है, उसके साथ प्रशासन क्या व्यवहार करता होगा,यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

इस प्रशासनिक लेटलतीफी और जनता के शोषण और दमन के मूल में कहीं औपनिवशिक प्रशासनिक ढांचा तो नहीं है जिसे अंग्रेजों ने भारतीयों के दमन के लिए अपनाया था। वही प्रशासनिक ढांचा  बिना किसी बदलाव के आजादी के बाद भी बदस्तूर जारी है।

किसी पढ़े-लिखे आदमी से आप प्रशासन में बदलाव की बात कीजिए तो वह हायतौबा मचाने लगेगा। उसे लगता है यदि वर्तमान प्रशासनिक ढांचा नहीं रहेगा तो देश नहीं चल सकता। लेकिन शोषण के लिए बनाये गये इस प्रशासनिक ढांचे से जो गड़बड़ियां पैदा हो रही हैं वे उसे दिखाई नहीं पड़तीं। ऐसी स्थिति में हमें दमन और शोषण के बुनियादी कारणों की पड़ताल भी करनी होगी। प्रशासन के इस ढांचे को बदलने के बारे में भी सोचना होगा।

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