एक दलित युवक द्वारा पार्टी की तलाश

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— विजय प्रताप —

माज का दलित तबका क्या सोचता है, उसकी आकांक्षाएं क्या हैं, अल्पसंख्यक युवा-मन के सपने क्या हैं, आदिवासी समाज की अपनी परंपरा और जीवनचर्या के बारे में चिंता या नकलची विकासवाद से उनके बड़े हिस्से को विस्थापित बंधुआ बनाने की समस्या आदि ऐसे सवाल हैं जिन पर बहस या बातचीत राजनीतिक रूप से जागरूक हलकों में भी कम ही सुनने को मिलती है। मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि वाले लोगों के लिए आधुनिकतावाद की अंधी दौड़ के इस माहौल में इन सवालों पर सोचने जानने का काम अपने रोजमर्रा के काम करते हुए सहज ढंग से कर पाना संभव नहीं है। अपनी संवेदना को गहरा और ग्रहणशीलता को सुघड़ बनाने के लिए हमें समाज-जीवन की विविध अनुभूतियों को खुद कोशिश करके जानना-समझना होगा।

प्रस्तुत है एक लोकतंत्रनिष्ठ दलित नौजवान की कहानी। बिहार आंदोलन से भावनात्मक रूप से जुड़े नौजवान कुलश्रेष्ठ की यह कहानी है। बिहारी समाज के राजनीतिक माहौल में इस आदर्शवादी नौजवान के मन में लोक राजनीति करने की ललक पैदा होती है। वह विपक्ष में अपने लिए उपयुक्त दल की खोज करने लगता है। अपनी इस खोज में यह नौजवान हर बार गली के बंद सिरे पर जा पहुंचता है। कहानी के प्रतिनिधि होने का दावा तो नहीं है लेकिन कुलश्रेष्ठ की लोक राजनीति करने की ललक, उसके लिए कोई रास्ता न खोज पाने की स्थिति, बहुत से नौजवानों की मनःस्थिति का चित्रण है। दलित मन की इस खोज के विभिन्न आयामों और नियति के बारे में हमें गहराई से सोचना और कुछ करना होगा। इस कहानी को अपने मित्र दायरे के अनुभवों के आधार पर ही लिखा गया है, आशा है परिचित पात्र क्षमा करेंगे।

कुलश्रेष्ठ की पढ़ाई अपने कस्बे के बृजकिशोर स्मृति विद्यालय में हुई थी। स्कूल की कई यादें उसके स्मृति पटल पर आज भी जीती-जागती तस्वीर की तरह हैं। छठे दर्जे से आठवें तक गणित पढ़ानेवाले अध्यापक श्री लाल सिंह की याद तो उसे रह-रहकर आती है। कितने कठोर दिखते थे पढ़ाते समय। रौब इतना कि चाहे कुछ हो उनके दिए हुए प्रश्नों को हल करके लाना कोई छात्र नहीं भूलता था। छठे- सातवें दर्जे में कुलश्रेष्ठ ने सुन रखा था कि लाला सिंह जी आठवें दर्जे के छात्रों को बाबासाहब आंबेडकर के जन्मदिन पर अपने गांव में ‘भोज’ पर बुलाते हैं और उसी दिन जाति तोड़ो सम्मेलन करते हैं।

एक दिन कुलश्रेष्ठ भी आठवीं में पहुंचा और बाबासाहब का जन्मदिन भी आ गया। कुलश्रेष्ठ गुरुजी के गांव पहुंचा, स्कूल के साथियों के अतिरिक्त वहां उसी गांव के अन्य युवक भी मिले, युवतियां लगभग नगण्य थीं गुरुजी की बड़ी बेटी और उसकी कुछ सहेलियां। सब लोग छोटे-छोटे समूहों में गप कर रहे थे। कुलश्रेष्ठ भी अपने से बड़ी उम्र के नौजवानों की एक टोली की चर्चाएं चुपचाप खड़ा होकर सुनने लगा।

एक युवक कह रहा था बाबासाहब ना होते तो आज हमारी क्या हालत होती? दूसरा बोला, “इस बात को गा-गा कर नाचो, अभी कितना कुछ करने को है बाकी, उसके बारे में तो कुछ सोचो।” चौथे ने कहा, “सोचें क्या खाक, मुझे तो अभी से नौकरी और बहन की शादी की चिंता सता रही है, पिताजी को जब से टीबी हुआ है कोई काम नहीं कर पा रहे हैं” आदि-आदि।

कुलश्रेष्ठ धीरे से दूसरी टोली की ओर बढ़ गया क्योंकि वहां गरमागरम बहस हो रही थी। एक पक्ष कह रहा था जातिवाद पर प्रभावी हमला बाबासाहब का ही था, बाकी लोग खासकर गांधीजी तो उसमें रोड़े अटकाते थे। दूसरे समूह का दावा था कि गांधीजी के बगैर मानवता का इतना बड़ा कलंक, बिना हिंसा, इस हद तक धुल पाता, इसकी कल्पना असंभव है। ऐसा थोड़े है कि इससे पहले जातिवादी मानस के खिलाफ संघर्ष नहीं हुए, पूरा भक्तिकाल इस संघर्ष की ही कहानी है, लेकिन गांधीजी ने तथाकथित सवर्ण जातियों की इंसानियत को जिस हद तक जगाया, वहशीपन को जितना कम किया उतना किसी ने नहीं।

दूसरा चिल्लाकर बोला- ‘बिल्कुल नहीं! बिल्कुल नहीं! पूरी साजिश सवर्णों की हैसियत बनाए रखने की थी, नाम दे दिया हरिजन और काम किया हमारे गुस्से को कुंद करने का।’ तीसरा बोला, ठीक है भाई, लेकिन ‘सवर्णों’ में अस्पृश्यता के खिलाफ गुस्सा और उसे खत्म करने की छटपटाहट भी तो पैदा की। मोक्ष को जीवन का महान लक्ष्य माननेवालों को यह भी तो समझाया कि ‘दरिद्रनारायण’ की सेवा से ही मोक्ष मिलेगा। जीवन व्यवहार में सही-गलत को जांचने के लिए ‘अचूक ताबीज’ के केंद्र में ‘आखिरी आदमी’ को ही रखा।

कुलश्रेष्ठ को बहस रोचक तो लगी पर जिस जोर-शोर से कही जा रही थी, वह उसे अच्छा न लगा। प्रत्येक के तर्क सुनकर उसे लगा दो अलग इंसान थे इसलिए उन्होंने अपने अपने ढंग से अच्छा काम किया- अस्पृश्यता मिटाने को, इंसान की गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित करने को।

कुलश्रेष्ठ है अभी इस बहस को पचा ही रहा था कि खाने की घंटी बज गयी। वह भी पांत में जाकर बैठ गया। चुपचाप अकेले अपना काम करते जाने की उसकी आदत शुरू से ही थी। आज भी वह अपने सहपाठियों से बहुत घुल-मिल नहीं रहा था। लेकिन उसके बगल में रशीद बैठा था। बहुत मजाकिया स्वभाव है उसका। पढ़ने में भी तेज। रशीद लगा कुलश्रेष्ठ से भी मजाक करने। कुलश्रेष्ठ भी आज अपने स्वभाव से विपरीत खुलकर हंसने, मजाक करने लगा और खाना खाने के दौरान ही दोनों के बीच इस प्रकार बातें होने लगीं मानो बरसों से एक दूसरे के दोस्त हों।

खाना हुआ। करीब आधे घंटे बाद पूरे माहौल में एक अजीब सा दबा-दबा शोर हुआ और सभी लोग गोष्ठी के लिए बनाए पंडाल में जमा होने लगे। जाने पर पता चला कि बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर बिन बुलाए यहां चले आए थे। पंडाल में बादामी कुर्ता और पीली सी हो रही सफेद धोती पहने एक आदमी कह रहा था, “बगल से गुजर रहा था, पता चला जाति तोड़ो सम्मेलन हो रहा है, सोचा होता चलूं।” यह कर्पूरी ठाकुर थे, बिहार के जन नेता। कुलश्रेष्ठ के मन में उनकी बात सुनने की इच्छा और तीव्र हुई।

पंडाल का जमावड़ा अब सभा की शक्ल ले रहा था। कर्पूरी जी को लोगों ने मंच पर बिठाया। गांव के स्वतंत्रता सेनानी दलपतराम ने सभा की शुरुआत की। गुरुजी ने इस सहभोज और गोष्ठी के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए पिछले 13 बरस से निरंतर चल रहे इस सिलसिले की कुछ ‘यादों’ को सभा के सामने रखा। खैर, कर्पूरी जी का नंबर आया- छोटा ही भाषण दिया लेकिन पता नहीं जादुई-सा असर हुआ कुलश्रेष्ठ पर उसका। आज भी उसके स्मृति पटल पर उन्होंने जो कहा उसकी याद कुछ इस प्रकार है-

“हमारे जातिवादी मानस का अहंकार देखते ही बनता है, जड़ और चेतन को ब्रह्म का हिस्सा माननेवाले लोग इंसान और इंसान के बीच भेदभाव करते हैं। भारतीय समाज अपने संकल्प और संघर्ष से यदि समतामूलक समाज नहीं बनाएगा तो विश्व बिरादरी में हमारा स्थान शूद्र का ही बना रहेगा। यूएनओ में ‘वीटो’ का अधिकार प्राप्त सवर्ण है, शेष सब शूद्र। हमारे देश से तथाकथित ऊंची जाति का छात्र विदेश पढ़ने जाता है तो गोरों के होटल में जूठे बर्तन भी धो लेता है अपना खर्च चलाने को, और अपने ही देश में श्रम से भागने की हरसंभव कोशिश करता है। नए हिंदुस्तान में कमरों और लुटेरों की दो जातियां नहीं होंगी। नया हिंदुस्तान पूरी दुनिया में जहां भी समता के लिए, अन्याय के खिलाफ संघर्ष चल रहे हैं, उनसे जुड़ेगा उनकी यथाशक्ति मदद करेगा।”

गोष्ठी के समापन के बाद वह घर लौट आया, रशीद के घर से होते हुए। लगता है गहरी दोस्ती की बुनियाद पड़ गई थी दोनों में। समय बीतता गया। 1977 जून में बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद कर्पूरी जी फिर बिहार के मुख्यमंत्री हुए। कुलश्रेष्ठ अब कालेज के दूसरे वर्ष में पढ़ रहा था कि एक दिन उसने सुना कि उसके स्कूल में गणित के अध्यापक लाल सिंह की किसी ने हत्या कर दी क्योंकि बिहार में अगड़े पिछड़े के बीच हो रहे संघर्षों में वह अपने ही लोगों को समझाने-बुझाने और निंदा-आलोचना के काम में लगे हुए थे। कुलश्रेष्ठ खबर मिलते ही रशीद को लेता हुआ गुरुजी के गांव गया। उनका अंतिम संस्कार दो दिन पहले हो चुका था।

लौटते समय कुलश्रेष्ठ ने रशीद को बताया कि जातिवाद के खिलाफ आंदोलन में अपना जीवन लगाने की इच्छा है लेकिन तीन छोटे भाइयों की पढ़ाई में मदद के लिए उसका कमाना भी जरूरी है। इसी बातचीत में रशीद और कुलश्रेष्ठ में करार हो गया कि रशीद दरियां-खेस बनाने के लिए खड्डियां लगाएगा और कुलश्रेष्ठ आसपास के गांवों और मंडियों में उनकी बिक्री का काम देखेगा और उन्हीं क्षेत्रों में जाति तोड़ो मंच बनाने की कोशिश करेगा।

आखिर कुलश्रेष्ठ की पढ़ाई खत्म हुई, रशीद और कुलश्रेष्ठ ने स्वरोजगार योजना के तहत कर्ज लेकर काम शुरू किया। दो वर्ष में ही जिले के हर प्रमुख हाट में, बाजार में उनकी दरियां और खेस बिकने लगे। समय बीतता गया, कुलश्रेष्ठ के दो भाइयों ने पढ़ाई पूरी की। एक भाई को क्लर्क और एक को असिस्टेंट की नौकरी मिल गई। अब उसने शादी भी कर ली।

तीसरा भाई होम्योपैथी का डॉक्टर बनकर अभी लौटा था, कुलश्रेष्ठ उसके लिए एक दुकान खरीदने की सोच रहा था कि अचानक सरकार की नई कपड़ा नीति से उनकी खड्डी के बंद होने की नौबत आने लगी। मिल के बने सूत पर कुछ ही मिलों के एकाधिकार और मिलीभगत की वजह से खेस-दरी बनाना अब घाटे का सौदा होने लगा था। कुलश्रेष्ठ का जिला बिहार के सबसे ग़रीब जिलों में एक था। उत्पादित माल के दाम बहुत ज्यादा नहीं बढ़ाए जा सकते थे।

इस बीच कुलश्रेष्ठ की पहल पर बने जाति तोड़ो मंच पूरे जिले में फैल गए। आसपास से आमंत्रण आने लगे। पिछले वर्ष तो वैशाली जिले के सोनपुर मेले में कबीर-लोहिया विचार मंच ने पाखंड मिटाओ प्रदर्शनी के उदघाटन के लिए युवा कुलश्रेष्ठ को आमंत्रित किया था। वहीं उसका श्रीपत से परिचय हुआ। श्रीपत छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़ा है और बोधगया में कार्यरत नौजवान है। सोनपुर मेले की गोष्ठी में उसने बोधगया मठ से भूमिहीनों के संघर्ष की कहानी सुनाई। कुलश्रेष्ठ सुनकर रोमांचित सा हो गया।

कुलश्रेष्ठ का मन पूरा समय इसी प्रकार के कामों में लगाने का बन रहा था। उसने अपने छोटे भाइयों से बात की। कुलश्रेष्ठ को सुखद आश्चर्य हुआ कि दोनों ने कहा कि “हम तो खुद ही सोच रहे थे कि अब आप समाज को ही अपना परिवार मानें, इस छोटे परिवार की आर्थिक जिम्मेवारी हम उठा लेंगे।” कुलश्रेष्ठ की जिंदगी में यह बहुत बड़ी घटना थी, अब उसने अपने सामाजिक काम के बारे में नए सिरे से सोचना शुरू किया, उसे लगता था कि उसके काम में कुछ अधूरापन है। लोग जाति तोड़ो मंच की गोष्ठियों, प्रभात फेरियों और प्रदर्शनियों में हिस्सा तो लेते हैं लेकिन बात कुछ आगे नहीं बढ़ रही।

(बाकी हिस्सा कल)

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